Friday, August 20, 2010

अथ पीपली कथा


आमिर खान सिनेमा जगत की एक बड़ी हस्ती हैं। अपनी दुनिया में लासानी। उनकी पहचान कम, लेकिन सोच-समझकर फिल्में बनाने वाले किरदार के रूप में होती है। संभवत: अभिनय से अधिक ध्यान विषय वस्तु और पटकथा को देने वाले आमिर इसीलिए हमेशा चर्चा में रहते हैं। सिनेमा का व्यापार इसी तरह चलता है और इसमें आमिर को कामयाब लोगों की सूची में पहले-दूसरे नंबर पर रखा जा सकता है। उनकी ख्याति और पहचान दरअसल कई बार सिनेमा की दुनिया से निकलकर आम जिंदगी और समाज के बीच आ खड़ी होती है। आमिर खान की कामयाबी का जश्न मनाते हुए। सरकारें भी उनसे प्रभावित होती हैं और अमेरिकी विदेश मंत्री भारत दौरे पर उनसे बात करना चाहती हैं। उनकी लगान प्रबंधन संस्थानों में पहुंच जाती है। ‘तारे जमीं पर देखकर बड़े-बड़े नेता रो पड़ते हैं। ‘थ्री इडियट्स उच्च शिक्षा की विकृतियों को उजागर करती हैं और ‘पीपली लाइव कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाते हुए, मजाक में ही सही, सबको झकझोर कर रख देती है। आमिर की नई फिल्म ‘पीपली लाइव कहने के लिए किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाती है, लेकिन वास्तव में पूरी फिल्म का केंद्रीय बिंदु टेलीविजन के समाचार चैनल हैं। कर्ज में डूबे किसान पर फिल्म कोई टिप्पणी नहीं करती, बल्कि उसे खेतिहर किसान से किसी महानगर का मजदूर बना देती है। फिल्म का पात्र नत्था किसान अंत में बच जाता है, पर एक और नत्था किसान धूल मिट्टी में ढका एक ढूह पर बैठा दिखाई देता है। असहाय। फिल्म हबीब तनवीर के एक गीत ‘चोला माटी का के साथ समाप्त हो जाती है। नत्था को गुस्सा नहीं आता। वह प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। अपनी स्थिति को चुपचाप स्वीकार कर लेता है। समूची व्यवस्था, प्रशासन और नेतृत्व भी इसे सहज रूप में लेता है। राहत की सांस लेते हुए कि नत्था ने आखिरकार आत्महत्या नहीं की। मरना तो एक दिन सबको है, सो नत्था भी मर गया।इस पूरी कथा में जो चीज नहीं बदलती वह है सत्ता का ढांचा और उसका केंद्र। फिल्म में सारी हाय-तौबा के बाद भी वही व्यवस्था कायम रहती है। मुख्यमंत्री कुर्सी पर बने रहते हैं। राजनीतिक दांवपेंच चलते रहते हैं। ‘पीपली लाइव इसमें बदलाव की कोशिश तो दूर उसे बदलने की हिमायत भी नहीं करती। यह यथास्थितिवाद का समर्थन है, जो सत्ता को पसंद आता है। जब तक उसके ढांचे पर हमला न हो, सत्ता को छोटी-मोटी घटनाओं से फर्क नहीं पड़ता। ‘पीपली लाइव का ज्यादा बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा मीडिया है, खासकर टेलीविजन चैनल। अखबार तो फिर भी खबर छाप देता है, पर चैनल टीआरपी की दौड़ में उस खबर, घटना और एक गरीब किसान की मजबूरी को हास्यास्पद बना डालता है। यहां भी फिल्म भाषाई स्तर पर चैनलों के साथ भेदभाव करती है। भाषा पर फिल्म में कोई सीधी टिप्पणी नहीं है, लेकिन यह समझना कठिन भी नहीं है कि अंग्रेजी बोलने वाली महिला पत्रकार खबर को क्या समझती है और हिंदी वाला उसे किस तरह देखता है। एक केंद्रीय मंत्री के साथ महिला पत्रकार की निकटता और इशारों में हुई बात साफ समझ में आती है। हिंदी चैनल का पत्रकार नेता के पैर छूता है। उसकी दूकान नेता के आशीर्वाद से ही चलती है। सैकड़ों और पत्रकारों के साथ ये दोनों भी पीपली गांव पहुंचते हैं और खबर को ‘नाटक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, क्योंकि चैनल के मालिकों को यही चाहिए।
पीपली से पहले आई फिल्म ‘थ्री इडियट्स भी सत्ता प्रतिष्ठान के साथ खड़ी रहती है। ऊपर से भले फिल्म उच्च शिक्षा की खामियां गिनाती हो, वास्तव में वह उसकी तरफदारी कर रही होती है। ठीक वही बात जो मानव संसाधन विकास मंत्री कहते हैं या सरकार चाहती है। जिसका सारा ध्यान बेहतर उच्च शिक्षा की व्यवस्था और नए विश्वविद्यालय खोलने पर हो उसे इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि इसकी बुनियाद कहां पड़ेगी। प्राथमिक शिक्षा कहां मिलेगी। इतना ही नहीं, ‘थ्री इडियट्स सफलता का पैमाना भी बताती है कि जब तक अमेरिका से पेटेंट न मिले और वह समाज व्यवस्था उसे स्वीकार न कर ले, कामयाबी का कोई अर्थ नहीं है। सारे दबाव और तनाव का जिक्र करते हुए फिल्म तय करती है कि नौकर का लड़का रैंचो संस्थान में अव्वल आएगा। उसके सौ से ज्यादा पेटेंट होंगे और कामयाब चतुर को पेटेंट लेने रैंचो उर्फ फुनसुख वांगड़ू के पास लौटकर आना ही पड़ेगा। चमत्कार ‘तारे जमीं पर में भी होता है। जो बच्चा जिस विषय में सबसे कमजोर है, उसी में बेहतरीन प्रदर्शन करता है। यह कभी पता नहीं चल पाता कि रैंचो या वह बच्चा यह करिश्मा कैसे करता है। दोनों फिल्में बाजार की व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश नहीं करतीं, बल्कि उसमें शामिल हो जाती हैं। लेकिन क्या आमिर खान की पहचान केवल इतनी है कि वह साल में एक बार अपनी कथा-पटकथा-अभिनय से लोगों को छू लें और बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा कमाई करने वाले स्टार बन जाएं। इसका उत्तर शायद नकारात्मक ही होगा। इसके बावजूद आखिर ऐसा क्या है कि आमिर सत्ता प्रतिष्ठानों को भी उतना ही पसंद आते हैं, जितना आम लोगों को। यह साधारणतया संभव नहीं दिखता कि आप लोगों के साथ खड़े हों और हुक्मरानों के भी। यह बिल्कुल विचित्र अवधारणा है। जसे कोई यह कहे कि महात्मा गांधी आम लोगों के हक की लड़ाई लड़ते हुए ब्रितानी शासन की आंखों के तारे बने रहे। यहां सवाल पक्षधरता का है। गांधी का पक्ष शुरू से अंत तक स्पष्ट था, आमिर का पक्ष अभी साफ नहीं है। फिर भी वह अपनी फिल्मों से चमत्कार करते हैं। इसका विश्लेषण होना चाहिए, क्योंकि यह एक अद्भुत घटना है, जो सिनेमा में करीब आधा सदी देखने के बाद मिल रही है।ऐसा लगता है कि आमिर खान के मुंबइया हिंदी सिनेमा और सरकार की चिंताएं एक जसी हैं। सरकार बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं मुड़ सकती, जिसका मुख्य जोर तकनीकी और उच्च शिक्षा पर है। उसके लिए लोग और उनकी पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती, जब तक कि वह उन्हें बाजार के योग्य बनाने में सक्षम है। कभी सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन था, अब अपनी नई सोच के साथ वह सत्ता में भागीदार है। इसीलिए फिल्मों के प्रति सत्ता प्रतिष्ठानों का नजरिया बदला है। सत्ता के समीकरणों को उसके व्यवहार और पुरस्कारों से देखा जा सकता है।
जवाहर लाल नेहरु के जमाने में एक बार हिंदी सिनेमा सत्ता प्रतिष्ठानों के इतना करीब आया था। राजकपूर अपनी फिल्मों से ‘समाजवाद का संदेश देते थे और तत्कालीन सोवियत संघ की ओर झुकाव रखने वाले नेहरु को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का यह माध्यम बेहतर लगा। कांग्रेस पार्टी की घोषित नीति भी ‘लेफ्ट ऑफ द सेंटर यानी कि बाईं ओर झुकी हुई मध्यमार्गी व्यवस्था की थी। मतलब यह कि राजकपूर उसी पाले में खड़े थे, जिसमें सत्ता थी। लोगों में नई हासिल आजादी का जुनून था और उन्हें भी यह विकल्प अच्छा लग रहा था। सत्ता ने इसके लिए राजकपूर को सम्मानित भी किया। उन्हें सैंतालीस साल की उम्र में पद्मभूषण मिला, जबकि दिलीप कुमार को यही सम्मान उनहत्तर साल की उम्र में और देवानंद को अठहत्तर साल का होने पर हासिल हुआ। इतिहास ने 2010 में खुद को दोहराया। इस साल के पद्म पुरस्कार घोषित हुए तो आमिर को पद्मभूषण मिला, जबकि शाहरुख खान को पद्मश्री से संतोष करना पड़ा। इसकी व्याख्या करने की शायद अब जरूरत नहीं।