Wednesday, August 27, 2008

अब तो ख्वाबों में मिलेंगे फराज

एक ऐसा शायर, जिसने जिंदगी के दोनों रंग चुने और उन्हें बखूबी निभाया। उन्हें अगर इश्क की नाजुकी और विरोध की तीखी आवाज की बुलंदी का शायर कहा जाता है तो यह गलत नहीं है।

अहमद फराज हालिया दौर के बड़े शायरों
में शुमार होंगे। एक ऐसा शायर, जिसने जिंदगी के दोनों रंग चुने और उन्हें बखूबी निभाया। उन्हें अगर इश्क की नाजुकी और विरोध की तीखी आवाज की बुलंदी का शायर कहा जाता है तो यह गलत नहीं है। अहमद फराज को इसी बुलंद विरोध की वजह से जेल जाना पड़ा। और जनरल जिया के जमाने में कई बरस निर्वासन में बिताने पड़े। कल शाम इस्लामाबाद में उनके इंतकाल से न केवल उर्दू शायरी को झटका लगा बल्कि सच और जिंदगी की हिमायत करने वाले एक नफीस इंसान से यह दुनिया महरूम हो गई। अहमद फराज बर्रे सगीर की आवाज थे। पूरे दक्षिण एशिया में उनकी शायरी का बोलबाला था। वह अक्सर दिल्ली आया करते थे। डेढ़ साल पहले फराज एक जलसे में शिरकत करने दिल्ली आए थे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनसे भेंट हुई। आधे घंटे तक फराज पाकिस्तान की शायरी और विरोध की आवाज की अहमियत पर बोलते रहे। उन्होंने सिर्फ अपना हवाला नहीं दिया, तमाम लोगों का नाम लेकर कहा कि उन सबको अपनी शायरी की वजह से कई-कई बार जेल जाना पड़ा। अल्फाज की तल्खी शायद इसी से उपजती है। जहां बोलने पर पाबंदी हो, वहीं सबसे ज्यादा आवाजें होती हैं। और वही आवाज असरदार होती है। मैंने उनसे हिंदुस्तान की शायरी के बारे में पूछा। उनके मुंह से सिर्फ एक नाम निकला-फिराक गोरखपुरी। फराज ने कहा कि उसके बाद ज्यादा कुछ कहने लायक है नहीं। हिंदी में शायरी होती जरूर होगी पर वह उर्दू में मौजूद नहीं है। इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अहमद फराज बार-बार कहते रहे कि हिंदुस्तान की कविता का वह मेयार, वह दर्जा इसलिए नहीं है कि यहां अपनी कविता के लिए जेल जाने वाले नहीं हैं। जिन्होंने जिंदगी का वो रंग नहीं देखा है वे उसे बयान भी नहीं कर सकते। कविता पढ़े लिखों की आरामगाह नहीं है। वह जिंदगी से आती है जिसमें बहुत पेचीदगियां हैं और वह जुल्फों के पेचोखम से ज्यादा मुश्किल और टेढ़ी है। शायरी जिंदगी के साथ चलती है और कई बार उसके आगे भी। अहमद फराज का मानना था कि अगर शायरी वक्त और समाज का सिर्फ आइना बनकर उसे उसी की छवि दिखाती रहे तो उसके ज्यादा मानी नहीं रह जाएंगे। शायरी बेआवाज की आवाज है। समाज के उस तबके से ताल्लुक रखती है, जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। अगर वह तरक्कीयाफ्ता नहीं है और बदलाव की दरकार नहीं रखती तो ऐसी शायरी के लिए कूड़ेदान से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती।

Saturday, August 23, 2008

एक अच्छा पागलपन

खेलों का असर पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। ऐसे में अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?

कुछ लोगों को लगता है कि भारत में एक नए किस्म का पागलपन तारी हो गया है। भारतीय खुश हो रहे हैं। बल्लियों उछल रहे हैं। जश्न मना रहे हैं। एक जीत पर खुशियां तो एक हार पर उसी तरह का दु:ख। लेकिन खुशियां उन दु:खों पर कई गुना भारी पड़तीं। अभी तक ऐसा सिर्फ क्रिकेट को लेकर होता था। अब दूसरे खेलों पर भी होता है। क्योंकि खेल सिर्फ मैदान के भीतर नहीं खेले जाते और न ही केवल एक खिलाड़ी की जीत या हार का सवाल होता है। उनका असर व्यापक होता है और पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस सामूहिक चेतना का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?
कुछ समाचार-पत्रों ने ऐसे लेख प्रकाशित किए हैं कि तीन पदक जीतने पर भारत के अखबार और टेलीविजन चैनल पागल हो गए हैं। उन्होंने इसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। इस प्रक्रिया में खबर की बलि दे दी गई।
एक अखबार ने तो यहां तक लिख दिया कि दुनिया बदल गई है और ऐसे में ओलंपिक खेलों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। उन्हें एक सिरे से खारिज कर देना चाहिए।
सिर्फ एक खेल आयोजन पर घंटों का टेलीविजन प्रसारण और हजारों-लाखों टन अखबारी कागज बर्बाद करने का कोई तुक नहीं है। उनके अनुसार यह मानना भी बेतुका है कि खेलों का राष्ट्रीय चेतना पर कोई असर पड़ता है। क्योंकि खेल का एक तमगा देखने में सुंदर हो सकता है, इससे ज्यादा उसकी अहमियत नहीं है।खेलों और खेल की भावना के प्रति ऐसे लेखकों की नासमझी सिर्फ इस वजह से स्वीकार नहीं की जा सकती कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। सहमति-असहमति उसके बाद आती है। खेलों के प्रति यही भावना होती तो एवरेस्ट अभी अविजित होता। इंगलिश चैनल में कोई तैराक न उतरता। कार्ल लुईस दस सेकंड से कम में सौ मीटर न दौड़ते। येलेना पांच मीटर से ऊंची छलांग न लगाती। आदमी चांद पर न जाता। अपनी गुफा में रहता। शिकार करता और खुश रहता। सौभाग्य से खेलों के प्रति यह सनकी विचार कुछ सीमित लोगों के हैं। ज्यादातर लोग उनसे सहमत नहीं हैं।हॉकी के भारतीय परिदृश्य और सामूहिक चेतना से गायब होने के बाद एक बड़ा शून्य था जिसे 1983 के क्रिकेट विश्व कप ने भरा। कपिल देव के नेतृत्व में 11 खिलाड़ियों ने केवल विश्व कप नहीं जीता, देश को ऐसी चेतना दी जिसकी मिसाल नहीं है। वह केवल एक घटना नहीं थी। उसका असर व्यापक था और आज तक कायम है। 1983 से पहले भारत में क्रिकेट खेली जाती थी, पर राष्ट्रीय स्तर पर उसे लेकर इतना भावनात्मक लगाव नहीं था। विश्व कप ने यह सब बदल दिया। इसी का असर था और है कि आज भारतीय टीम में 11 में से सात खिलाड़ी गांव की पृष्ठभूमि से आते हैं। पहले एक नजफगढ़ आया। उसके बाद रायबरेली, इलाहाबाद, मेरठ, गाजियाबाद, रांची, हिसार जसे कस्बे क्रिकेट के विश्व मानचित्र पर आ गए। विश्व कप ने उन्हें एक सपना दिया।बीजिंग में चल रहे ओलंपिक खेलों में भारत ने कोई दस-बीस पदक नहीं जीते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन करने से यह और साफ हो जाएगा कि भारत खेल के मामले में अति पिछड़े हुए देशों में शामिल है। उसे ओलंपिक के इतिहास के 108 साल में पहली बार व्यक्तिगत स्वर्ण पदक मिला। 56 साल बाद कुश्ती में कांस्य पदक हासिल हुआ। मुक्केबाजी में पहली बार उसे पदक मिलेगा। इसलिए इसका जश्न होना स्वाभाविक है। इसे केवल एक स्वर्ण, एक कांस्य और एक अन्य पदक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
अगर थोड़ा ध्यान दिया जाए तो संभवत: 2008 का बीजिंग ओलंपिक दूसरे खेलों के लिए वही कर सकता है जो 1983 के विश्व कप ने क्रिकेट के लिए किया था। इसमें सबसे खास बात यह है कि तीन में से दो पदक विजेता ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। उन्हें कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। पहलवान सुशील जसे 20 खिलाड़ियों को प्रशिक्षण के दौरान एक कमरे में गुजारा करना पड़ा। भिवानी जसे कस्बे से चार मुक्केबाजों का ओलंपिक स्तर तक पहुंचना कम उपलब्धि नहीं है। कहते हैं कि भिवानी में क्रिकेट के उतने बल्ले नहीं मिलेंगे, जितने मुक्केबाजी के ग्लव्स मिल जाएंगे। क्या इसे आने वाले दिनों की तस्वीर नहीं माना जा सकता? भले भिवानी के चार में से केवल एक मुक्केबाज को पदक मिला हो, अगले ओलंपिक में यह एक चार में बदल सकता है। एक जमाने में कहा जाता था कि क्रिकेट को देश में धर्म का दर्जा मिल गया है। खिलाड़ी अर्ध-ईश्वर हो गए हैं। क्रिकेट समझने और देखने-सुनने वालों की प्रतिक्रियाएं हैरान करती थीं। एक मैच हारने पर खिलाड़ी के घर पर पथराव। एक मैच जीतने पर उसे कंधे पर बिठाना। कॉरपोरेट जगत ने भी तभी उसकी सुध ली। खिलाड़ी जनमानस में पहुंच गए और उन पर पैसों की बरसात होने लगी। मामला करोड़ों तक जा पहुंचा। जाहिर है, यह भी 1983 के बाद ही हुआ। एक तरह से कहा जाए तो बीजिंग ओलंपिक ने भारत का खेल इतिहास दोबारा लिख दिया है। उसकी तहरीर पूरी होने में थोड़ा समय लग सकता है। जब वह पूरी होगी तो कुछ उसी तरह हो सकती है जिसमें चीन ने अमेरिका को पदक तालिका के शीर्ष से बेदखल कर दिया।

आने वाले कल की तस्वीर

अशोक की लाट में चार शेर हैं। चारों ओर देखते हुए। पीछे-पीछे चलने वाली भेड़चाल नहीं। वे चारों साथ होते हैं। हमेशा। पर दिखते तीन ही हैं। जो सामने है, वर्तमान है। जो नहीं है, भविष्य। आने वाले कल की तस्वीर। वह हमेशा दूसरी ओर से दिखता है। भविष्य की ओर से। यह भारत की नई त्रिमूर्ति है। मिथकीय नहीं। सचमुच की। खेलों की त्रिमूर्ति। नया राष्ट्रीय प्रतीक। राष्ट्रीय गौरव का चिह्न। तीन को देखिए। और चौथे को देखते रहिए। दिल्ली में, 2010 में। लंदन में, 2012 में। और उसके बाद।

Thursday, August 21, 2008

यही ओलंपिक है

विचार के साथ एक मुश्किल है। वह महान हो सकता है। या फिर महानतम। पर उसका नाम नहीं होता। कोई उसे छू नहीं सकता। ओलंपिक यह मसला हल कर देता है। विचारों को नाम देकर। निराकार को साकार बनाकर। सबके सामने। यही ओलंपिक है। विचार के नामकरण का संस्कार। कोई उसे अपना नाम देता है। हाड़ मांस का इंसान। जसे सबसे तेज बोल्ट। सबसे ऊंची येलेना। सबसे ताकतवर फेल्प्स। बीजिंग इसीलिए याद किया जाएगा। कि अब लोग विचार को छू सकेंगे। उससे बात करेंगे। उसके जैसा बनने की कोशिश करेंगे। यही अगले विचार को जन्म देगा। दुनिया भर में।

छप्पन साल बाद धोबीपाट

हर चेहरा किताब है। बहुत कुछ लिखा होता है उसपर। सबके लिए। इत्मीनान। हौसला। खुशी। संतोष। यही सब इस चेहरे पर है। साफ-साफ इबारत। कि कोई भी पढ़ ले। जो स्कूल न गया हो वह भी। यह सुशील सूरत है। नजफगढ़ के नए नवाब की। भारी उपलब्धि। हल्की सी हंसी। सुशील के पास कांसे का तमगा है। छप्पन साल बाद धोबीपाट। एक चेहरा यहां नहीं है। पर दिखता है। विजेंर का। उसके घूंसे का। ताकत और कौशल का। पदक उसे भी मिला। पर वह कुछ और चाहता है। कि रंग बदल जाए पदक का। सुनहरा हो जाए। हम भी यही चाहते हैं।

दुनिया के नक्शे में पड़ोसी चुने नहीं जा सकते

दुनिया के नक्शे में पड़ोसी चुने नहीं जा सकते। वे चुने-चुनाए मिलते हैं। वह दोस्त हो या दुश्मन, अच्छा हो या बुरा, लोकतंत्र हो या सैन्य तानाशाही, उसके साथ रहना सभी देशों की मजबूरी है। भारत की भी। कूटनीतिक रूप से विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी का यह बयान ठीक हो सकता है कि मुशर्रफ का जाना पाकिस्तान का आंतरिक मामला है लेकिन इससे पड़ोस में स्थितियां बदल नहीं जातीं। इसलिए भारत के लिए यही बेहतर होगा कि वह इस आंतरिक मामले पर नजदीकी नजर रखे और वहां की गतिविधियों के अनुरूप और बदलावों से निपटने के लिए पूरी कूटनीतिक और रणनीतिक तैयारी रखे। इसका इशारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने यह कहकर किया था कि मुशर्रफ के जाने से भारत के पड़ोस में एक बड़ा शून्य पैदा हो जाएगा।नारायणन का संकेत स्पष्ट था। उनकी चिंता केवल शून्य को लेकर नहीं थी बल्कि यह थी कि वह शून्य कौन भरेगा।
पाकिस्तान के वर्तमान हालात में इस शून्य को भरने की तीन सूरतें हो सकती हैं। पहली यह कि मुशर्रफ को इस्तीफे के लिए मजबूर करने वाली लोकतांत्रिक ताकतें मजबूत होकर उभरें और पाकिस्तान को लोकतंत्र की ओर ले जाकर स्थायित्व दें। दूसरी सूरत कट्टरपंथी जमातों और मुल्लाओं की ताकत बढ़ने की है, जिन्हें अहसास है कि मुशर्रफ जैसे साझा दुश्मन के अभाव में किसी तरह एक हुई नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी की सियासी जमातें बिखर सकती हैं। यह उनके लिए खासतौर पर जरखेज जमीन होगी। तीसरी स्थिति सेना के एक बार फिर सत्ता पर नियंत्रण की है, जो हर हाल में पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति चलाती है।
पाकिस्तानी शासन में सेना का रसूख कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेनाध्यक्ष ने मुशर्रफ पर लगाए गए आरोपों को सेना के खिलाफ माना और कहा कि वह किसी भी सूरत में मुशर्रफ पर महाभियोग के नाम पर सेना की छवि धूमिल नहीं होंने देंगे। शासन को सेनाध्यक्ष की बात सुननी और माननी पड़ी। यह माना जा सकता है कि महाभियोग की प्रक्रिया लंबी चलती। ऐसे में सेना और नागरिक प्रशासन के बीच पहले से चले आ रहे मतभेद और गहरे होते। सत्ता का केंद्र न बदलता तो कम से कम उसकी धुरी जरूर कुछ खिसक जाती। एक तथ्य यह भी है कि पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष पर महाभियोग कभी नहीं लगाया गया। हालांकि आजादी के साठ में से चालीस साल वही सत्ता पर काबिज थे।तीनों ही स्थितियों में पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उसमें कोई अंतर नहीं आएगा। लेकिन भारत के लिए यह जरूरी होगा कि वह लोकतंत्र के पहरुओं के साथ-साथ पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अश्फाक परवेज कियानी की गतिविधियों पर नजर रखे और उन्हें समझने की कोशिश करे। पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व मुखिया रह चुके कियानी दरअसल मुशर्रफ का विस्तार हैं और शासन में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेगी। पाकिस्तान में भारत के पूर्व राजनयिक जी पार्थसारथी मानते हैं कि तालिबान को समर्थन के मामले में सेना की भूमिका नहीं बदलेगी लेकिन कश्मीर को लेकर उसके रुख में मामूली बदलाव आ सकता है।
भारत के लिए यह भी जरूरी होगा कि वह अमेरिकी प्रशासन और खुफिया तंत्र की गतिविधियों पर नजर बनाए रखे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के परदे में नौ साल तक मुशर्रफ को हर संभव मदद देने वाले अमेरिका के लिए भी पाकिस्तान में हुआ यह आंतरिक परिवर्तन अर्थपूर्ण है। दुनिया में लोकतंत्र के अलमबरदार बने अमेरिका की मुश्किल यह है कि सैन्य तानाशाहों से संपर्क रखना उसे ज्यादा सहूलियत भरा लगता है लेकिन वह लोकशाही की खुलेआम मुखालफत भी नहीं कर सकता। वह सार्वजनिक रूप से शायद अपनी यह इच्छा भी जाहिर नहीं कर सकता कि उसका इरादा इस इलाके पर अपनी धौंस जमाए रखने के लिए कश्मीर जसी किसी जगह पर पांव जमाने का है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा करना कठिन होगा।सेना और लोकतांत्रिक ताकतों को अलग रख दें तो पाकिस्तान की तीसरी स्थिति कट्टरपंथी जमातों के बढ़ते प्रभाव की होगी। अमेरिका के दम पर इन ताकतों को सीमित दायरे में चुनौती देने वाले मुशर्रफ पर कई बार हमले हुए, जिनमें वे बाल-बाल बच गए। उस समय सेना पूरी ताकत से उनके साथ थी। एक तरह से देखा जाए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सैन्य प्रशासन से ज्यादा खतरा धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों से है। मतलब यह कि उन्हें लगातार दुधारी तलवार पर चलना होगा। मुशर्रफ के जाने से सबसे ज्यादा खुशी और राहत इसी तबके ने महसूस की है। इन ताकतों के उभरने का सीधा असर भारत पर होगा। इनका लगभग पूरा अस्तित्व अफगानिस्तान में तालिबान और भारत में कश्मीर पर टिका हुआ है। तेरह साल की अपेक्षाकृत शांति के बाद घाटी में एक बार फिर से उठ रही आजादी की मांग से उनके हौसले जरूर कुछ बुलंद हुए होंगे। इस पर नजर रखना भारत की प्राथमिकता होना चाहिए। उसे पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त सतीश चंद्रा की इस बात पर कम भरोसा करना चाहिए कि पाक में बदलाव और यथास्थिति पर्यायवाची शब्द हैं। भारत के साथ उसके रिश्तों में कोई नाटकीय बदलाव आने की संभावना नहीं है।

Wednesday, August 20, 2008

उन्हें भी तो दो कोई पानी चुल्लू भर

आपन-आपन मेड़ संभालो/बढ़ो आत है पानी। सावन-भादों में हरहराता घुसा ही चला आता है। सालों से। हर बरस बारिश का इंतजार। फिर बाढ़ और उसका कहर। गांव, कस्बे, शहर, महानगर। मुहल्ले, कॉलोनियां, सड़कें और खेत। सब कहीं जसे जल-कारावास। कितने मरे पिछले साल और कितने अबकी बार। कितना चौपट होगा जन-धन। हाथ पर धरे हाथ-गिनते-गुनते रहिये। तरक्की पर है देश। अगले साल देखना, होगी ज्यादा बर्बादी। जिनके निकम्मेपन से मरते हैं बेवजह लोग। उन्हें भी तो दो कोई पानी चुल्लू भर।

Tuesday, August 19, 2008

इज्जत से या बेआबरू होकर

न्यूटन ने कहा जो ऊपर जाता है, नीचे जरूर आता है। सो तुम भी आ गए मियां मुशर्रफ। ये तो होना ही था। यह प्रकृति है। विज्ञान है। जो आया है, विदा भी होगा। इज्जत से हो या बेआबरू होकर। विदाई आखिरकार विदाई होती है। उसमें दु:ख होता है। पर केवल दु:ख नहीं होता। घर से बेटी विदा हो तो परिवार के आंखों में खुशी। तानाशाह जाए तो मुल्क की धड़कन में। लोकतंत्र की सांसों में। इसमें तानाशाह की आंखें नम होती हैं। खुशी बाहर होती है। सड़क पर। गली-मोहल्ले में। शहर में। देश में।

Monday, August 18, 2008

वाह, फेल्प्स वाह!

वाह, फेल्प्स वाह! स्वर्णिम शिखर पर। कितनी बातें झूठ साबित कीं और कितनी सच। बचपन की बीमारी। उस पर फतह। शिक्षिका ने कहा था-एकाग्रता नसीब में नहीं। उसी के बूते सर्वोत्कृष्ट। मां ने कहा-उसके दिमाग में घड़ी। जो समय भरा, उसे साधा। प्रतिस्पर्धियों ने कहा-वह तो भविष्य से आया। छत्तीस बरस पहले स्पिट्ज के सात थे, अब फेल्प्स आठ। आठों प्रतिस्पर्धाओं में विजेता। सात में नये रिकार्ड। बुधवार का दिन, एक घंटा और दो स्वर्ण। वाकई महानतम। इस घड़ी के साक्षी होना सौभाग्य।

Sunday, August 17, 2008

एक हिंदुस्तानी कस्बा दुनिया में चमका

एक किस्सा। बिल्कुल ताजा। आज की ही बात। जम्बूद्वीपे भरतखंडे हरियाणा प्रांते। एक शहर भिवानी। एक स्कूल। एक प्रशिक्षक। और तीन घटनाएं। एक के बाद एक। ताबड़तोड़। पहले अखिल। फिर जितेंद्र और उसके बाद विजेंद्र। ऐसा कभी-कभार होता है। कि एक हिंदुस्तानी कस्बा दुनिया में चमके। यह कोई जादू नहीं है। न ही चमत्कार। लेकिन है वैसा ही कुछ। कि आंखें चुंधिया कर रह जाएं। भरोसा न हो। वहां बस दो चीजें थीं। मेहनत और लगन। हां, एक चीज और थी-हरियाणवी अंदाज। उसने मुक्का चलाया और चल गया। असली सिक्के की तरह।

Thursday, August 14, 2008

एक तस्वीर का इकसठवां साल


एक तस्वीर का इकसठवां साल। फिर भी ताजगी। नएपन का झोंका। वह पुरानी नहीं पड़ी। बासी नहीं हुई। धूल नहीं जमी उसपर। लगता है कि अब भी कुछ बचा है। सब खो नहीं गया। भ्रष्टाचार, खूनखराबे, जोड़-तोड़ और धमाकों में। सुकून होता है कि हम बचे हुए हैं। रंगों का मतलब है। हवा है। खुले मैदान हैं। हरियाली और खेत हैं। एक दूरदराज गांव में। नंगे बदन बच्चे। तिरंगा लेकर दौड़ना खेल नहीं है। ख्याल है। कद्र होनी चाहिए इसकी। यह नहीं रहा तो हम कहां रहेंगे। आजादी की शुभकामनाएं।

लोक पर तनी तंत्र की लाठी

लोक पर तनी तंत्र की लाठी। जनतंत्र का जीता जागता विद्रूप। सरकारों का जनता से यही सीधा संबंध। कहावतों, नीति वाक्यों के उलट-पलट गये अर्थ। लेकिन बदल जाना था जिन्हें, वे रह गयीं जस की तस। ज्यादा रूढ़-क्रूर। मसलन, जिसकी लाठी उसकी भैंस। सरकार की लाठी, सरकार की भैंस। हक मांगते लोगों पर दनादन-ताबड़तोड़। सत्ता का यही चलन। इसी में मारे गये ग्रेटर नोएडा में चार किसान। जनता सर्वोपरि, का खुला उपहास। एकता में अनेकता की उड़ती हर जगह खिल्ली। कर गुजर कर राजनीति भीगी बिल्ली।

Wednesday, August 13, 2008

लपटों में घिरा पंद्रह अगस्त

भादों में इतना धधकता। लपटों में घिरा पंद्रह अगस्त। उद्वेग, विक्षोभ और हिंसा से लहूलुहान कश्मीर। जम्मू भी वैसा ही लथपथ। जम्मू-कश्मीर एक प्रांत। डेढ़ माह से अलग-थलग। घाटी एक रूपक। वैमनस्यता, बिखराव और विभाजन का। जलते जम्मू के बाद घाटी में अपशकुनी छायाएं। खौफनाक मंसूबों से भरे चित्र। शांति-खुशहाली आ रही थी रफ्ता-रफ्ता। दगाबाज, दागी राजनीति से फिर वह छिन्न-भिन्न। तेरह साल बाद कर्फ्यू में दसों जिले। घर में लगी है आग। मिलकर उसे बुझाओ। नहीं तो फिर देश जलेगा। देश की खातिर, उसे नहीं भड़काओ।

कामयाबी चमकती सोने जैसी

कामयाबी दिखती है। चमकती है। सोने जैसी। उसे बोलने की जरूरत नहीं होती। गहरी नदी की तरह शांत। धीर-गंभीर। वह अभिनव है। हिंदुस्तान का सबसे कामयाब युवक। जिसने चुपचाप इतिहास लिख दिया। पूछने पर सिर्फ इतना कहा- आज का दिन मेरा है। कल किसी और का होगा। एकदम फलसफाना। वहां जो था, सब सच था। उस सच के बीच फलसफा। गले में सोने का तमगा। पीछे तिरंगा। फजां में राष्ट्रधुन। किसका सीना गर्व से फूल नहीं जाएगा। किसे नाज नहीं होगा। किसकी आंखें नम नहीं होंगी। पर वह शांत था। क्योंकि वह अभिनव है।

Monday, August 11, 2008

कुछ थमा, नेताओं का मन रमा

जनता के दुख-दर्दों, फजीहतों। जीवन-मरण के मुद्दों की तलाश। मंदिर मामलों के प्रभारी। आडवाणी, संघ परिवारी। अमरनाथ को कैसे छोड़ें, की लाचारी। चुनाव की आहट। जीतेंगे कैसे बिना टकराहट। अपनी-अपनी की खातिर। एक दल ने आग लगाई। दूसरे ने भड़कायी। अटकते-अटकते शुरू हुई बातचीत, फिर अटकी। अलगाव के आक्रामक तेवर। बंद और अब चक्काजाम। कश्मीर की हसीं वादियां। दिलकश समां। कौम का गम बहुत था। कुछ थमा, नेताओं का मन रमा।

Saturday, August 9, 2008

राजनीतिक ओलंपियाड-2008

हम पक्के खिलाड़ी हैं। असली खिलाड़ी। चौबीस कैरेट। कोई मिलावट नहीं। जो चाहे जांच ले। बड़े खेल के खिलाड़ी ठहरे। छोटा-मोटा खेल नहीं खेलते। कोई कच्चापन नहीं। न अनाड़ीपन। इसी में असली औकात पता चलती है। निकम्मा आदमी काम का साबित होता है। सबसे कमजोर सबसे मजबूत निकल जाता है। इसमें कोई मायाजाल नहीं है। गो कि अंधेरा है। प्रकाश नजर नहीं आता। साइकिल चलते-चलते घूम जाती है। यहां कोई इंतजार नहीं करता। कि चार साल बाद बीजिंग जाएंगे। धंस के देखो, भाई। यह हमारा ओलंपिक है। अमर खेल है।

आंखों पर जैसे भरोसा नहीं रहा

एक चिड़िया होती है बया। उसका घोसला देखने लायक। पेड़ से लटका। हवा में झूलता। चमत्कार ही लगता है। मूंज के लंबे रेशे जोड़कर बना। चोंच से बुना हुआ। बेमिसाल मजबूती और जगह पूरी। बया के पूरे कुनबे के लिए। चीन ने बया से सीखा। बस मूंज की जगह इस्पात। मुड़ा-तुड़ा। एक घोसला बनाया। पूरी दुनिया के लिए। उसके साझा सपने के लिए। पंख पसारने की पूरी संभावना के साथ। अब यह तुम पर है खिलाड़ियो! उड़ो, जितना उड़ सकते हो। बया की खुशी के लिए।

शुक्रवार को पूरी दुनिया ने एक सपना देखा। खुली आंखों से। इतना चमत्कारिक सपना कि दुनिया पलक झपकाना भूल गई। वहां उड़ने वाली परियां थीं, हवा में नाचती पतंगें भी। संगीत और नृत्य था। मानव समाज के उत्कर्ष का समूहगान था।
प्राचीनता आधुनिकता को गले लगा रही थी। यह सब एक घोसले में था। यह साबित करते हुए कि दरअसल एक घोसला पूरी दुनिया के लिए काफी है। बल्कि इतना बड़ा है कि उसमें सबके सपने समा सकें। चीन की राजधानी बीजिंग में ‘एक विश्व, एक सपना ध्येय वाक्य वाले 29वें ओलंपिक खेलों की शुरुआत कल्पनातीत थी। नाचती लेजर किरणों के प्रभाव से चमत्कृत करने वाला उद्घाटन संभवत: ओलंपिक इतिहास का भव्यतम समारोह था, जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा। समारोह को घोसले में मौजूद 90 हजार भाग्यशाली लोगों के साथ दुनिया भर में कई अरब लोगों ने देखा और अपनी आंखों पर भरोसा करना छोड़ दिया। उद्घाटन समारोह भावना, एकता, कला, सौंदर्य, शक्ति और कल्पनाशीलता का एक ऐसा संयमित विस्फोट था, जो बेमिसाल था और रहेगा। दुनिया को बारूद, कागज और कुतुबनुमा देने वाले चीन ने अपनी पूरी कहानी और संस्कृति को करीने से और तरतीबवार दुनिया के सामने रखा। रेशम मार्ग और समुद्री यात्राएं परत दर परत खोलीं। आधुनिकता को अपने ढंग से प्रदर्शित किया और दिखा दिया कि भविष्य उसका है। और उस भविष्य के सपने में सब शामिल हैं। इसमें साबित होगा कि कौन सबसे तेज, सबसे ऊंचा, सबसे ताकतवर है। इसलिए दिल थामकर बैठिए और वह देखिए, जो आजतक नहीं देखा गया।

Thursday, August 7, 2008

नदी का पानी आग बुझा क्यों नहीं देता?

एक नदी है। कुछ नाराज लोग हैं। नारे लगाते। झंडा उठाए। कुछ भगवा। कुछ तिरंगा। नदी को चलकर पार करते। तवी नदी। जम्मू में। यह नई तस्वीर है। लेकिन तस्वीर में नयापन कुछ भी नहीं है। मन में गुस्सा हो तो नदी-पहाड़ कौन देखे। सोलह साल पहले नदी सरयू थी। जगह अयोध्या। मुद्दा धर्म। पुल पर पुलिस थी। इसलिए नदी राह बन गई। यही जम्मू में हो रहा है। पर ऐसी हालत क्यों। बात क्यों नहीं करते। मिल-बैठकर। कि नदी का पानी आग बुझा दे। गुस्सा शांत कर दे। रास्ता निकाल दे। अमन का। शांति का।

Wednesday, August 6, 2008

कम से कम आंख खोल कर देखो तो

तुम तो सबके नाथ हो। अमरनाथ। त्रिकालदर्शी। सब जानते-समझते हो। तुम्हीं कुछ करो। कम से कम आंख खोल कर देखो तो। क्या हो रहा है तुम्हारे नाम पर। एक टुकड़ा जमीन के लिए। अदालत कहती है कि भगवान भी नहीं बचा सकता हमें। देश को। मानने का मन नहीं होता। पर तुम्हें क्यों दोष दें। चौंतीस दिन हो गए। लाठी गोली। आंसू गैस। मौतें। सुलग रहा है जम्मू-कश्मीर। आंच में नेता रोटियां सेंक रहे हैं। सियासत की। यानी वे कुछ नहीं करेंगे। लोग ही समझें तो समझें। हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा।

Tuesday, August 5, 2008

जो आग लगाकर उसे तापती

अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद। इस अध्याय का दूसरा दुखांत। एक पखवाड़े से जम्मू अशांत। पहले श्रीनगर धधकता रहा। अब जम्मू में सब कुछ जाम। सम्हाले नहीं संभल रहा आक्रोश। जनता सड़कों पर निरंतर। कर्फ्यू से नहीं कमजोर। न फौजी कवायद से। मनवाने-दबाने का दुष्चक्र। लोकतांत्रिक अधिकारों का भी हनन। पीछे इसके भी बांटकर वोट जोड़ने की राजनीति। जो आग लगाकर उसे तापती रहती। उसे बुझाने के भी प्रपंच अनेक। फोन पर आपस में बतियाती। जनता से संवाद करने से कतराती।

Monday, August 4, 2008

मौतों की फिर मनहूस खबर

एक आशंका कौंधती है हर बार। करती रही परेशान। मनाते न आए मक्का से। मौतों की मनहूस खबर। कुंभ-पर्व पर भी ऐसी अनहोनी का अंदेशा। अभी पुरी में रथयात्रा में मारे गए थे भागमभाग में कई। और अब सौ से ज्यादा हिमाचल में। शुभ-मंगल की मनौती लेकर गए, लेकिन मारे गए भगदड़ में। घटनाओं का यही एक रूप। अफवाहें, भगदड़ और लाशों का अंबार। क्यों नहीं जागता प्रशासन? चुस्त दुरुस्त क्यों नहीं होता इंतजाम। तीर्थों में आते रहेंगे आस्थावान। उनकी रक्षा आप ही करो, हे भगवान।

Sunday, August 3, 2008

वैसे ग्रहण बुरा नहीं है

कल का ग्रहण आसमानी था। सूरज का। फिर चांद का होगा। सब हवा-हवाई। असली ग्रहण तो यहां है। धरती पर। भारत में। कुछ पर आंशिक। कुछ पर पूर्ण। कुछ के भविष्य और उम्मीदों पर। वैसे ग्रहण बुरा नहीं है। कटता रहे तो। जैसे परमाणु ग्रहण। ग्रहण के दिन ही ग्रहण कटा। करार आया। थोड़ा सा। कुछ दिनों में पूरा करार। फिर चुनाव ग्रहण लगेगा। पांच साल बाद। सबकी सांस अटकी होगी। वह भी कट जाएगा। लेकिन किसे काटेगा। और कितना। पता नहीं। फिर कटा-पिटा नतीजा। वही ग्रहण करेंगे लोग। ले-देकर।

Saturday, August 2, 2008

प्रकृति से ग्रहण सीखा, काटना नहीं सीखा

एक ग्रहण। सूरज की लहसुनिया तस्वीर। झुकी हुई। कटी हुई। नाम भी टेढ़ा सा। खग्रास। पूर्ण ग्रहण। रोज नहीं होता। कभी कभार होता है। इसलिए चर्चा। दिलचस्पी। रोज हो तो कोई न पूछे। डर खत्म हो जाए। आशाएं-आशंकाएं न रहें। सूरज-चांद का ग्रहण समझ में आता है। प्राकृतिक है। पर यहां तो रोज ग्रहण। हर ओर। कहीं बिजली-पानी। कहीं सत्ता, कहीं राजनीति। ऐसा ग्रहण कि छूटता ही नहीं। नहीं कटता। प्राकृतिक हो तो कटे। यह हमने बनाया। अपने अधकचरेपन में। प्रकृति से ग्रहण सीखा। काटना नहीं सीखा।