Monday, August 24, 2009

एक माया मिस्र की

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपनी मूर्तियों के कारण सुर्खियों और विवाद में हैं। अमरत्व की कामना, इतिहास में गुम हो जाने की आशंका और अपने को समाज पर थोपने की कोशिश कम ही कामयाब होती है। मिस्र की महिला बादशाह हातशेपसत की कहानी भी कुछ यही बताती है। उसे भी यही खौफ था कि इतिहास कहीं मुझे भुला न दे। उसने भी मूर्तियां बनवाईं। 1458 ईसा पूर्व हातशेपसत की मृत्यु हुई तब शासक बने उनके सौतेले बेटे ने अपनी मां के सारे स्मारक नष्ट करने का आदेश दिया। शाही मैदान से उसकी ममी भी हटवा दी। फिर भी हातशेपसत का नाम जिंदा है। तो क्या इतिहास को मिटा देने की कोशिश समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की तरह ही नाकाम रहती है!



कई बार ऐसा लगता है कि कुछ चीजें पहली बार हो रही हैं और ऐसी चीजों के लिए ‘इतिहास अपने को दोहराता है एक बेमानी कथन है। दरअसल, इसकी असली वजह शायद यह है कि इतिहास की हमारी समझ और पीछे जाकर चीजें टटोलने की क्षमता सीमित है। जैसे ही इतिहास का कोई नया पन्ना खुलता है, पता चलता है कि आज जो हो रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। दुनिया ऐसे लोग और उनकी बेमिसाल सनक पहले भी देख चुकी है। दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मिस्र की सभ्यता है, जिसका लिखित इतिहास सवा पांच हजार साल पुराना है। उसके प्राचीनतम साक्ष्य तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से पहले के हैं। उसकी वंश परंपरा पांच हजार साल पहले शुरू होती है और लगातार तीन हजार साल तक चलती है। इसी परंपरा में बीस वर्ष का एक ऐसा कालखंड आता है, जिसमें मिस्र की बादशाहत एक महिला के हाथ में थी। सामाजिक स्थितियों और परंपराओं में महिला शासक की स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए उस ‘महिला बादशाह-हातशेपसत को तकरीबन पूरा कार्यकाल पुरुष बनकर पूरा करना पड़ा। इस घटना का उल्लेख दस्तावेजों में है कि उसे ‘शी किंग कहा जाता था। हातशेपसत का कार्यकाल असाधारण उपलब्धियों वाला था। वह एक कुशल शासक थी। नई इमारतें तामीर कराने में उसकी दिलचस्पी थी। राजकाज से आम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके बीस साल के कार्यकाल को मिस्र के स्वर्णिम युग की तरह याद किया जाता है। हातशेपसत का कार्यकाल 1479 से 1458 ईसा पूर्व में था। एक अध्ययन के अनुसार, हातशेपसत की मां अहमोज एक राजा की पुत्री थी। उसके पिता टुटमोज प्रथम सही मायनों में राजशाही खानदान के नहीं थे। इसकी वजह से हातशेपसत को थोड़ी सामाजिक स्वीकार्यता मिली, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने पति के निधन के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। हालांकि टुटमोज प्रथम ने अपने सौतेले बेटे को गद्दी सौंपी थी लेकिन वह कभी सत्ता में रह नहीं पाया। पूरा इतिहास कुछ इस तरह गडमड था कि हातशेपसत की मौजूदगी और बेहतरीन सत्ता संचालन के बावजूद उसे स्थापित करने के ठोस प्रमाण नहीं मिल रहे थे। कुछ अमेरिकी और मिस्री विद्वानों को अचानक एक दिन एक खुली कब्र मिली, जिसके बाहर एक ममी पड़ी थी। यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव होता कि मिस्र के शासक रह चुके किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार हो सकता है कि उसकी ममी खुले में पड़ी हो। यह बात सौ साल पुरानी है। करीब 75 साल पहले एक और मिस्री विद्वान को उस ममी के पास सोने के गहने मिले। इससे उसे संदेह हुआ कि यह ममी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। पूरी चिकित्सकीय प्रक्रिया के बावजूद ममी का काफी हिस्सा नष्ट हो गया था और ले-देकर एक दांत सही सलामत मिला। उसी दांत के सहारे हातशेपसत की पहचान हुई और फिर उस ममी को सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया। हातशेपस का शासन दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहले हिस्से में करीब छह वर्ष तक वह टुटमोज द्वितीय के बेटे के उत्तराधिकारी के रूप में शासन करती रही। सारे फैसले उसके होते थे लेकिन नाम उस नाबालिग बच्चे का रहता था। छह साल बाद हातशेपसत ने नाबालिग टुटमोज तृतीय को बेदखल कर दिया और खुद सत्ता संभाल ली। इसके बावजूद महिला के रूप में समाज के सामने जाने का साहस हातशेपसत नहीं जुटा सकी और हमेशा पुरुषों के कपड़े पहनती रही। इतना ही नहीं, उस समय की तमाम प्रतिमाओं में भी उसे पुरुष की तरह चित्रित किया गया। शक्तिशाली फरोहा होने के बावजूद समाज द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के डर की वजह से हातशेपसत में एक तरह का जटिल व्यक्तित्व विकसित हुआ। उसे यह डर हमेशा लगा रहता था कि ताकतवर पुरुष प्रधान मिस्री समाज उसे खारिज कर देगा। उसका योगदान भुला देगा और उसका अस्तित्व इतिहास से मिटा दिया जाएगा। साढ़े तीन हजार साल पुरानी इस इतिहास-कथा ने हातशेपसत के इसी डर और चिंता के कारण एक नया मोड़ लिया। उसने तय कर लिया कि आगे का पूरा शासन वह एक पुरुष फरोहा की तरह चलाएगी और एक अभियान चलाकर समाज में अपनी छवि एक पुरुष की तरह स्थापित करेगी। उसकी बाद की प्रतिमाओं में उसके महिला होने के संकेत तक नहीं मिलते बल्कि चेहरे पर दाढ़ी भी दिखती है। ऐसे कई दस्तावेज मिलते हैं, जिसमें हातशेपसत ने कहा कि वह शासन करने के लिए भेजी गई ईश्वरीय देन है। इसी दौरान उसने यह फैसला लिया कि पूरे साम्राज्य में उसकी विराट प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, ताकि किसी को उसके फरोहा होने पर संदेह न रह जाए। मिस्र के छोटे से छोटे इलाके तक संदेश भेजे गए कि हातशेपस बादशाह है और कोई उसे चुनौती देने की कोशिश न करे। इसी के साथ उसने एक शब्द गढ़ा, जिसे रेख्त कहते थे और इसका अर्थ था-आम लोग। मिस्र की जनता को हातशेपसत प्राय: मेरे रेख्त कहती थी और हर फैसला यह कहकर करती थी कि रेख्त की राय यही है। लोकप्रियता हासिल करने की सारी सीमाएं हातशेपसत ने तोड़ दीं। हातशेपसत ने लगभग बीस साल के अपने शासन के दौरान हमेशा यह ख्याल रखा कि उसके किसी फैसले पर नील नदी के दोनों ओर बसे रेख्त की राय क्या होगी। एक दस्तावेज में उसने यहां तक लिखा कि अगर रेख्त की मर्जी नहीं होगी तो मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा। हातशेपसत की मृत्यु 1458 ईसा पूर्व में हुई, जिसके बाद उसके सौतेले बेटे टुटमोज तृतीय ने उन्नीसवें फरोहा के रूप में सत्ता संभाली। अपनी सौतेली मां की तरह टुटमोज तृतीय को भी स्मारक बनाने का शौक था। मुर्गी को भोजन की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा उसी ने शुरू की और उन्नीस साल के शासन में सत्रह सैनिक अभियान चलाए और कामयाब रहा। अपने शासनकाल के अंतिम दौर में उसने अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट होकर आराम से रहने की जगह एक अजीबोगरीब फैसला किया। यह फैसला था-अपनी सौतेली मां हातशेपसत द्वारा निर्मित सारे स्मारक और उसकी सारी प्रतिमाएं नष्ट कर देने का ताकि इतिहास में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। टुटमोज तृतीय अपने इस अभियान में भी सफल रहा और अपनी सौतेली मां को उसने साढ़े तीन हजार साल के लिए इतिहास से गायब कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी सौतेली मां की ममी को भी फरोहा के शाही मैदान से हटा दिया। उसे एक ऐसी जगह ले जाकर रखा, जहां किसी को संदेह ही न हो कि वह हातशेपसत हो सकती है। निश्चित तौर पर अमरत्व की कामना, इतिहास में खो जाने के डर और समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की कोशिश में किए गए प्रयास कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकते। लेकिन साथ ही यह भी लगता है कि इतिहास को नष्ट करने या उसे मिटा देने की कोशिश भी उतनी ही नाकामयाब होती है।

Sunday, August 2, 2009

गंगा जसी पवित्र गायकी


यह एक अद्भुत संयोग है कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों तरह की संगीत धाराओं का गढ़ कर्नाटक में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक को बीच से काटने वाली तुंगभद्र नदी के उत्तर में पनपा और बढ़ा जबकि कर्नाटक संगीत नदी के दक्षिण में। हिंदुस्तानी संगीत की गायकी के लगभग सारे बड़े नाम उत्तरी कर्नाटक में एक-दूसरे से सटे तीन जिलों से आते हैं, जिनमें धारवाड़, हुबली और बेलगांव शामिल हैं। सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, बसवराज राजगुरु, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल और राजशेखर राजगुरु सब के सब इसी धरती की देन हैं। गंगूबाई अपने परिवार में पहली गायिका नहीं थीं लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय गायकी के लिए बहुत अनुकूल नहीं थी। यह बात भी उनके खिलाफ जाती थी कि वे महिला होकर शास्त्रीय संगीत की पुरुष प्रधान बिरादरी में दाखिल होना चाहती थीं। गंगूबाई की मां अंबाबाई, यहां तक कि उनकी दादी भी देवदासी परंपरा से आती थीं और मंदिरों में गायन उनके लिए सहज-सामान्य था लेकिन मंदिर के बाहर सार्वजनिक मंच से शास्त्रीय गायन उतना ही कठिन। गंगूबाई का गायन आठ दशक में फैला हुआ है लेकिन शायद गायकी की पुख्तगी से ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने तमाम तरह की विषमताएं ङोलते हुए अपना मुकाम हासिल किया। कन्नड़ में लिखी अपनी आत्मकथा मेरा जीवन संगीत में गंगूबाई ने इसका विस्तार से हवाला दिया है और लिखा है कि उन्हें ऊंची जातियों के शुक्रवार पेठ मोहल्ले से निकलते हुए किस तरह की फब्तियां सुननी पड़ती थीं। उन्हें बाई और कोठेवाली कहा जाता था। गंगूबाई के बचपन के गांव हंगल में मैंने उनका पुश्तैनी घर देखा। सौ साल पहले बने छोटे से अहाते वाले उस घर के पांच टुकड़े हो गए थे, जिस पर बंटवारे के बाद परिवार के लोगों ने अलग-अलग घर बना लिए थे। गंगूबाई की मां के हिस्से में आया टुकड़ा उजाड़ था। खपरैल की छत थी, पर टूटी हुई। सामने के दरवाजे पर ताला लगा था और लकड़ी की दोनों खिड़कियां गायब थीं। मुझे उस घर तक ले गई एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि गंगू उनकी बचपन की सहेली थी लेकिन अब यहां नहीं आतीं। उसने हुबली में घर बनवा लिया है। नई पीढ़ी के बच्चों में ज्यादातर ने उनका नाम नहीं सुना था और कुछ बुजुर्गो में वही हिकारत थी, जिसका जिक्र विषमताओं के रूप में गंगूबाई ने अपनी किताब में किया है। हुबली में गंगूबाई का छोटा सा घर है। सामने बरामदा, अंदर एक आंगन और उसके तीन तरफ बने कमरे। मैंने हंगल और उनके बचपन के बारे में पूछा तो गंगूबाई टाल गईं। बाद में उनकी बेटी और बहू, जो खुद बेहतरीन गायिका हैं, कहा कि बचपन में सामाजिक अपमान का असर मां पर इतना था कि उन्होंने पचपन साल की होने तक बेटी को सार्वजनिक मंच से गाने नहीं दिया। उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूला, जब गायन के दौरान श्रोताओं में से किसी ने कहा, ‘गाना बहुत हुआ बाई, अब ठुमका हो जाए।गंगूबाई ने अपनी आत्मकथा में बहुत संयम से लेकिन पीड़ा के साथ लिखा है कि शास्त्रीय संगीत में आज भी महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव होता है। शायद यही वजह है कि बड़ी से बड़ी गायिका बाई होकर रह जाती है जबकि पुरुष उस्ताद और पंडित बन जाते हैं। इस आधार पर कि वे मुसलमान हैं या हिंदू। उन्होंने इस सिलसिले में हीराबाई और केसरबाई का जिक्र किया है। इस बात पर हैरानी होती है कि शास्त्रीय संगीत में महिलाएं ऊंचे घरानों से क्यों नहीं आईं और जहां से आईं, उनकी स्वीकार्यता इतनी आसान क्यों नहीं थी। इसमें हीराबाई बारोडकर, केसरबाई केरकर, जद्दनबाई, रसूलनबाई और अख्तरीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। समाज ने बहुत बाद में केवल अख्तरीबाई को थोड़ी इज्जत बख्शी और उन्हें बेगम अख्तर कहा जाने लगा। गंगूबाई का संबंध किराना घराने से था, जिसके उस्ताद अमीर खां मीरज में रहते थे। गंगूबाई की मां अंबाबाई जब अपने घर में गाती थीं तो उस्ताद अब्दुल करीम खां उन्हें सुनने आते थे। गंगूबाई के गुरु सवाई गंधर्व और हीराबाई भी अंबाबाई की गायकी के प्रशंसकों में थीं। धारवाड़ में अंबाबाई को सुनने के लिए उनके घर के बाहर भीड़ जमा हो जाती थी। अंबाबाई ने अपनी बेटी को संगीत की तालीम देने की जिम्मेदारी सवाई गंधर्व को सौंप दी, जिसके लिए गंगूबाई को 30 मील दूर जाना पड़ता था। वहां उनके गुरुबंधु थे पंडित भीमसेन जोशी। उस जमाने में दिन में सिर्फ दो बार रेल चलती थी जो धारवाड़ को सवाई गंधर्व के गांव से जोड़ती थी। यानी कि गाड़ी छूट जाए तो रात स्टेशन पर ही बितानी पड़ती। भीमसेन जोशी वापसी में अक्सर गंगूबाई को घर तक छोड़ने आते थे। फिरोज दस्तूर भी उन दिनों वहीं थे। सवाई गंधर्व ने गंगूबाई को सिखाने में ख्याल पर जोर दिया और चाहा कि वह सात रागों पर महारत हासिल करें। जाहिर है, गंगूबाई के पास गायकी में भीमसेन जोशी जसी विविधता नहीं है लेकिन भैरवी, आसावरी, भीमपलासी, केदार, पूरिया धनाश्री और चंद्रकौंस में विलंबित में जिस तरह का राग विस्तार उनके पास है वह जोशी और दस्तूर के पास भी नहीं। अपनी हर रचना को प्रार्थना कहने वाली गंगूबाई की सिर्फ एक ख्वाहिश अधूरी रह गई कि वह सौ साल जीना चाहती थीं। प्रकृति ने उन्हें तीन और वर्ष नहीं दिए लेकिन उनकी अंदर तक धो देने वाली गंगाजल जसी पवित्र गायकी किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। वह सैकड़ों साल जिंदा रहेगी।