Saturday, October 31, 2009

साथ बढ़े की भावना : मधुकर उपाध्याय


गोरखपुर। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने कहा कि उत्सव प्रेमी देश है अपना भारत। उत्स उत्थान से बना है। अपनी संस्कृति की यह सहज वृत्ति है कि यहां मेले, त्यौहार आदि सब मिल कर मनाते हैं। आयोजनों की भावना यही होती है कि सब साथ चलें, साथ बढ़े, एक भाषा बालें, एक मन हो। ऐसे आयोजनों का संदेश यही होता है और यदि सभी लोग इससे सीख पाएं तो ही आयोजनों की सार्थकता है।

साभार - दैनिक जागरण, गोरखपुर

Sunday, October 4, 2009

तो गांधी भी जरूरत भर



वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में बापू कुटी के सामने खड़े होने पर यह अंदाजा नहीं होता कि महात्मा गांधी इसी झोपड़ी में रहते थे और इसे बनाने में सौ रुपए से कम खर्च आया था। दरअसल नमक आंदोलन के समय साबरमती आश्रम छोड़ते हुए गांधी ने कहा था कि वह अंग्रेजों से आजादी मिले बिना अपने आश्रम लौट कर नहीं आएंगे। यह बात 1930 की है जबकि आजादी उसके सत्रह साल बाद मिली। इस अवधि में महात्मा गांधी किसी दूरदराज के गांव में रहना चाहते थे और इस सिलसिले में उन्होंने मीराबेन को पहले ही शेगांव भेज दिया था। शेगांव तक सड़क भी नहीं थी। पांच किलोमीटर पैदल चलकर ही वहां पहुंचा जा सकता था। गांधी नमक कानून तोड़ने के छह साल बाद तीस अप्रैल 1936 को सेवाग्राम पहुंचे।


मीराबेन और अपने अन्य अनुयायियों से गांधी ने सेवाग्राम में रहने की अपनी शर्ते स्पष्ट कर दी थीं। उन्होंने साफ कर दिया था कि अगर उनकी झोपड़ी ‘आदि निवास बनाने में सौ रुपए से ज्यादा खर्च आया तो वह वहां नहीं रहेंगे। यह गांधी की मितव्ययिता थी, जिसकी शुरुआत उन्होंने नमक आंदोलन के समय खाने-पीने की सामग्री और एक ग्राम से ज्यादा घी किसी को नहीं दिए जाने की शर्त लगाकर की थी। इस दौरान एक बार वह महादेव देसाई से केवल इस बात को लेकर नाराज हो गए कि देसाई ने उनके लिए मामूली टूटा पानी का कप रहते हुए दूसरा कप खरीद लिया था। काफी देर तक गांव की अर्थव्यवस्था और एक कप की कीमत का महत्व समझाते हुए गांधी ने देसाई को विवश कर दिया कि वे लौटकर कप दुकानदार को वापस कर दें। सेवाग्राम में गांधी की झोपड़ी बनाने में आने वाला खर्च कम रखने के लिए झोपड़ी की छत बांस और खपरैल से बनाई गई। दीवारें मिट्टी की थीं। खिड़की-दरवाजे बांस जोड़कर तैयार किए गए। एक टांड़ भी बांस की और एक आलमारी भी। नीचे बिछाने के लिए खजूर के पत्तों की चटाई। यह सुझाव गांधी का ही था कि जहां तक संभव हो स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का ही इस्तेमाल किया जाए। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी की ओर से इस समय चलाया जा रहा किफायतशारी के अभियान और उसके आज के नेताओं को पलट कर गांधी और अपने इतिहास से ही बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। यह और बात है कि तीसरे दर्जे में यात्रा करने की वजह से गांधी के अभियानों पर शायद पहले दर्जे की यात्रा से ज्यादा खर्च आता था। लेकिन इससे आम लोगों के बीच रहने और उन तक पहुंचने की गांधी की मंशा का महत्व कम नहीं होता। सरोजनी नायडू ने एक बार इसी पर टिप्पणी की थी कि गांधी को गरीब लोगों की तरह तीसरे दर्जे में यात्रा पर खर्च बहुत ज्यादा आता है।

राजनीतिक पहलू को छोड़ दें तब भी रोजमर्रा के जीवन में गांधी कमखर्ची की मिसाल कायम किया करते थे। इसमें लिफाफे के पीछे की जगह पर लिखना, चीजों का उतना ही इस्तेमाल जितना जरूरी हो। उनका कहना था कि धरती पर सबकी जरूरत भर का सामान है लेकिन सबके लालच भर का नहीं। वह शब्दों के मामले में भी उतने ही सतर्क रहते थे और सिर्फ जरूरत भर शब्द इस्तेमाल करते थे। नमक आंदोलन के समय दांडी के समुद्र तट पर पांच अप्रैल 1930 को संदेश देने के लिए कहे जाने पर गांधी ने कागज के एक छोटे से टुकड़े पर लिखा ‘आई वांट वर्ल्ड सिंपथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइटज् (मैं अन्याय के खिलाफ इस संघर्ष में दुनिया की सद्भावना चाहता हूं)। गांधी ने यह संदेश एक मामूली कलम से लिखा। हालांकि कुछ ही समय पहले वह आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति केवी रत्नम को यह सलाह दे चुके थे कि रत्नम फाउंटेन पेन के निब अपने कारखाने में बनाएं, जिनका तब तक आयात होता था। रत्नम ने निब पर विदेशी एकाधिकार खत्म करते हुए देश में पहली बार फाउंटेन पेन का उत्पादन शुरू किया। इस पेन का नाम रत्नम रखा गया। केवी रत्नम ने फाउंटेन पेन बाजार में उतारने से पहले दो कलम गांधी को उनके वर्धा आश्रम के पते पर भेजे। गांधी ने संभवत: उसी कलम से केवी को जवाब लिखा और कहा धन्यवाद।


पिछले सप्ताह गांधी की सादगी और किफायतशारी का मजाक उड़ाते हुए मशहूर पेन निर्माता कंपनी मो ब्लां ने दांडी मार्च की याद में एक फाउंटेन पेन का निर्माण किया, जिसकी कीमत 14 लाख रुपए रखी। इस तरह के केवल 241 फाउंटेन पेन बनाए जाएंगे क्योंकि साबरमती आश्रम से दांडी की दूरी 241 मील थी। हाथ से बनाए गए हर फाउंटेन पेन में रोडियम प्लेट वाली अठारह कैरेट सोने की निब होगी जिस पर लाठी लिए हुए चलते गांधी का चित्र बना होगा। निश्चित तौर पर गांधी की सादगी और नमक आंदोलन की याद से मो ब्लां का कोई संबंध नहीं है और उनका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक है क्योंकि उनकी नजर में गांधी बहुत बड़े और विश्वव्यापी ब्रांड हैं। इसके साथ ही कंपनी तीन हजार पेन की एक और श्रृंखला बनाएगी जिसका नाम महात्मा होगा। इनकी कीमत पौने दो लाख से डेढ़ लाख रुपए के बीच होगी। मो ब्लां को व्यापार करने से कोई नहीं रोकना चाहता लेकिन उससे यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए था कि इन फाउंटेन पेन की बिक्री से हुई कमाई कैसे खर्च की जाएगी। यह भी कि क्या इसका कुछ हिस्सा शिक्षा और स्कूलों पर खर्च होगा। क्या कंपनी 241 मील की यात्रा की याद में 241 गांव गोद लेकर उनमें सड़क, पानी और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। अगर नहीं, तो उसे गांधी और महात्मा नाम के इस्तेमाल का कोई अधिकार नहीं।

Friday, October 2, 2009

ईश्वरत्व से बचते हुए


महात्मा गांधी जीवन भर इस डर से जूझते रहे कि कहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी उन्हें ईश्वर बनाकर मंदिर में स्थापित न कर दें। उनकी पूजा अर्चना प्रारंभ हो जाए और उनके आदर्शो को कभी न हासिल हो सकने वाली ऊंचाई मानकर त्याग दिया जाए। कभी मजाक में, तो कभी पूरी गंभीरता के साथ गांधी इस बारे में लोगों को लगातार सतर्क करते रहे। गांधी वांग्मय में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां उन्होंने लोगों को अपने ढंग से बताया कि वे उन्हें भगवान बनाने से बाज आएं। यह बात सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं थी। अमेरिका में एक बालक गंभीर रूप से बीमार था। उसने भारत में गांधी के चमत्कार के बारे में सुनकर उन्हें एक पत्र लिखा। उसका कहना था, ‘मैंने आपके बारे में बहुत कुछ सुना और पढ़ा है। मुझे मालूम है कि आपने किस तरह लोगों को एकजुट कर दिया। उन्हें हौसला दिया कि वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ बिना हथियार के खड़े हो सकते हैं। यह चमत्कार आप ही कर सकते थे। मेरे जीवन में भी कई तरह की समस्याएं हैं। मैं चाहता हूं कि आप आशीर्वाद देकर मुझे इससे मुक्त कर देंगे। गांधी ने इस पत्र का तत्काल जवाब दिया, ‘मैं कोई चमत्कार नहीं करता और न ही मेरे पास कोई ईश्वरीय शक्ति है। अगर तुम अपने मन में ठान लो कि तुम्हें स्वस्थ होना है तो कोई ताकत तुम्हें बीमार नहीं रख सकती। यह घटना 1930 की है। उस समय महात्मा गांधी ऐतिहासिक दांडी मार्च के दौरान साबरमती आश्रम से ओलपाड और नवसारी होते हुए दांडी समुद्र तट की ओर जा रहे थे, जहां उन्हें नमक कानून तोड़ना था। इस रास्ते में एक मंदिर है, जहां गांधी की प्रतिमा स्थापित है और कोई व्यक्ति हर शाम वहां दिया जला जाता है। यह मंदिर उस स्थान से ज्यादा दूर नहीं है, जहां गांधी दिन भर की यात्रा के बाद रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। गांधी के बारे में सच अपनेआप में खासा आश्चर्यजनक होता था और उस सच के किस्से बढ़ते-बढ़ते चमत्कार बन जाते थे। महात्मा गांधी को साढ़े तीन बजे सुबह उठकर चिट्ठियों का जवाब देने की आदत थी। उनके निजी सचिव महादेव देसाई लालटेन जलाकर वहां रख दिया करते थे। उस दिन तेज हवा चली और लालटेन बुझ गई। लालटेन रखने के बाद देसाई फिर सो जाते थे और डेढ़ घंटा बाद उठते थे, जब गांधी नहाकर प्रार्थना सभा के लिए जाते थे। महादेव देसाई उठकर आए, तो देखा कि गांधी अंधेरे में बैठे कुछ लिख रहे हैं। उन्होंने शिकायती अंदाज में कहा कि लालटेन जलाने के लिए उन्हें बुलाया क्यों नहीं, गांधी ने कहा, ‘लिखने के लिए रोशनी की जरूरत नहीं होती, पढ़ने के लिए होती है। यह बात भी सत्याग्रहियों के बीच चमत्कार के रूप में फैल गई। इन सबसे अलग एक और घटना दांडी यात्रा के समय ही घटी। अपनी यात्रा के दौरान गांधी कुछ गांवों में ठहरते थे और कुछ जगह ठहरने से इनकार कर देते थे। इसी संदर्भ में उन पर आरोप लगा कि वह जान-बूझकर मुस्लिम बहुल गांव में नहीं जाते। गांधी ने कई दिन बाद इसका जवाब दिया और कहा कि वह उन्हीं गांवों में ठहरते हैं, जहां के लोग उन्हें आमंत्रित करते हैं। वह किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते। इसी सिलसिले में उन्होंने बताया कि छह अप्रैल को नमक कानून तोड़ने के लिए वह दांडी में अपने मुसलमान दोस्त के घर से जाएंगे क्योंकि उसने उन्हें आमंत्रित किया है। एक दिन गांधी एक गांव में रुके। वह एक दलित बस्ती थी। बस्ती के बाहर एक कुंआ था। पेड़ के नीचे सत्याग्रहियों ने डेरा डाला क्योंकि आसपास पेड़ों की वजह से छाया थी और बगल में कुंआ था, जिससे आसानी से पानी मिल सकता था। गांधी नहाने की तैयारी कर रहे थे कि महादेव भाई देसाई ने आकर बताया कि कुंआ सूखा है, उसमें पानी नहीं है। दूसरा कुंआ गांव से बाहर दो मील दूर है। गांधी ने वहीं रुकने का फैसला किया और सत्याग्रहियों को भोजन से पहले मुंह-हाथ धोने के लिए दो मील दूर जाना पड़ा। शाम को सत्याग्रही अगले ठिकाने के लिए रवाना हो गए। अगले गांव में, जहां गांधी ठहरे थे, अचानक गाने-बजाने की आवाजें आने लगीं। पिछली दलित बस्ती से चालीस-पचास लोग थालियां-बर्तन बजाते और गाते हुए बाहर जमा हो गए थे, क्योंकि उनके कुंए में अचानक सोता फूटने से पानी आ गया था। वे गांधी को धन्यवाद देने आए थे कि उनकी वजह से गांव को फिर से पानी नसीब हो गया और अब उन्हें रोजमर्रा की जरूरत के लिए पानी लेने दो मील नहीं जाना पड़ेगा। महादेव देसाई ने यह बात गांधी को बताई। गांधी उठकर झोपड़ी से बाहर आए। वह इस बात की गंभीरता और खतरे को समझ रहे थे। यह भी समझ रहे थे कि इसे तत्काल खारिज न करने पर उन पर ईश्वरत्व लादे जाने का खतरा बढ़ जाएगा। उन्होंने गांव वालों को बहुत डांटा और वापस जाने के लिए समझाते हुए एक किस्सा सुनाया। गांधी ने कहा कि और जो कुछ भी हो, कुंए में पानी आने का श्रेय उन्हें देना, सर्वथा गलत है। गांधी ने कहा, ‘अगर कव्वा किसी पेड़ पर बैठे और पेड़ गिर जाए, तो वह कव्वे के वजन से नहीं गिरता। मुझे कोई गलतफहमी नहीं है और आपको भी नहीं होनी चाहिए।