Saturday, February 28, 2009

स्लमडॉग पर गिद्धभोज


गिद्ध मानसिकता के नमूने हर जगह देखे जा सकते हैं, खासकर सबसे आगे रहने की होड़ में या इस बात में कि जो कुछ हुआ है, उसका श्रेय कैसे लिया जाए।



मेरे एक उम्रदराज मित्र हैं। मनुष्य की मानसिकता को पशु-पक्षियों की प्रवृत्ति और उनके नैसर्गिक गुणों से जोड़कर देखने की प्राचीन परंपरा के इस समय संभवत: एकमात्र वाहक। लोमड़ी की तरह चालाक, कुत्ते जैसा वफादार, हाथी की तरह मस्त या सांप जैसा जहरीला कह देना उन्हें काफी नहीं लगता। वे भाषाविद हैं और शब्दों के निरंतर अर्थ-विस्तार में उनकी गहरी रुचि है। अपने पुत्र के विवाह के मौके पर उन्होंने निमंत्रण पत्र छपवाया तो कई लोग नाराज हो गए। निमंत्रित होने के बावजूद उन्हें ऐसे समारोह में जाना मंजूर नहीं था, जहां उन्हें गिद्ध कहा जाए। निमंत्रण पत्र में, जहां आमतौर पर प्रतिभोज लिखा होता है, उन्होंने गिद्धभोज छपवा दिया था। उनका तर्क था कि यह बुफे भोजन का निकटतम सही शब्द है क्योंकि लोग अचानक अपनी प्लेट लिए खाने पर टूट पड़ते हैं। उस समय उनका व्यवहार शव पर मंडराते गिद्ध के ज्यादा और बेहद करीब होता है।गिद्ध इस समय खतरे में हैं। उनकी संख्या लगातार घट रही है और पूरी प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर है। वे गांवों में अब कम ही दिखते हैं और शहरों से उनका लगभग सफाया हो गया है। पर गिद्धों को चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि मानसिकता के रूप में आज उनकी उपस्थिति पहले से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में है। और यह सिर्फ भोजन तक सीमित नहीं है। इस गिद्ध मानसिकता के नमूने हर जगह आसानी से देखे जा सकते हैं। खासकर, सबसे आगे रहने की होड़ में। या इस बात में कि जो भी हुआ है, उसका श्रेय कैसे लिया जाए। उन्हें पता है कि वे चूके तो गिद्ध मानसिकता वालों का दूसरा जत्था आगे आ जाएगा और उनके हिस्से एक लोथड़ा भी नहीं आएगा। यह वही मानसिकता है, जिसके तहत विभिन्न राजनीतिक दल महात्मा गांधी से लेकर स्वामी विवेकानंद तक किसी को भी अपना बनाने और हड़पने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। यानी जो भी अपने फायदे में दिखे, अपना लो। लॉस एंजेलीस में सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार समारोह खत्म होने के कुछ ही घंटे के भीतर यही गिद्धभोज फिर दिखाई पड़ा। बात सिर्फ बधाई देने तक होती तो किसी को आपत्ति नहीं होती। मुंबई की झुग्गी बस्ती पर बनी एक ब्रिटिश फिल्म ने आठ आस्कर जीते तो कांग्रेस पार्टी उनका श्रेय लेने में सबसे आगे निकल गई। उसने कहा कि ‘स्लमडॉग मिलियनेयर को ऑस्कर पुरस्कार संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए माहौल की वजह से मिला। पार्टी प्रवक्ता ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यह माहौल स्लम के कारण बना या डॉग के कारण। या फिर आर्थिक उदारीकरण की नीति की वजह से बने मिलियनेयर से। आम चुनाव करीब आ रहे हैं तो भी ऐसा बेहूदा दावा समझ से परे है। फिल्म में सरकार की रत्ती भर भी भूमिका रही होती तो बात समझ में आती लेकिन हर अच्छी चीज का श्रेय लेने की यह हड़बड़ी कतई गले से नहीं उतरती बल्कि इससे उबकाई आती है। इस हास्यास्पद दावे को थोड़ा और कीब से देखिए। स्लमडॉग मिलियनेयर एक अच्छी किताब पर बनी निहायत साधारण फिल्म है, जिसका भारत से केवल इतना संबंध है कि कहानी भारतीय है और उसके अधिकतर पात्र भारत के हैं। फिल्म अमेरिकी पैसे से बनी उसका निर्देशन एक और ब्रितानी फिल्मकार ने किया। यानी कि वह भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। स्लमडॉग के पहले यही स्थिति एक बार पहले भी आ चुकी है, जब रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी को आठ ऑस्कर मिले थे। उसमें भी कहानी, उसके मुख्यपात्र और पृष्ठभूमि को छोड़कर कुछ भी भारतीय नहीं था। संयोग से गांधी का श्रेय लेने की ऐसी कोशिश नहीं हुई, जैसी स्लमडॉग के मामले में दिखाई पड़ी।अगर स्लमडॉग को भारतीय फिल्म कहने का तर्क यही है कि इस फिल्म की पूरी शूटिंग भारत में हुई तो इस नजरिए से भारत की तमाम फिल्में अमेरिकी, ब्रिटिश या स्विस हो जाएंगी क्योंकि उनकी पूरी शूटिंग वहां हुई। इनमें से कोई देश ऐसा दावा नहीं करता। दरअसल स्लमडॉग का श्रेय लेने का प्रयास गिद्ध मानसिकता के अलावा पश्चिम की मानसिक गुलामी भी है। अगर पश्चिमी देश किसी चीज को मान्यता देते हुए उसे स्वीकार कर लें तो यह भारत के लिए एक उपलब्धि हो जाता है। विश्व की महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले देश के लिए पश्चिमी मान्यता की भीख की गरज से कटोरा लेकर खड़े होना निंदनीय तो है ही, शर्मनाक भी है और इसका श्रेय लेना पूरी तरह घृणित और अस्वीकार्य। स्लमडॉग पर सिनेमा जगत की प्रतिक्रिया भी अनुचित है पर उसे कुछ हद तक यह मानकर छोड़ा जा सकता है कि वे सपनों के व्यापारी हैं और शुद्ध व्यापार की गरज से ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि इससे भारतीय सिनेमा के लिए हॉलीवुड के दरवाजे खुल जाएंगे। उनकी कमाई बढ़ जाएगी और पहचान भी। राष्ट्रीय सोच के स्तर पर इस स्वार्थ का कोई अर्थ नहीं है। राजनीतिक दलों में इस तरह की होड़ अशोभनीय है। कांग्रेस इस मामले में चुप रहकर या केवल एआर रहमान को बधाई देकर शायद बच जाती पर उसने ऑस्कर को परमाणु करार से जोड़कर स्वयं को हंसी का पात्र बना लिया है। रचनात्मकता और राजनीति दो अलग-अलग धाराएं हैं, जिन्हें अलग ही रहने दिया जाना चाहिए। सिवाय कुछ उन सहायक नदियों के, जो कभी इधर तो कभी उधर मिला करती हैं।

Wednesday, February 18, 2009

तुमने मेरी जिंदगी का खालीपन खुशियों से भर दिया

प्रेम कथा-5

एडविना अपने प्रेम संबंधों को लेकर बहुत खुली हुई थीं और उन्हें गोपनीय रखने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं करती थीं। लेकिन उनका यह व्यवहार अपने पति डिकी माउंटबेटन के मामले में बिलकुल भिन्न था। एडविना को यह कतई मंजूर नहीं था कि कोई दूसरी महिला डिकी की जिंदगी में आए। डिकी ने अपनी पुरानी मित्र योला को दिल्ली आमंत्रित किया तो ऊपरी तौर पर दोस्ताना अंदाज निभाते हुए एडविना ने पूरी कोशिश की कि योला जल्दी से जल्दी लंदन लौट जाए। उन्होंने एक यात्रा निर्धारित की और योला को लेकर घूमने चली गईं ताकि वह माउंटबेटन के साथ न रह पाएं। इतना ही नहीं, एडविना ने डिकी से हामी भरवाई कि उनके निधन के बाद भी वह योला से शादी नहीं करेंगे। एडविना के प्रेम संबंधों की सूची बहुत लंबी है, जिनमें से एक उस दौरान दिल्ली में थे। फील्ड मार्शल क्लॉड ऑकिनलेक। लेकिन नेहरू इन सब से भिन्न थे और पहली मुलाकात के बाद से वह लगातार एडविना की जिंदगी में महत्वपूर्ण बने रहे। अपने कार्यालय में बैठे नेहरू को एक दिन एडविना की चिट्ठी मिली। वर्ष 1957 में एडविना ने लिखा, ‘‘दस साल.. दस साल हो गए। यह दस साल कितने महत्वपूर्ण हैं। इतिहास के लिए और हमारी निजी जिंदगियों के लिए। नेहरू ने जवाब लिखा, ‘‘सचमुच.. दस साल। नेहरू और एडविना की संभवत: आखिरी मुलाकात 1960 में हुई। तब नेहरू सत्तर साल के थे और एडविना अट्ठावन की। 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस की परेड में दोनों अगल-बगल खड़े थे। शाम को राष्ट्रपति भवन में चाय पर उनकी फिर मुलाकात हुई। एडविना की तबीयत ठीक नहीं रहती थी लेकिन नेहरू के साथ की वजह से उनका चेहरा दमकने लगता था। मैरी सेटन कहती हैं, ‘‘साथ-साथ खड़े नेहरू और एडविना कितने युवा लगते हैं।एडविना डिकी माउंटबेटन को अपना ‘पोस्टर ब्वॉय और नेहरू को ‘प्रेरणा कहा करती थीं। माउंटबेटन और नेहरू के बीच बातचीत और खतो-किताबत का दो-तिहाई हिस्सा एडविना के बारे में होता था। डिकी ने लिखा, ‘‘एडविना की तबीयत ठीक नहीं है और तुम्हें भी आराम की जरूरत है। कुछ दिन के लिए लंदन आ जाओ। एडविना तुम्हारा इंतजार कर रही हैं। नेहरू ने एक चिट्ठी एडविना को लिखी और एक डिकी को। उन्होंने डिकी को लिखा, ‘‘बहुत काम है और वक्त बहुत कम। लेकिन मैं आऊंगा। जब नेहरू लंदन में होते थे तो माउंटबेटन दूसरे घर में चले जाते थे ताकि एडविना और नेहरू कुछ समय साथ गुजार सकें। एडविना का दिल्ली और नेहरू का लंदन आना-जाना इतना विवादास्पद हो गया था कि ब्रिटेन की महारानी को इस मामले में खुद हस्तक्षेप करना पड़ा। किसी भी प्रेम कथा की तरह एडविना और नेहरू की प्रेम कहानी में बहुत कुछ अनकहा, अनसुना, अनलिखा रह गया। नेहरू को इसका मलाल था, ‘‘इतना कुछ कहना चाहता हूं पर शब्द साथ नहीं देते। एडविना ने लिखा, ‘‘तुमने मेरी जिंदगी का खालीपन खुशियों से भर दिया। उम्मीद है कि तुम्हारी जिंदगी में मेरा दखल भी इसी तरह का होगा।समाप्त

Monday, February 16, 2009

तुम्हें अंदाजा नहीं है कि तुम्हारी चिट्ठियों का मेरे लिए क्या मतलब है

प्रेम कथा-३

माउंटबेटन ने एडविना-नेहरू प्रेम कथा को कभी रोकने की कोशिश नहीं की बल्कि अपनी बेटी पेट्रीशिया को एक पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी। उन्होंने लिखा, ‘यह बात तुम अपने तक ही रखना लेकिन एडविना और नेहरू साथ-साथ बहुत अच्छे लगते हैं। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। एडविना और नेहरू की कुंभ मेले के दौरान खींची गई एक तस्वीर के नीचे माउंटबेटन ने अपने हाथ से लिखा, ‘परिवार के साथ इलाहाबाद में।
डिकी माउंटबेटन, एडविना, उनकी बेटी पामेला और नेहरू एक बार कार से मशोबरा गए। मशोबरा की पहाड़ियों में एडविना और नेहरू शाम को घूमने निकल जाते थे, डिकी जान-बूझकर कमरे में रहते थे। हर सुबह यहीं दोनों बागीचे में बैठकर चाय पीते और दिन में कार से आसपास के इलाकों में जाते। पामेला ने एक बार एक पत्रकार से कहा, ‘मुझसे पूछा गया है कि क्या मेरी मां एडविना और नेहरू के बीच प्रेम था? मेरा जवाब है-हां।
1948 में डिकी माउंटबेटन और एडविना लंदन लौट गए। इस दूरी के बावजूद नेहरू और एडविना का प्रेम कम नहीं हुआ। शुरू में एडविना और नेहरू हर रोज चिट्ठी लिखते थे, फिर हर हफ्ते और बाद में हर पखवाड़े। समय बीतने के बावजूद इन पत्रों की गंभीरता और गहराई कम नहीं हुई। नेहरू पर प्रधानमंत्री बनने के बाद काम का बोझ बढ़ गया था लेकिन एडविना के पत्र तनाव के बीच उन्हें राहत देते थे। इस दौरान एडविना हर साल दिल्ली आती थीं और कई-कई हफ्ते रहती थीं। इसका असर भारतीय राजनीति पर भी पड़ने लगा था और टीका-टिप्पणी होने लगी थी। मामला इस हद तक आगे बढ़ा कि 1953 में नेहरू को संसद में एडविना का बचाव करना पड़ा। विरोधी राजनीतिक दलों ने उनके संबंधों के बारे में उनसे सीधा सवाल पूछा था, जिसपर नेहरू ने कहा, ‘यह छोटे दिमाग की बकवास है।
अप्रैल 1958 में नेहरू ने अचानक सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर निजी जीवन बिताना चाहते हैं। उन्होंने कहा, ‘यह सब कितना उबाऊ और सतही है।
एडविना को खबर मिली तो उन्होंने लिखा, ‘तुम्हें आराम की जरूरत है। छुट्टी लेकर पहाड़ों पर चले जाओ। मुझे बताओ कि मैं तुम्हें खत लिखती रहूं या नहीं? अगर तुम नहीं कहोगे तो भी मैं तुम्हारी बात समझूंगी।
नेहरू ने लिखा, ‘तुम्हें क्या लगता है कि महीनों गुजर जाएं और तुम्हारी चिट्ठी न आए, तो मुझे कैसा लगेगा? तुम्हें अंदाजा नहीं है कि तुम्हारी चिट्ठियों का मेरे लिए क्या मतलब है।
नेहरू की एक दोस्त मैरी सेटन का मानना था कि नेहरू को एडविना की जितनी जरूरत थी उससे ज्यादा एडविना को नेहरू की। एडविना हमेशा नेहरू के आसपास रहने की कोशिश करती थीं। चाहती थीं कि नेहरू का एक भी शब्द हवा में गुम न हो जाए। नेहरू ने अपने एक खत में एडविना को लिखा, ‘मैं तुम्हारी चिट्ठियां इतनी बार पढ़ता हूं कि मुझे लगता है कि यह एक प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता। लेकिन तुम जानती हो कि घटनाक्रम और संयोग ने मुझे प्रधानमंत्री बना दिया।
जारी..

Sunday, February 15, 2009

डिकी आज रात बाहर रहेगा, तुम दस बजे के बाद आना

  • पार्ट टू


नेहरू और एडविना की मुलाकात 1922 में ही हो गई होती लेकिन आजादी की लड़ाई और पिता मोतीलाल नेहरू के स्वभाव की वजह से यह संभव नहीं हुआ। एडविना माउंटबेटन से मिलने पानी के जहाज से लंदन से मुंबई पहुंचीं, जहां से उन्हें दिल्ली आना था, लेकिन तब तक प्रिंस ऑफ वेल्स का काफिला और माउंटबेटन इलाहाबाद पहुंच गए। इलाहाबाद के जिलाधीश ने मोतीलाल नेहरू से प्रिंस ऑफ वेल्स को अपने घर आनंद भवन में ठहराने का आग्रह किया पर उन्होंने इनकार कर दिया। उल्टे इस यात्रा का भारी विरोध रोकने के लिए मोतीलाल और उनके बेटे जवाहर को गिरफ्तार कर लिया गया। जवाहर की उम्र उस समय 32 साल थी। जाहिर है एडविना को इस पूरे घटनाक्रम की कोई जानकारी नहीं थी और 1946 तक नहीं हुई। 1946 में नेहरू माउंटबेटन के निमंत्रण पर मलाया पहुंचे और वहीं पहली बार एडविना से मिले। एक जलसे के दौरान अचानक भीड़ बढ़ने और अवरोध टूटने से भगदड़ मच गई। माउंटबेटन और नेहरू ने हाथ से हाथ मिलाकर एडविना को घेरे में ले लिया और उन्हें बचाकर बाहर निकाला। आजादी के संघर्ष और संभावित विभाजन के तनाव के बीच 1947 में फील्ड मार्शल क्लॉड ऑकिनलेक के निजी सचिव शाहिद हमीद ने अपनी डायरी में लिखा, ‘एडविना और नेहरू इतना करीब आ गए थे कि लोगों को आपत्ति होने लगी थी। इसी दौरान जिन्ना के मित्र और बलूच नेता याहिया बख्तियार ने कहा, ‘नेहरू और एडविना के बीच प्रेम परवान चढ़ चुका था। इसी दौरान एसएस पीरजादा भी दिल्ली में थे, जो बाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने। उनके मुताबिक, एडविना के प्रेमपत्रों का एक पुलिंदा जिन्ना के पास पहुंच गया। जिन्ना ने चिट्ठियां पढ़ीं और करीबी लोगों के साथ सलाह-मशविरे के बाद उन्हें एडविना को लौटा दिया। हालांकि इससे उनके मन में यह बात घर कर गई कि माउंटबेटन वही करेंगे जो एडविना चाहेंगी और वो नेहरू के खिलाफ नहीं जाएंगे। इन चिट्ठियों में एक में लिखा था, ‘डिकी माउंटबेटन आज रात बाहर रहेगा, तुम दस बजे के बाद आ जाना। एक और चिट्ठी, ‘तुम अपना रुमाल भूल गए थे। डिकी की नजर पड़ती, इससे पहले मैंने उसे छिपा दिया।एक और चिट्ठी में लिखा था, ‘मुझे सबकुछ याद है। शिमला यात्रा, मशोबरा की पहाड़ियां, घुड़सवारी और तुम्हारा स्पर्श। दरअसल, 1947 में माउंटबेटन वायसराय बनकर भारत आए और एडविना को अचानक जैसे जिंदगी का एक और मकसद मिल गया। माउंटबेटन के साथ एडविना के संबंध कभी सहज नहीं रहे और उनकी जिंदगी में कई बार तलाक की नौबत आई, जिसके पीछे एडविना के एक से ज्यादा प्रेम प्रसंग भी थे। हर प्रसंग के बारे में माउंटबेटन को मालूम था लेकिन एडविना की खुशी और अपनी शादी बचाए रखने की इच्छा से उन्होंने इसे नहीं रोका।

Saturday, February 14, 2009

एक आग का दरिया है और डूब के जाना है


जिंदगी नीरस और उदास हो गई है। सब सूना-सूना लगता है। महसूस होता है कि जो कुछ आसपास है, सब बनावटी है, फर्जी है। काश तुम यहां होते।

मुझे अब भी हवा में तुम्हारी खुशबू का अहसास होता है। मैं तुम्हारे खत बार-बार पढ़ता हूं और सपनों की दुनिया में खो जाता हूं।

ये दोनों खत 1948 में लिखे गए थे। पहला खत लेडी एडविना माउंटबेटन ने दिल्ली छोड़कर लंदन लौटने पर लिखा था और दूसरा भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने। नेहरू और एडविना के बीच प्रेम किस्से-कहानियों की तरह हमेशा हमारे बीच रहा है। लेकिन उनमें कितनी निकटता थी और उनके प्रेमपत्र कैसे होते थे, यह पहली बार सामने आया है। आजादी की लड़ाई के दौरान पनपी और अगले अट्ठारह साल तक चली इस प्रेमकथा ने न केवल दो जिंदगियां बदलीं बल्कि दो मुल्कों का इतिहास बदल दिया। निश्चित रूप से उनके प्रेमपत्रों से लिए गए उपरोक्त अंश प्रेमपत्रों के भारी पुलिंदे की एक झलक भर हैं और अभी बहुत कुछ आना बाकी है। नेहरू और एडविना के पत्र दो परिवारों की निजी संपत्ति हैं और उन्होंने बहुत निजी पत्रों को फिलहाल सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया है। इतिहासकार एलेक्स वॉन तुंजलमान के मुताबिक उन्होंने माउंटबेटन और नेहरू गांधी परिवार से इन पत्रों को देखने देने का बार-बार आग्रह किया, पर दोनों परिवारों ने बहुत शालीन ढंग से इससे इनकार कर दिया। मृत्यु से पहले अपने पत्र लॉर्ड माउंटबेटन को हिफाजत से रखने के लिए भेजते हुए एडविना ने लिखा, ‘‘एक तरह से देखो तो इन्हें प्रेमपत्र कहा जा सकता है। तुम्हें महसूस होगा कि हमारा अजीबोगरीब रिश्ता दरअसल भावनात्मक था। लेकिन मेरी जिंदगी में इसकी अहम जगह है। इन्हें पढ़कर तुम्हें लगेगा कि मैं उन्हें (नेहरू) और वह मुझे कितनी अच्छी तरह समझते थे। एडविना अपने समय में दुनिया की सबसे अमीर महिलाओं में से एक थीं, जिनसे माउंटबेटन की मुलाकात अक्टूबर 1920 में हुई थी। अगले साल माउंटबेटन ने लंदन के उमर खय्याम कैफे में उनसे पहली बार प्रेम का इजहार किया, हालांकि उन्होंने शादी के लिए औपचारिक अनुरोध 1922 में वेलेंटाइन डे के दिन 14 फरवरी को नई दिल्ली में वाइस रीगल लॉज में नृत्य के दौरान किया। एडविना खासतौर पर माउंटबेटन से मिलने लंदन से दिल्ली आई थीं और दोनों की मुलाकात पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई। उस समय माउंटबेटन प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ भारत के दौरे पर थे। नेहरू के साथ एडविना के गंभीर प्रेम प्रसंग की शुरुआत मई 1947 में हुई थी। हालांकि इसके पहले दोनों काफी निकट आ चुके थे। एडविना इन संबंधों की सीमाएं जानती थीं। उन्होंने नेहरू को लिखा, ‘‘डिकी माउंटबेटन और तुम अपनी किस्मत से आगे नहीं जा सकते, जैसे कि मैं अपनी किस्मत के दायरे में हूं।