Tuesday, November 17, 2009

पत्थर या लखौरी ईंटों से बनी दीवार

एक दीवार थी। उसमें एक खिड़की रहती थी। बकौल विनोद कुमार शुक्ल। लेकिन नहीं दिखती वह सबको। लगे रहे दिन भर। श्रीलंकाई भाई। ठोंकते-पीटते रहते। सीना-पसीना हो गए। कि मिल जाए खिड़की। द्रविड़ दीवार में। दाखिल हो सकें अंदर। द्रविड़ ने बंद कर दी खिड़की। चार तक गिनने के बाद। ताकि वहीं रुक जाए गिनती। समझ आ जाए सबको। मुहावरेदारी। दीवार की। पत्थर की। या लखौरी ईंटों से बनी। पुरानी। पर उतनी ही मजबूत। बल्कि पहले से कुछ अधिक आक्रामक। ऊपर से देखती दुनिया। ग्यारह हजार सीढ़ियां चढ़कर।

Friday, November 13, 2009

शायद सबसे लंबा इंतजार खत्म हुआ

शायद सबसे लंबा इंतजार। खत्म हुआ। मेट्रो पहुंची नोएडा। दिल्ली की शान का। शानदार विस्तार। कुछ हादसे। थोड़ी बहुत अफरा-तफरी। लेकिन लोगों का भरोसा। जमता गया। मेट्रो पर। सुविधा से। तय समय पर पहुंच सकते अब। द्वारका से नोएडा सेक्टर बत्तीस तक। यह इत्मीनान। बड़ी गनीमत। सड़कों के जाम। बस में सफर की। यातना-अपमान से। आहतों को राहत। हैरत यह कि सरकारें। नियामत और कयामत। देतीं साथ-साथ। असुविधाए, अचल-अपार। लेकिन सुविधाओं का भी विस्तार। बढ़ा दी महंगाई। साथ ही बढ़ाई। मेट्रो की लंबाई। सरकारजी आप धन्य! मेट्रो तो खैर! परम अनन्य!

Tuesday, November 10, 2009

कि आसमान से गिरें सफेद फूल

शुरू में अच्छा लगता है उसका आना। रहता है इंतजार। आसमानी तोहफे का। बच्चे-बड़े सब बेसब्र। कि आसमान से गिरें सफेद फूल। रूई के फाहों की तरह। उड़ते-उड़ते। बैठ जाएं यहां-वहां। दरख्तों पर। मोटरगाड़ियों, घरों पर। सिर पर। बस कुछ दिन। उसके बाद होने लगती है कोफ्त। रास्ते बंद। आना-जाना मुहाल। सर्दी। हाड़ कंपा देने वाली। घर से निकलना। ख्वाहिश के दायरे से बाहर। लेकिन यह सब बाद में। अभी तो आमद हुई है। ऊपर की चोटियों पर। पहले खुमार की तरह। तब उतरेगी। आहिस्ता-आहिस्ता।

Friday, November 6, 2009

इसलिए कि नीयत कांच की तरह साफ है

हिंदी में दो शब्द हैं। बिल्कुल आसपास की ध्वनि वाले। नियत और नियति। उर्दू जोड़ लें तो एक शब्द और। नीयत। इनके अर्थ भिन्न। प्रयोग जुदा। पर एक जगह तीनों एक साथ। नीयत ठीक। नियति पहले से ही नियत। यानी की तयशुदा। जैसे सचिन तेंदुलकर। क्रिकेट में महानता। वही नियति है। तय है। नियत है कि होना है एक दिन। इसलिए कि नीयत कांच की तरह साफ। न कोई खरोंच। न गंदगी। धूल-धक्कड़। बीस साल के अंतरराष्ट्रीय झंझावात में। सत्रहवें शिखर पर रहता। चमकता। बल्कि पहले से कुछ और ज्यादा दमकता।

Thursday, November 5, 2009

वेदों की बेदी पर

मधुकर उपाध्याय

भारत के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में व्यक्ति, समाज और सत्ता के बारे में की गयी तमाम टिप्पणियों की कई तरह से व्याख्या की गई है। एक टीकाकार का कहना है कि वेद अन्य बातों के साथ भारतीय समाज पर सटीक टिप्पणी करते हैं। वेद की ऋचाओ से यह ध्वनि बार-बार निकलती है कि कोई एक व्यक्ति, व्यवस्था या धर्म समाज के केन्द्र में नहीं है। एक अमेरिकी भारतविद् वेंडी डोनिगर का मानना है कि अगर समाज में कोई केन्द्र में नहीं है तो जाहिर है कि कोई हाशिए पर भी नहीं है। केन्द्र के बिना हाशिए की कल्पना नहीं की जा सकती। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सभी केन्द्र में हैं और सभी हाशिए पर। ऐसे में दो अवधारणाएं बनती हैं-पहली कि भारत तमाम छोटे-छोटे केन्द्रों को मिलाकर बना है और जो एक जगह हाशिए पर है वही दूसरी जगह केन्द्र में है। दूसरी यह कि हर केन्द्र के हाशिए हैं पर उन सबकी रेखाएं एक दूसरे को काटती हैं, लिहाजा यह समझना आसान नहीं रह जाता कि असल केन्द्र कहां हैं।
दरअसल, यह अवधारणाएं उत्तर और दक्षिण भारत में थोड़े फर्क के साथ विकसित हुईं। दक्षिण ने वेदों का मूल स्वीकार करते हुए एक केन्द्र गढ़ने की कोशिश की ताकि समाज का ढांचा उसके इर्द-गिर्द बुना जा सके। यह समाज को बिखरने से बचाने और व्यवस्थित बनाने के लिए जरूरी था। ठीक-ठीक मालूम नहीं कि दक्षिण ने मंदिरों को समाज के केन्द्र में कब और कैसे रखा, लेकिन इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि उसने ऐसा क्यों किया। इसमें पहले मंदिर बने और धीरे-धीरे उसके चारों तरफ नगर बसने की प्रक्रिया शुरू हुई। इस व्यवस्था में दिशाओं और विस्तार की अपार संभावनाएं थीं। उत्तर भारत में समाज और नगरों का निर्माण नदियों के किनारे हुआ और उसने मंदिरों की जगह नदियों को केन्द्र माना। नदी का प्रवाहमान स्वरूप और उसका टेढ़े मेढ़े चलकर अपनी राह बनाना कालांतर में समाज की प्रवृत्ति में शामिल हो गया। दक्षिण के समाज में व्यवस्था और उत्तर में लगभग अराजकता का इससे संबंध हो सकता है।
दोनों मामलों को समाज के दूसरे पहलुओं पर भी लागू किया जा सकता है। उदाहरण के लिए किसी को केन्द्र न मानने की मौलिक वैदिक सोच और समाज तथा नगर की रचना के लिए केन्द्र गढ़ने की अनिवार्यता को अलग-अलग समझा जा सकता है। इनमें कहीं घालमेल दिखाई नहीं देता। बहुत बाद में जब सत्ता के केन्द्र बनने शुरू हुए तो समाज और सत्ता दोनों की भूमिका बराबर महत्व की बनी रही। किसी भी सभ्य में समाज यह माना जाएगा कि सत्ता का मूल आधार समाज ही है और उससे कटकर या अलग होकर सत्ता नहीं चल सकती। यानी कि यहां भी केन्द्र एक से अधिक हैं और न कोई केन्द्र में है, न ही कोई हाशिए पर। सत्ता की निश्चित भूमिकाएं हैं और उसकी नकेल समाज के पास है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह काम चुनाव के जरिए होता है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि समाज सत्ता के रास्ते में हर पल रोड़े अटकाता रहे और उसे काम करने की छूट न दे। लगभग उसी तरह जसे कोई किसी को पहली मंजिल पर एक कमरा किराए पर दे और उसके बाद सीढ़ियां हटा ले। या फिर ऐसी पाबंदी लगा दे कि किराएदार सीढ़ियों का इस्तेमाल नहीं करेगा; सीढ़ियों का उपयोग करने पर हर बार वह लिखित स्पष्टीकरण देगा कि उसने ऐसा क्यों किया। जाहिर है यह संभव नहीं है।
इस समय करीब-करीब ऐसा ही एक विवाद उभरने लगा है। मामला मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति का है, जो पद वजाहत हबीबुल्लाह के हटने से खाली हुआ है। इस पद पर नियुक्ति का अधिकार सरकार के पास है, जिसे समाज ने चुना है। समाज के एक प्रभावशाली वर्ग ने अचानक यह मांग शुरू कर दी कि पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाए। इनफोसिस के नारायण मूर्ति, अभिनेता आमिर खान और योग गुरु रामदेव ने प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी और कहा कि अगर किरण बेदी को इस पद पर नियुक्त नहीं किया जा रहा है तो सरकार स्पष्टीकरण दे कि उसने जिस किसी को भी चुना है, उसका आधार क्या है, वह किरण बेदी से बेहतर कैसे है। निश्चित रूप से समाज ने इस मामले में अपनी भूमिका का अतिक्रमण किया है और ऐसे क्षेत्र में दखल देने की कोशिश की है, जिसकी जिम्मेदारी खुद उसने अपनी चुनी हुई सरकार को दे रखी है। इस तर्क को हास्यास्पद रूप से खींचकर यहां तक भी ले जाया जा सकता है कि समाज तय करे कि सरकार में मंत्री कौन होंगे या प्रधानमंत्री कौन होगा।
दरअसल, यह भारत की मूल संरचना को समझने में हुयी चूक का नतीजा है। यह मानने का परिणाम है कि व्यवस्था में कोई केन्द्र में है और कोई हाशिए पर। व्यक्ति को संस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण समझने की गलती है। संस्थाएं, व्यक्ति और समाज से बनती हैं लेकिन उनका अपना जीवन भी होता है। उस पर इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि उस संस्था की कुर्सी किसके पास है। चुनाव आयोग में कभी टीएन शेषन बहुत महत्वपूर्ण लगते थे पर अंतत: संस्था बड़ी साबित हुई। नवीन चावला के विवाद से भी संस्था की केन्द्रीय भूमिका क्षतिग्रस्त नहीं हुई। यह बात मुख्य सूचना आयुक्त के मामले में भी इतनी ही सच साबित होगी।

Saturday, October 31, 2009

साथ बढ़े की भावना : मधुकर उपाध्याय


गोरखपुर। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने कहा कि उत्सव प्रेमी देश है अपना भारत। उत्स उत्थान से बना है। अपनी संस्कृति की यह सहज वृत्ति है कि यहां मेले, त्यौहार आदि सब मिल कर मनाते हैं। आयोजनों की भावना यही होती है कि सब साथ चलें, साथ बढ़े, एक भाषा बालें, एक मन हो। ऐसे आयोजनों का संदेश यही होता है और यदि सभी लोग इससे सीख पाएं तो ही आयोजनों की सार्थकता है।

साभार - दैनिक जागरण, गोरखपुर

Sunday, October 4, 2009

तो गांधी भी जरूरत भर



वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में बापू कुटी के सामने खड़े होने पर यह अंदाजा नहीं होता कि महात्मा गांधी इसी झोपड़ी में रहते थे और इसे बनाने में सौ रुपए से कम खर्च आया था। दरअसल नमक आंदोलन के समय साबरमती आश्रम छोड़ते हुए गांधी ने कहा था कि वह अंग्रेजों से आजादी मिले बिना अपने आश्रम लौट कर नहीं आएंगे। यह बात 1930 की है जबकि आजादी उसके सत्रह साल बाद मिली। इस अवधि में महात्मा गांधी किसी दूरदराज के गांव में रहना चाहते थे और इस सिलसिले में उन्होंने मीराबेन को पहले ही शेगांव भेज दिया था। शेगांव तक सड़क भी नहीं थी। पांच किलोमीटर पैदल चलकर ही वहां पहुंचा जा सकता था। गांधी नमक कानून तोड़ने के छह साल बाद तीस अप्रैल 1936 को सेवाग्राम पहुंचे।


मीराबेन और अपने अन्य अनुयायियों से गांधी ने सेवाग्राम में रहने की अपनी शर्ते स्पष्ट कर दी थीं। उन्होंने साफ कर दिया था कि अगर उनकी झोपड़ी ‘आदि निवास बनाने में सौ रुपए से ज्यादा खर्च आया तो वह वहां नहीं रहेंगे। यह गांधी की मितव्ययिता थी, जिसकी शुरुआत उन्होंने नमक आंदोलन के समय खाने-पीने की सामग्री और एक ग्राम से ज्यादा घी किसी को नहीं दिए जाने की शर्त लगाकर की थी। इस दौरान एक बार वह महादेव देसाई से केवल इस बात को लेकर नाराज हो गए कि देसाई ने उनके लिए मामूली टूटा पानी का कप रहते हुए दूसरा कप खरीद लिया था। काफी देर तक गांव की अर्थव्यवस्था और एक कप की कीमत का महत्व समझाते हुए गांधी ने देसाई को विवश कर दिया कि वे लौटकर कप दुकानदार को वापस कर दें। सेवाग्राम में गांधी की झोपड़ी बनाने में आने वाला खर्च कम रखने के लिए झोपड़ी की छत बांस और खपरैल से बनाई गई। दीवारें मिट्टी की थीं। खिड़की-दरवाजे बांस जोड़कर तैयार किए गए। एक टांड़ भी बांस की और एक आलमारी भी। नीचे बिछाने के लिए खजूर के पत्तों की चटाई। यह सुझाव गांधी का ही था कि जहां तक संभव हो स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का ही इस्तेमाल किया जाए। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी की ओर से इस समय चलाया जा रहा किफायतशारी के अभियान और उसके आज के नेताओं को पलट कर गांधी और अपने इतिहास से ही बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। यह और बात है कि तीसरे दर्जे में यात्रा करने की वजह से गांधी के अभियानों पर शायद पहले दर्जे की यात्रा से ज्यादा खर्च आता था। लेकिन इससे आम लोगों के बीच रहने और उन तक पहुंचने की गांधी की मंशा का महत्व कम नहीं होता। सरोजनी नायडू ने एक बार इसी पर टिप्पणी की थी कि गांधी को गरीब लोगों की तरह तीसरे दर्जे में यात्रा पर खर्च बहुत ज्यादा आता है।

राजनीतिक पहलू को छोड़ दें तब भी रोजमर्रा के जीवन में गांधी कमखर्ची की मिसाल कायम किया करते थे। इसमें लिफाफे के पीछे की जगह पर लिखना, चीजों का उतना ही इस्तेमाल जितना जरूरी हो। उनका कहना था कि धरती पर सबकी जरूरत भर का सामान है लेकिन सबके लालच भर का नहीं। वह शब्दों के मामले में भी उतने ही सतर्क रहते थे और सिर्फ जरूरत भर शब्द इस्तेमाल करते थे। नमक आंदोलन के समय दांडी के समुद्र तट पर पांच अप्रैल 1930 को संदेश देने के लिए कहे जाने पर गांधी ने कागज के एक छोटे से टुकड़े पर लिखा ‘आई वांट वर्ल्ड सिंपथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइटज् (मैं अन्याय के खिलाफ इस संघर्ष में दुनिया की सद्भावना चाहता हूं)। गांधी ने यह संदेश एक मामूली कलम से लिखा। हालांकि कुछ ही समय पहले वह आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति केवी रत्नम को यह सलाह दे चुके थे कि रत्नम फाउंटेन पेन के निब अपने कारखाने में बनाएं, जिनका तब तक आयात होता था। रत्नम ने निब पर विदेशी एकाधिकार खत्म करते हुए देश में पहली बार फाउंटेन पेन का उत्पादन शुरू किया। इस पेन का नाम रत्नम रखा गया। केवी रत्नम ने फाउंटेन पेन बाजार में उतारने से पहले दो कलम गांधी को उनके वर्धा आश्रम के पते पर भेजे। गांधी ने संभवत: उसी कलम से केवी को जवाब लिखा और कहा धन्यवाद।


पिछले सप्ताह गांधी की सादगी और किफायतशारी का मजाक उड़ाते हुए मशहूर पेन निर्माता कंपनी मो ब्लां ने दांडी मार्च की याद में एक फाउंटेन पेन का निर्माण किया, जिसकी कीमत 14 लाख रुपए रखी। इस तरह के केवल 241 फाउंटेन पेन बनाए जाएंगे क्योंकि साबरमती आश्रम से दांडी की दूरी 241 मील थी। हाथ से बनाए गए हर फाउंटेन पेन में रोडियम प्लेट वाली अठारह कैरेट सोने की निब होगी जिस पर लाठी लिए हुए चलते गांधी का चित्र बना होगा। निश्चित तौर पर गांधी की सादगी और नमक आंदोलन की याद से मो ब्लां का कोई संबंध नहीं है और उनका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक है क्योंकि उनकी नजर में गांधी बहुत बड़े और विश्वव्यापी ब्रांड हैं। इसके साथ ही कंपनी तीन हजार पेन की एक और श्रृंखला बनाएगी जिसका नाम महात्मा होगा। इनकी कीमत पौने दो लाख से डेढ़ लाख रुपए के बीच होगी। मो ब्लां को व्यापार करने से कोई नहीं रोकना चाहता लेकिन उससे यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए था कि इन फाउंटेन पेन की बिक्री से हुई कमाई कैसे खर्च की जाएगी। यह भी कि क्या इसका कुछ हिस्सा शिक्षा और स्कूलों पर खर्च होगा। क्या कंपनी 241 मील की यात्रा की याद में 241 गांव गोद लेकर उनमें सड़क, पानी और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। अगर नहीं, तो उसे गांधी और महात्मा नाम के इस्तेमाल का कोई अधिकार नहीं।

Friday, October 2, 2009

ईश्वरत्व से बचते हुए


महात्मा गांधी जीवन भर इस डर से जूझते रहे कि कहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी उन्हें ईश्वर बनाकर मंदिर में स्थापित न कर दें। उनकी पूजा अर्चना प्रारंभ हो जाए और उनके आदर्शो को कभी न हासिल हो सकने वाली ऊंचाई मानकर त्याग दिया जाए। कभी मजाक में, तो कभी पूरी गंभीरता के साथ गांधी इस बारे में लोगों को लगातार सतर्क करते रहे। गांधी वांग्मय में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां उन्होंने लोगों को अपने ढंग से बताया कि वे उन्हें भगवान बनाने से बाज आएं। यह बात सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं थी। अमेरिका में एक बालक गंभीर रूप से बीमार था। उसने भारत में गांधी के चमत्कार के बारे में सुनकर उन्हें एक पत्र लिखा। उसका कहना था, ‘मैंने आपके बारे में बहुत कुछ सुना और पढ़ा है। मुझे मालूम है कि आपने किस तरह लोगों को एकजुट कर दिया। उन्हें हौसला दिया कि वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ बिना हथियार के खड़े हो सकते हैं। यह चमत्कार आप ही कर सकते थे। मेरे जीवन में भी कई तरह की समस्याएं हैं। मैं चाहता हूं कि आप आशीर्वाद देकर मुझे इससे मुक्त कर देंगे। गांधी ने इस पत्र का तत्काल जवाब दिया, ‘मैं कोई चमत्कार नहीं करता और न ही मेरे पास कोई ईश्वरीय शक्ति है। अगर तुम अपने मन में ठान लो कि तुम्हें स्वस्थ होना है तो कोई ताकत तुम्हें बीमार नहीं रख सकती। यह घटना 1930 की है। उस समय महात्मा गांधी ऐतिहासिक दांडी मार्च के दौरान साबरमती आश्रम से ओलपाड और नवसारी होते हुए दांडी समुद्र तट की ओर जा रहे थे, जहां उन्हें नमक कानून तोड़ना था। इस रास्ते में एक मंदिर है, जहां गांधी की प्रतिमा स्थापित है और कोई व्यक्ति हर शाम वहां दिया जला जाता है। यह मंदिर उस स्थान से ज्यादा दूर नहीं है, जहां गांधी दिन भर की यात्रा के बाद रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। गांधी के बारे में सच अपनेआप में खासा आश्चर्यजनक होता था और उस सच के किस्से बढ़ते-बढ़ते चमत्कार बन जाते थे। महात्मा गांधी को साढ़े तीन बजे सुबह उठकर चिट्ठियों का जवाब देने की आदत थी। उनके निजी सचिव महादेव देसाई लालटेन जलाकर वहां रख दिया करते थे। उस दिन तेज हवा चली और लालटेन बुझ गई। लालटेन रखने के बाद देसाई फिर सो जाते थे और डेढ़ घंटा बाद उठते थे, जब गांधी नहाकर प्रार्थना सभा के लिए जाते थे। महादेव देसाई उठकर आए, तो देखा कि गांधी अंधेरे में बैठे कुछ लिख रहे हैं। उन्होंने शिकायती अंदाज में कहा कि लालटेन जलाने के लिए उन्हें बुलाया क्यों नहीं, गांधी ने कहा, ‘लिखने के लिए रोशनी की जरूरत नहीं होती, पढ़ने के लिए होती है। यह बात भी सत्याग्रहियों के बीच चमत्कार के रूप में फैल गई। इन सबसे अलग एक और घटना दांडी यात्रा के समय ही घटी। अपनी यात्रा के दौरान गांधी कुछ गांवों में ठहरते थे और कुछ जगह ठहरने से इनकार कर देते थे। इसी संदर्भ में उन पर आरोप लगा कि वह जान-बूझकर मुस्लिम बहुल गांव में नहीं जाते। गांधी ने कई दिन बाद इसका जवाब दिया और कहा कि वह उन्हीं गांवों में ठहरते हैं, जहां के लोग उन्हें आमंत्रित करते हैं। वह किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते। इसी सिलसिले में उन्होंने बताया कि छह अप्रैल को नमक कानून तोड़ने के लिए वह दांडी में अपने मुसलमान दोस्त के घर से जाएंगे क्योंकि उसने उन्हें आमंत्रित किया है। एक दिन गांधी एक गांव में रुके। वह एक दलित बस्ती थी। बस्ती के बाहर एक कुंआ था। पेड़ के नीचे सत्याग्रहियों ने डेरा डाला क्योंकि आसपास पेड़ों की वजह से छाया थी और बगल में कुंआ था, जिससे आसानी से पानी मिल सकता था। गांधी नहाने की तैयारी कर रहे थे कि महादेव भाई देसाई ने आकर बताया कि कुंआ सूखा है, उसमें पानी नहीं है। दूसरा कुंआ गांव से बाहर दो मील दूर है। गांधी ने वहीं रुकने का फैसला किया और सत्याग्रहियों को भोजन से पहले मुंह-हाथ धोने के लिए दो मील दूर जाना पड़ा। शाम को सत्याग्रही अगले ठिकाने के लिए रवाना हो गए। अगले गांव में, जहां गांधी ठहरे थे, अचानक गाने-बजाने की आवाजें आने लगीं। पिछली दलित बस्ती से चालीस-पचास लोग थालियां-बर्तन बजाते और गाते हुए बाहर जमा हो गए थे, क्योंकि उनके कुंए में अचानक सोता फूटने से पानी आ गया था। वे गांधी को धन्यवाद देने आए थे कि उनकी वजह से गांव को फिर से पानी नसीब हो गया और अब उन्हें रोजमर्रा की जरूरत के लिए पानी लेने दो मील नहीं जाना पड़ेगा। महादेव देसाई ने यह बात गांधी को बताई। गांधी उठकर झोपड़ी से बाहर आए। वह इस बात की गंभीरता और खतरे को समझ रहे थे। यह भी समझ रहे थे कि इसे तत्काल खारिज न करने पर उन पर ईश्वरत्व लादे जाने का खतरा बढ़ जाएगा। उन्होंने गांव वालों को बहुत डांटा और वापस जाने के लिए समझाते हुए एक किस्सा सुनाया। गांधी ने कहा कि और जो कुछ भी हो, कुंए में पानी आने का श्रेय उन्हें देना, सर्वथा गलत है। गांधी ने कहा, ‘अगर कव्वा किसी पेड़ पर बैठे और पेड़ गिर जाए, तो वह कव्वे के वजन से नहीं गिरता। मुझे कोई गलतफहमी नहीं है और आपको भी नहीं होनी चाहिए।

Monday, August 24, 2009

एक माया मिस्र की

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपनी मूर्तियों के कारण सुर्खियों और विवाद में हैं। अमरत्व की कामना, इतिहास में गुम हो जाने की आशंका और अपने को समाज पर थोपने की कोशिश कम ही कामयाब होती है। मिस्र की महिला बादशाह हातशेपसत की कहानी भी कुछ यही बताती है। उसे भी यही खौफ था कि इतिहास कहीं मुझे भुला न दे। उसने भी मूर्तियां बनवाईं। 1458 ईसा पूर्व हातशेपसत की मृत्यु हुई तब शासक बने उनके सौतेले बेटे ने अपनी मां के सारे स्मारक नष्ट करने का आदेश दिया। शाही मैदान से उसकी ममी भी हटवा दी। फिर भी हातशेपसत का नाम जिंदा है। तो क्या इतिहास को मिटा देने की कोशिश समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की तरह ही नाकाम रहती है!



कई बार ऐसा लगता है कि कुछ चीजें पहली बार हो रही हैं और ऐसी चीजों के लिए ‘इतिहास अपने को दोहराता है एक बेमानी कथन है। दरअसल, इसकी असली वजह शायद यह है कि इतिहास की हमारी समझ और पीछे जाकर चीजें टटोलने की क्षमता सीमित है। जैसे ही इतिहास का कोई नया पन्ना खुलता है, पता चलता है कि आज जो हो रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। दुनिया ऐसे लोग और उनकी बेमिसाल सनक पहले भी देख चुकी है। दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मिस्र की सभ्यता है, जिसका लिखित इतिहास सवा पांच हजार साल पुराना है। उसके प्राचीनतम साक्ष्य तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से पहले के हैं। उसकी वंश परंपरा पांच हजार साल पहले शुरू होती है और लगातार तीन हजार साल तक चलती है। इसी परंपरा में बीस वर्ष का एक ऐसा कालखंड आता है, जिसमें मिस्र की बादशाहत एक महिला के हाथ में थी। सामाजिक स्थितियों और परंपराओं में महिला शासक की स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए उस ‘महिला बादशाह-हातशेपसत को तकरीबन पूरा कार्यकाल पुरुष बनकर पूरा करना पड़ा। इस घटना का उल्लेख दस्तावेजों में है कि उसे ‘शी किंग कहा जाता था। हातशेपसत का कार्यकाल असाधारण उपलब्धियों वाला था। वह एक कुशल शासक थी। नई इमारतें तामीर कराने में उसकी दिलचस्पी थी। राजकाज से आम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके बीस साल के कार्यकाल को मिस्र के स्वर्णिम युग की तरह याद किया जाता है। हातशेपसत का कार्यकाल 1479 से 1458 ईसा पूर्व में था। एक अध्ययन के अनुसार, हातशेपसत की मां अहमोज एक राजा की पुत्री थी। उसके पिता टुटमोज प्रथम सही मायनों में राजशाही खानदान के नहीं थे। इसकी वजह से हातशेपसत को थोड़ी सामाजिक स्वीकार्यता मिली, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने पति के निधन के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। हालांकि टुटमोज प्रथम ने अपने सौतेले बेटे को गद्दी सौंपी थी लेकिन वह कभी सत्ता में रह नहीं पाया। पूरा इतिहास कुछ इस तरह गडमड था कि हातशेपसत की मौजूदगी और बेहतरीन सत्ता संचालन के बावजूद उसे स्थापित करने के ठोस प्रमाण नहीं मिल रहे थे। कुछ अमेरिकी और मिस्री विद्वानों को अचानक एक दिन एक खुली कब्र मिली, जिसके बाहर एक ममी पड़ी थी। यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव होता कि मिस्र के शासक रह चुके किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार हो सकता है कि उसकी ममी खुले में पड़ी हो। यह बात सौ साल पुरानी है। करीब 75 साल पहले एक और मिस्री विद्वान को उस ममी के पास सोने के गहने मिले। इससे उसे संदेह हुआ कि यह ममी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। पूरी चिकित्सकीय प्रक्रिया के बावजूद ममी का काफी हिस्सा नष्ट हो गया था और ले-देकर एक दांत सही सलामत मिला। उसी दांत के सहारे हातशेपसत की पहचान हुई और फिर उस ममी को सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया। हातशेपस का शासन दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहले हिस्से में करीब छह वर्ष तक वह टुटमोज द्वितीय के बेटे के उत्तराधिकारी के रूप में शासन करती रही। सारे फैसले उसके होते थे लेकिन नाम उस नाबालिग बच्चे का रहता था। छह साल बाद हातशेपसत ने नाबालिग टुटमोज तृतीय को बेदखल कर दिया और खुद सत्ता संभाल ली। इसके बावजूद महिला के रूप में समाज के सामने जाने का साहस हातशेपसत नहीं जुटा सकी और हमेशा पुरुषों के कपड़े पहनती रही। इतना ही नहीं, उस समय की तमाम प्रतिमाओं में भी उसे पुरुष की तरह चित्रित किया गया। शक्तिशाली फरोहा होने के बावजूद समाज द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के डर की वजह से हातशेपसत में एक तरह का जटिल व्यक्तित्व विकसित हुआ। उसे यह डर हमेशा लगा रहता था कि ताकतवर पुरुष प्रधान मिस्री समाज उसे खारिज कर देगा। उसका योगदान भुला देगा और उसका अस्तित्व इतिहास से मिटा दिया जाएगा। साढ़े तीन हजार साल पुरानी इस इतिहास-कथा ने हातशेपसत के इसी डर और चिंता के कारण एक नया मोड़ लिया। उसने तय कर लिया कि आगे का पूरा शासन वह एक पुरुष फरोहा की तरह चलाएगी और एक अभियान चलाकर समाज में अपनी छवि एक पुरुष की तरह स्थापित करेगी। उसकी बाद की प्रतिमाओं में उसके महिला होने के संकेत तक नहीं मिलते बल्कि चेहरे पर दाढ़ी भी दिखती है। ऐसे कई दस्तावेज मिलते हैं, जिसमें हातशेपसत ने कहा कि वह शासन करने के लिए भेजी गई ईश्वरीय देन है। इसी दौरान उसने यह फैसला लिया कि पूरे साम्राज्य में उसकी विराट प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, ताकि किसी को उसके फरोहा होने पर संदेह न रह जाए। मिस्र के छोटे से छोटे इलाके तक संदेश भेजे गए कि हातशेपस बादशाह है और कोई उसे चुनौती देने की कोशिश न करे। इसी के साथ उसने एक शब्द गढ़ा, जिसे रेख्त कहते थे और इसका अर्थ था-आम लोग। मिस्र की जनता को हातशेपसत प्राय: मेरे रेख्त कहती थी और हर फैसला यह कहकर करती थी कि रेख्त की राय यही है। लोकप्रियता हासिल करने की सारी सीमाएं हातशेपसत ने तोड़ दीं। हातशेपसत ने लगभग बीस साल के अपने शासन के दौरान हमेशा यह ख्याल रखा कि उसके किसी फैसले पर नील नदी के दोनों ओर बसे रेख्त की राय क्या होगी। एक दस्तावेज में उसने यहां तक लिखा कि अगर रेख्त की मर्जी नहीं होगी तो मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा। हातशेपसत की मृत्यु 1458 ईसा पूर्व में हुई, जिसके बाद उसके सौतेले बेटे टुटमोज तृतीय ने उन्नीसवें फरोहा के रूप में सत्ता संभाली। अपनी सौतेली मां की तरह टुटमोज तृतीय को भी स्मारक बनाने का शौक था। मुर्गी को भोजन की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा उसी ने शुरू की और उन्नीस साल के शासन में सत्रह सैनिक अभियान चलाए और कामयाब रहा। अपने शासनकाल के अंतिम दौर में उसने अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट होकर आराम से रहने की जगह एक अजीबोगरीब फैसला किया। यह फैसला था-अपनी सौतेली मां हातशेपसत द्वारा निर्मित सारे स्मारक और उसकी सारी प्रतिमाएं नष्ट कर देने का ताकि इतिहास में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। टुटमोज तृतीय अपने इस अभियान में भी सफल रहा और अपनी सौतेली मां को उसने साढ़े तीन हजार साल के लिए इतिहास से गायब कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी सौतेली मां की ममी को भी फरोहा के शाही मैदान से हटा दिया। उसे एक ऐसी जगह ले जाकर रखा, जहां किसी को संदेह ही न हो कि वह हातशेपसत हो सकती है। निश्चित तौर पर अमरत्व की कामना, इतिहास में खो जाने के डर और समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की कोशिश में किए गए प्रयास कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकते। लेकिन साथ ही यह भी लगता है कि इतिहास को नष्ट करने या उसे मिटा देने की कोशिश भी उतनी ही नाकामयाब होती है।

Sunday, August 2, 2009

गंगा जसी पवित्र गायकी


यह एक अद्भुत संयोग है कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों तरह की संगीत धाराओं का गढ़ कर्नाटक में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक को बीच से काटने वाली तुंगभद्र नदी के उत्तर में पनपा और बढ़ा जबकि कर्नाटक संगीत नदी के दक्षिण में। हिंदुस्तानी संगीत की गायकी के लगभग सारे बड़े नाम उत्तरी कर्नाटक में एक-दूसरे से सटे तीन जिलों से आते हैं, जिनमें धारवाड़, हुबली और बेलगांव शामिल हैं। सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, बसवराज राजगुरु, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल और राजशेखर राजगुरु सब के सब इसी धरती की देन हैं। गंगूबाई अपने परिवार में पहली गायिका नहीं थीं लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय गायकी के लिए बहुत अनुकूल नहीं थी। यह बात भी उनके खिलाफ जाती थी कि वे महिला होकर शास्त्रीय संगीत की पुरुष प्रधान बिरादरी में दाखिल होना चाहती थीं। गंगूबाई की मां अंबाबाई, यहां तक कि उनकी दादी भी देवदासी परंपरा से आती थीं और मंदिरों में गायन उनके लिए सहज-सामान्य था लेकिन मंदिर के बाहर सार्वजनिक मंच से शास्त्रीय गायन उतना ही कठिन। गंगूबाई का गायन आठ दशक में फैला हुआ है लेकिन शायद गायकी की पुख्तगी से ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने तमाम तरह की विषमताएं ङोलते हुए अपना मुकाम हासिल किया। कन्नड़ में लिखी अपनी आत्मकथा मेरा जीवन संगीत में गंगूबाई ने इसका विस्तार से हवाला दिया है और लिखा है कि उन्हें ऊंची जातियों के शुक्रवार पेठ मोहल्ले से निकलते हुए किस तरह की फब्तियां सुननी पड़ती थीं। उन्हें बाई और कोठेवाली कहा जाता था। गंगूबाई के बचपन के गांव हंगल में मैंने उनका पुश्तैनी घर देखा। सौ साल पहले बने छोटे से अहाते वाले उस घर के पांच टुकड़े हो गए थे, जिस पर बंटवारे के बाद परिवार के लोगों ने अलग-अलग घर बना लिए थे। गंगूबाई की मां के हिस्से में आया टुकड़ा उजाड़ था। खपरैल की छत थी, पर टूटी हुई। सामने के दरवाजे पर ताला लगा था और लकड़ी की दोनों खिड़कियां गायब थीं। मुझे उस घर तक ले गई एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि गंगू उनकी बचपन की सहेली थी लेकिन अब यहां नहीं आतीं। उसने हुबली में घर बनवा लिया है। नई पीढ़ी के बच्चों में ज्यादातर ने उनका नाम नहीं सुना था और कुछ बुजुर्गो में वही हिकारत थी, जिसका जिक्र विषमताओं के रूप में गंगूबाई ने अपनी किताब में किया है। हुबली में गंगूबाई का छोटा सा घर है। सामने बरामदा, अंदर एक आंगन और उसके तीन तरफ बने कमरे। मैंने हंगल और उनके बचपन के बारे में पूछा तो गंगूबाई टाल गईं। बाद में उनकी बेटी और बहू, जो खुद बेहतरीन गायिका हैं, कहा कि बचपन में सामाजिक अपमान का असर मां पर इतना था कि उन्होंने पचपन साल की होने तक बेटी को सार्वजनिक मंच से गाने नहीं दिया। उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूला, जब गायन के दौरान श्रोताओं में से किसी ने कहा, ‘गाना बहुत हुआ बाई, अब ठुमका हो जाए।गंगूबाई ने अपनी आत्मकथा में बहुत संयम से लेकिन पीड़ा के साथ लिखा है कि शास्त्रीय संगीत में आज भी महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव होता है। शायद यही वजह है कि बड़ी से बड़ी गायिका बाई होकर रह जाती है जबकि पुरुष उस्ताद और पंडित बन जाते हैं। इस आधार पर कि वे मुसलमान हैं या हिंदू। उन्होंने इस सिलसिले में हीराबाई और केसरबाई का जिक्र किया है। इस बात पर हैरानी होती है कि शास्त्रीय संगीत में महिलाएं ऊंचे घरानों से क्यों नहीं आईं और जहां से आईं, उनकी स्वीकार्यता इतनी आसान क्यों नहीं थी। इसमें हीराबाई बारोडकर, केसरबाई केरकर, जद्दनबाई, रसूलनबाई और अख्तरीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। समाज ने बहुत बाद में केवल अख्तरीबाई को थोड़ी इज्जत बख्शी और उन्हें बेगम अख्तर कहा जाने लगा। गंगूबाई का संबंध किराना घराने से था, जिसके उस्ताद अमीर खां मीरज में रहते थे। गंगूबाई की मां अंबाबाई जब अपने घर में गाती थीं तो उस्ताद अब्दुल करीम खां उन्हें सुनने आते थे। गंगूबाई के गुरु सवाई गंधर्व और हीराबाई भी अंबाबाई की गायकी के प्रशंसकों में थीं। धारवाड़ में अंबाबाई को सुनने के लिए उनके घर के बाहर भीड़ जमा हो जाती थी। अंबाबाई ने अपनी बेटी को संगीत की तालीम देने की जिम्मेदारी सवाई गंधर्व को सौंप दी, जिसके लिए गंगूबाई को 30 मील दूर जाना पड़ता था। वहां उनके गुरुबंधु थे पंडित भीमसेन जोशी। उस जमाने में दिन में सिर्फ दो बार रेल चलती थी जो धारवाड़ को सवाई गंधर्व के गांव से जोड़ती थी। यानी कि गाड़ी छूट जाए तो रात स्टेशन पर ही बितानी पड़ती। भीमसेन जोशी वापसी में अक्सर गंगूबाई को घर तक छोड़ने आते थे। फिरोज दस्तूर भी उन दिनों वहीं थे। सवाई गंधर्व ने गंगूबाई को सिखाने में ख्याल पर जोर दिया और चाहा कि वह सात रागों पर महारत हासिल करें। जाहिर है, गंगूबाई के पास गायकी में भीमसेन जोशी जसी विविधता नहीं है लेकिन भैरवी, आसावरी, भीमपलासी, केदार, पूरिया धनाश्री और चंद्रकौंस में विलंबित में जिस तरह का राग विस्तार उनके पास है वह जोशी और दस्तूर के पास भी नहीं। अपनी हर रचना को प्रार्थना कहने वाली गंगूबाई की सिर्फ एक ख्वाहिश अधूरी रह गई कि वह सौ साल जीना चाहती थीं। प्रकृति ने उन्हें तीन और वर्ष नहीं दिए लेकिन उनकी अंदर तक धो देने वाली गंगाजल जसी पवित्र गायकी किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। वह सैकड़ों साल जिंदा रहेगी।

Monday, May 11, 2009

कालजयी गायकी का पांचवां स्तंभ

इकबाल बानो ने पचास हजार लोगों के सामने फैज की नज्म ‘हम देखेंगेज् गाई और गाना खत्म होने तक यह वाकया एक आंदोलन में बदल गया।

पक्के गाने छोड़ दिए जाएं तो दक्षिण एशिया में कालजयी गायकी के पांच स्तंभ नजर आते हैं। वह गायकी जो अपनी पीढ़ी में तो मिसाल थी ही, आज भी है और सदियों तक रहेगी। इस गायकी में सिर्फ अदायगी, तमीज, तहजीब और तलफ्फुज नहीं है बल्कि कुछ ऐसा भी है, जो सीधे नब्ज पर हाथ रखता है और अंदर तक झकझोर देता है। इसने अपने मेयार खुद तय किए हैं। चाहे वह इश्क हो, कि फलसफा या फिर प्रतिरोध और जिंदगी की शर्ते। इकबाल बानो इन पांच स्तंभों में से एक थीं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं।कालजयी गायकी के शिखर पर जिन पांच गायकों और उनके पसंदीदा कलाम को रखा जाएगा, उनके बीच बराबरी का रिश्ता है। मेरी नजर में नूरजहां का ‘मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग, मेहदी हसन का ‘रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ, नुसरत फतेह अली खान का ‘तुम एक गोरखधंधा हो, बेगम अख्तर का, ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे और इकबाल बानो का ‘हम देखेंगें लाजिम है कि हम भी देखेंगे इस गायकी के शिखर पर हमेशा रहेंगे। इकबाल बानो के गुजर जाने के बाद इन पांच स्तंभों में से चार अब दुनिया में नहीं हैं। मेंहदी हसन हयात हैं पर अस्पताल में हैं और उनकी हालत ठीक नहीं है। मोहतरमा इकबाल बानो दिल्ली की थीं। बचपन यहीं गुजरा। आठ साल की उम्र में उनके एक रिश्तेदार ने किसी तरह उनके पिता को राजी किया कि वह बानो को संगीत सीखने दें क्योंकि ‘उसकी आवाज में कशिश और एक बेहद अलग ढंग की रूमानियत है। मोहतरमा ने उस्ताद चांद खां से तालीम पाई, जो दिल्ली घराने के माहिर गायक थे। चांद खां की सिफारिश पर इकबाल बानो ने अपनी पहली ठुमरी ऑल इंडिया रेडियो में रिकार्ड कराई। तेरह साल की उम्र में पहला सार्वजनिक कार्यक्रम पेश किया और पचास के दशक में वह एक जानी-मानी शख्सियत बन चुकी थीं। हालांकि इसी बीच 1952 में उनकी शादी हुई और वह पाकिस्तान चली गईं। इकबाल बानो के शौहर ने उन्हें गाने से नहीं रोका और इसी दौरान वह पाकिस्तानी फिल्मों की सबसे बड़ी पाश्र्वगायिका बन गईं। ‘गुमनाम, ‘कातिल, ‘सरफरोश और ‘नागिन के उनके गीत आज भी लोकप्रिय हैं।अपने शौहर के इंतकाल के बाद इकबाल बानो लाहौर चली गईं और अंतिम दिनों में वहीं रहीं। लाहौर से उनका रिश्ता अलग तरह का था। यह वही शहर था, जिसने इकबाल बानो को पाकिस्तान में प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाज बना दिया। यह बात 1985 की है। पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का फौजी शासन था और तमाम कलाकारों पर प्रतिबंध लगा हुआ था। फैज अहमद फैज जेल में थे और उनकी शायरी गाने पर रोक थी। इकबाल बानो ने पचास हजार लोगों के सामने फैज की नज्म ‘हम देखेंगे, लाजिम हम देखेंगे गाई और गाना खत्म होने तक यह वाकया एक आंदोलन में बदल गया। नारे लगने लगे। उस नज्म की कुछ पंक्तियां थीं : ‘जब अर्जे खुदा के काबे से/सब बुत उठवाए जाएंगे/हम अहले सफा मरदूदे हरम/मसनद पर बिठाए जाएंगे/सब ताज उछाले जाएंगे/सब तख्त गिराए जाएंगे/हम देखेंगे/लाजिम है कि हम भी देखेंगे।फैज की एक और नज्म को इकबाल बानो ने अपनी आवाज से लोगों के दिलों में उतार दिया। ‘आइए हाथ उठाएं हम भी/हम जिन्हें रस्में दुआ याद नहीं/हम जिन्हें सोजे मुहब्बत के सिवा/कोई बुत/कोई खुदा याद नहीं। उनकी गायकी में बाकी सिद्दीकी की गजल ‘दागे दिल हमको याद आने लगे ने एक नई ऊंचाई अदा की। मोहतरमा की शिक्षा मूलत: गजल, ठुमरी और दादरा में थी और नज्मों की अदायगी में उन्हें इसका पूरा फायदा मिला। अपनी चौहत्तर साल की जिंदगी में साठ साल गायकी को समर्पित करने वाली इकबाल बानो को अपने कद और लोकप्रियता का अंदाजा था, पर उन्होंने समाज के साथ रिश्ते के बीच इसे कभी आड़े नहीं आने दिया।इकबाल बानो की लोकप्रियता केवल उर्दूभाषी हिंदुस्तान और पाकिस्तान तक सीमित नहीं थी। फारसी पर उनकी गहरी पकड़ और फारसी संगीत की समझ की वजह से वह ईरान, मध्यपूर्व के देशों तथा अफगानिस्तान में खासी चर्चित थीं। फारसी में ‘हाफिज और ‘बेदिल की शायरी में उनकी आवाज ने जादुई असर पैदा कर दिया। बेहतरीन अदायगी और समाज के साथ अपने सरोकारों के चलते मोहतरमा इकबाल बानो उस मुकाम पर पहुंच गईं, जिसकी वह सचमुच हकदार थीं। जिसने इकबाल बानो को नहीं सुना, उसने पूरी एक पीढ़ी की आवाज नहीं सुनी। उस आवाज को हमारा सलाम।

Monday, March 30, 2009

कांग्रेस की कवायद

ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी ने जानबूझकर अपनी मुश्किलें बढ़ाने का फैसला कर लिया है। हालांकि पार्टी के कुछ नेता कहते हैं कि यह कांग्रेस की दूरगामी सोच का परिणाम है, क्योंकि वह अब से ज्यादा 2014 के बारे में सोच रही है। इस तर्क को पचा पाना आसान नहीं लगता, लेकिन जिस तरह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बिखर रहा है, इसे देखना कठिन नहीं है। कांग्रेस ने 29 जनवरी को अपनी कार्य समिति की बैठक में यह फैसला कर लिया था कि वह राष्ट्रीय स्तर पर एकला चलो रे के सिद्धांत पर चुनाव लड़ेगी और अन्य राजनीतिक दलों के साथ राज्य स्तर पर सीमित समझौते किए जाएंगे।इसी निर्णय का परिणाम बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी की तीन सीट लेने की शर्त न मानने के रूप में हुआ और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ उसकी मैराथन वार्ता टूट गई। तमिलनाडु में पीएमके के अलग हो जाने से कांग्रेस की हालत खराब ही होगी। एक तरह से देखा जाए, तो 543 सदस्यों की लोकसभा में कांग्रेस केवल 383 सीट पर चुनाव लड़ रही है। उत्तर प्रदेश की 80, बिहार की 40 और तमिलनाडु तथा पुड्डुचेरी की एक सीट मिलाकर कुल 40 सीट पर उसके लिए चुनाव लड़ना, न लड़ना बराबर ही होगा। यह संख्या 160 बनती है, जहां से कांग्रेस पार्टी को बमुश्किल 10 सीट मिल सकती हैं। यह जरूर है कि कांग्रेस इन सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करेगी, लेकिन उम्मीद का दामन उम्मीदवार के हाथ शायद ही आए।कांग्रेस ने सभी 543 सीट पर एक सर्वेक्षण कराया है और पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक उसे अपने तौर पर 150 सीट मिल सकती है। पार्टी को उम्मीद है कि यह आंकड़ा उसे पंद्रहवीं लोकसभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनाने के लिए पर्याप्त होगा, क्योंकि बाकी दलों की स्थिति इससे खराब रहने वाली है। निश्चित रूप से 150 सीट का यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु में उसे अपनी सही स्थिति का अंदाजा कराता है। हालांकि वहां तक पहुंचना भी आसान नहीं है। पार्टी के सर्वेक्षण में उसे सबसे ज्यादा फायदा पश्चिम बंगाल, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा से मिलता दिखाया गया है।दरअसल 29 जनवरी की कार्य समिति की बैठक के बाद संप्रग का बिखराव अचानक बहुत तेज हो गया। जनवरी के अंत तक चट्टान की तरह संप्रग के साथ खड़ा रहने का दावा करने वाले उसके कई सहयोगी दलों में वह प्रतिबद्धता हल्की पड़ने लगी और दो महीने में पांच साल तक सरकार चलाने वाला वह संप्रग टुकड़े-टुकड़े हो गया, जिसे 2004 में संप्रग और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ईंट-ईंट जोड़कर खड़ा किया था। संप्रग को बचाने या उसमें नए दलों को जोड़ने में सोनिया गांधी की तत्परता भी इस बार नजर नहीं आ रही।जनवरी के अंत के संप्रग की तस्वीर मार्च के अंत तक इतनी बदल गई कि उसकी पहचान भी मुश्किल हो गई। कुछ छोटे दलों और समूहों को छोड़ दिया जाए, तो संप्रग से किनारा करने वाले दलों की संख्या उसके साथ टिके रहने वाली पार्टियों से चार गुना ज्यादा है। यह केवल उत्तर या दक्षिण तक सीमित नहीं है, इसका असर चौतरफा हुआ है। संप्रग से हटने या चुनावी जंग में किनाराकशी करने वाले दलों में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, पीडीपी, एमडीएमके, पीएमके और तेलंगाना राष्ट्र समिति शामिल है। निश्चित तौर पर कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना होगा। उसके साथ बचे दलों में मुख्य रूप से केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और डीएमके का नाम लिया जा सकता है।सवाल यह उठता है कि आखिर 29 जनवरी की कार्य समिति की बैठक में संप्रग के बिखराव की आशंका व्यक्त किए जाने के बावजूद पार्टी ने सहयोगी दलों को नाराज करने की हद तक जाकर ऐसा फैसला क्यों किया कि वह अधिकतर सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी। इस निर्णय में 2009 के चुनाव की तात्कालिकता नहीं थी, लेकिन पार्टी ने इसे भविष्य के बारे में सोचते हुए कड़वी दवा की तरह पीने का फैसला किया।कार्य समिति में यह बात भी सामने आई कि कांग्रेस को बचाए रखने के लिए जरूरत होने पर पार्टी को अन्य विकल्पों के साथ विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहना चाहिए। पार्टी ने इसे पराजय की मानसिकता की जगह भविष्य दृष्टि के रूप में देखने की दलील दी। इससे तो यही लगता है कि उसकी नजर 2009 पर नहीं, बल्कि उसके आगे है। लालू यादव ने इस संबंध में टिप्पणी की थी कि पार्टी 2009 का चुनाव नहीं लड़ रही, 2014 की तैयारी कर रही है।एक तरह से देखा जाए, तो शायद गठबंधनों के साथ चुनाव लड़ने और क्षेत्रीय दलों की इनायत पर तीन या पांच सीट लेने पर अगले चुनाव तक कांग्रेस का कम से कम उत्तर भारत से पूरी तरह सफाया हो जाता। पार्टी ने संभवत: इसीलिए जीत से ज्यादा महत्व मौजूदगी को दिया। आजाद भारत के 60 में से लगभग 50 वर्ष सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी के लिए यह फैसला आसान नहीं रहा होगा। लेकिन सच्चाई यही है कि अगर कांग्रेस ने यह निर्णय न किया होता, तो बतौर राष्ट्रीय पार्टी, यह उसका आखिरी चुनाव होता।

Saturday, February 28, 2009

स्लमडॉग पर गिद्धभोज


गिद्ध मानसिकता के नमूने हर जगह देखे जा सकते हैं, खासकर सबसे आगे रहने की होड़ में या इस बात में कि जो कुछ हुआ है, उसका श्रेय कैसे लिया जाए।



मेरे एक उम्रदराज मित्र हैं। मनुष्य की मानसिकता को पशु-पक्षियों की प्रवृत्ति और उनके नैसर्गिक गुणों से जोड़कर देखने की प्राचीन परंपरा के इस समय संभवत: एकमात्र वाहक। लोमड़ी की तरह चालाक, कुत्ते जैसा वफादार, हाथी की तरह मस्त या सांप जैसा जहरीला कह देना उन्हें काफी नहीं लगता। वे भाषाविद हैं और शब्दों के निरंतर अर्थ-विस्तार में उनकी गहरी रुचि है। अपने पुत्र के विवाह के मौके पर उन्होंने निमंत्रण पत्र छपवाया तो कई लोग नाराज हो गए। निमंत्रित होने के बावजूद उन्हें ऐसे समारोह में जाना मंजूर नहीं था, जहां उन्हें गिद्ध कहा जाए। निमंत्रण पत्र में, जहां आमतौर पर प्रतिभोज लिखा होता है, उन्होंने गिद्धभोज छपवा दिया था। उनका तर्क था कि यह बुफे भोजन का निकटतम सही शब्द है क्योंकि लोग अचानक अपनी प्लेट लिए खाने पर टूट पड़ते हैं। उस समय उनका व्यवहार शव पर मंडराते गिद्ध के ज्यादा और बेहद करीब होता है।गिद्ध इस समय खतरे में हैं। उनकी संख्या लगातार घट रही है और पूरी प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर है। वे गांवों में अब कम ही दिखते हैं और शहरों से उनका लगभग सफाया हो गया है। पर गिद्धों को चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि मानसिकता के रूप में आज उनकी उपस्थिति पहले से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में है। और यह सिर्फ भोजन तक सीमित नहीं है। इस गिद्ध मानसिकता के नमूने हर जगह आसानी से देखे जा सकते हैं। खासकर, सबसे आगे रहने की होड़ में। या इस बात में कि जो भी हुआ है, उसका श्रेय कैसे लिया जाए। उन्हें पता है कि वे चूके तो गिद्ध मानसिकता वालों का दूसरा जत्था आगे आ जाएगा और उनके हिस्से एक लोथड़ा भी नहीं आएगा। यह वही मानसिकता है, जिसके तहत विभिन्न राजनीतिक दल महात्मा गांधी से लेकर स्वामी विवेकानंद तक किसी को भी अपना बनाने और हड़पने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। यानी जो भी अपने फायदे में दिखे, अपना लो। लॉस एंजेलीस में सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार समारोह खत्म होने के कुछ ही घंटे के भीतर यही गिद्धभोज फिर दिखाई पड़ा। बात सिर्फ बधाई देने तक होती तो किसी को आपत्ति नहीं होती। मुंबई की झुग्गी बस्ती पर बनी एक ब्रिटिश फिल्म ने आठ आस्कर जीते तो कांग्रेस पार्टी उनका श्रेय लेने में सबसे आगे निकल गई। उसने कहा कि ‘स्लमडॉग मिलियनेयर को ऑस्कर पुरस्कार संप्रग सरकार द्वारा बनाए गए माहौल की वजह से मिला। पार्टी प्रवक्ता ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यह माहौल स्लम के कारण बना या डॉग के कारण। या फिर आर्थिक उदारीकरण की नीति की वजह से बने मिलियनेयर से। आम चुनाव करीब आ रहे हैं तो भी ऐसा बेहूदा दावा समझ से परे है। फिल्म में सरकार की रत्ती भर भी भूमिका रही होती तो बात समझ में आती लेकिन हर अच्छी चीज का श्रेय लेने की यह हड़बड़ी कतई गले से नहीं उतरती बल्कि इससे उबकाई आती है। इस हास्यास्पद दावे को थोड़ा और कीब से देखिए। स्लमडॉग मिलियनेयर एक अच्छी किताब पर बनी निहायत साधारण फिल्म है, जिसका भारत से केवल इतना संबंध है कि कहानी भारतीय है और उसके अधिकतर पात्र भारत के हैं। फिल्म अमेरिकी पैसे से बनी उसका निर्देशन एक और ब्रितानी फिल्मकार ने किया। यानी कि वह भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। स्लमडॉग के पहले यही स्थिति एक बार पहले भी आ चुकी है, जब रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी को आठ ऑस्कर मिले थे। उसमें भी कहानी, उसके मुख्यपात्र और पृष्ठभूमि को छोड़कर कुछ भी भारतीय नहीं था। संयोग से गांधी का श्रेय लेने की ऐसी कोशिश नहीं हुई, जैसी स्लमडॉग के मामले में दिखाई पड़ी।अगर स्लमडॉग को भारतीय फिल्म कहने का तर्क यही है कि इस फिल्म की पूरी शूटिंग भारत में हुई तो इस नजरिए से भारत की तमाम फिल्में अमेरिकी, ब्रिटिश या स्विस हो जाएंगी क्योंकि उनकी पूरी शूटिंग वहां हुई। इनमें से कोई देश ऐसा दावा नहीं करता। दरअसल स्लमडॉग का श्रेय लेने का प्रयास गिद्ध मानसिकता के अलावा पश्चिम की मानसिक गुलामी भी है। अगर पश्चिमी देश किसी चीज को मान्यता देते हुए उसे स्वीकार कर लें तो यह भारत के लिए एक उपलब्धि हो जाता है। विश्व की महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले देश के लिए पश्चिमी मान्यता की भीख की गरज से कटोरा लेकर खड़े होना निंदनीय तो है ही, शर्मनाक भी है और इसका श्रेय लेना पूरी तरह घृणित और अस्वीकार्य। स्लमडॉग पर सिनेमा जगत की प्रतिक्रिया भी अनुचित है पर उसे कुछ हद तक यह मानकर छोड़ा जा सकता है कि वे सपनों के व्यापारी हैं और शुद्ध व्यापार की गरज से ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि इससे भारतीय सिनेमा के लिए हॉलीवुड के दरवाजे खुल जाएंगे। उनकी कमाई बढ़ जाएगी और पहचान भी। राष्ट्रीय सोच के स्तर पर इस स्वार्थ का कोई अर्थ नहीं है। राजनीतिक दलों में इस तरह की होड़ अशोभनीय है। कांग्रेस इस मामले में चुप रहकर या केवल एआर रहमान को बधाई देकर शायद बच जाती पर उसने ऑस्कर को परमाणु करार से जोड़कर स्वयं को हंसी का पात्र बना लिया है। रचनात्मकता और राजनीति दो अलग-अलग धाराएं हैं, जिन्हें अलग ही रहने दिया जाना चाहिए। सिवाय कुछ उन सहायक नदियों के, जो कभी इधर तो कभी उधर मिला करती हैं।

Wednesday, February 18, 2009

तुमने मेरी जिंदगी का खालीपन खुशियों से भर दिया

प्रेम कथा-5

एडविना अपने प्रेम संबंधों को लेकर बहुत खुली हुई थीं और उन्हें गोपनीय रखने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं करती थीं। लेकिन उनका यह व्यवहार अपने पति डिकी माउंटबेटन के मामले में बिलकुल भिन्न था। एडविना को यह कतई मंजूर नहीं था कि कोई दूसरी महिला डिकी की जिंदगी में आए। डिकी ने अपनी पुरानी मित्र योला को दिल्ली आमंत्रित किया तो ऊपरी तौर पर दोस्ताना अंदाज निभाते हुए एडविना ने पूरी कोशिश की कि योला जल्दी से जल्दी लंदन लौट जाए। उन्होंने एक यात्रा निर्धारित की और योला को लेकर घूमने चली गईं ताकि वह माउंटबेटन के साथ न रह पाएं। इतना ही नहीं, एडविना ने डिकी से हामी भरवाई कि उनके निधन के बाद भी वह योला से शादी नहीं करेंगे। एडविना के प्रेम संबंधों की सूची बहुत लंबी है, जिनमें से एक उस दौरान दिल्ली में थे। फील्ड मार्शल क्लॉड ऑकिनलेक। लेकिन नेहरू इन सब से भिन्न थे और पहली मुलाकात के बाद से वह लगातार एडविना की जिंदगी में महत्वपूर्ण बने रहे। अपने कार्यालय में बैठे नेहरू को एक दिन एडविना की चिट्ठी मिली। वर्ष 1957 में एडविना ने लिखा, ‘‘दस साल.. दस साल हो गए। यह दस साल कितने महत्वपूर्ण हैं। इतिहास के लिए और हमारी निजी जिंदगियों के लिए। नेहरू ने जवाब लिखा, ‘‘सचमुच.. दस साल। नेहरू और एडविना की संभवत: आखिरी मुलाकात 1960 में हुई। तब नेहरू सत्तर साल के थे और एडविना अट्ठावन की। 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस की परेड में दोनों अगल-बगल खड़े थे। शाम को राष्ट्रपति भवन में चाय पर उनकी फिर मुलाकात हुई। एडविना की तबीयत ठीक नहीं रहती थी लेकिन नेहरू के साथ की वजह से उनका चेहरा दमकने लगता था। मैरी सेटन कहती हैं, ‘‘साथ-साथ खड़े नेहरू और एडविना कितने युवा लगते हैं।एडविना डिकी माउंटबेटन को अपना ‘पोस्टर ब्वॉय और नेहरू को ‘प्रेरणा कहा करती थीं। माउंटबेटन और नेहरू के बीच बातचीत और खतो-किताबत का दो-तिहाई हिस्सा एडविना के बारे में होता था। डिकी ने लिखा, ‘‘एडविना की तबीयत ठीक नहीं है और तुम्हें भी आराम की जरूरत है। कुछ दिन के लिए लंदन आ जाओ। एडविना तुम्हारा इंतजार कर रही हैं। नेहरू ने एक चिट्ठी एडविना को लिखी और एक डिकी को। उन्होंने डिकी को लिखा, ‘‘बहुत काम है और वक्त बहुत कम। लेकिन मैं आऊंगा। जब नेहरू लंदन में होते थे तो माउंटबेटन दूसरे घर में चले जाते थे ताकि एडविना और नेहरू कुछ समय साथ गुजार सकें। एडविना का दिल्ली और नेहरू का लंदन आना-जाना इतना विवादास्पद हो गया था कि ब्रिटेन की महारानी को इस मामले में खुद हस्तक्षेप करना पड़ा। किसी भी प्रेम कथा की तरह एडविना और नेहरू की प्रेम कहानी में बहुत कुछ अनकहा, अनसुना, अनलिखा रह गया। नेहरू को इसका मलाल था, ‘‘इतना कुछ कहना चाहता हूं पर शब्द साथ नहीं देते। एडविना ने लिखा, ‘‘तुमने मेरी जिंदगी का खालीपन खुशियों से भर दिया। उम्मीद है कि तुम्हारी जिंदगी में मेरा दखल भी इसी तरह का होगा।समाप्त

Monday, February 16, 2009

तुम्हें अंदाजा नहीं है कि तुम्हारी चिट्ठियों का मेरे लिए क्या मतलब है

प्रेम कथा-३

माउंटबेटन ने एडविना-नेहरू प्रेम कथा को कभी रोकने की कोशिश नहीं की बल्कि अपनी बेटी पेट्रीशिया को एक पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी। उन्होंने लिखा, ‘यह बात तुम अपने तक ही रखना लेकिन एडविना और नेहरू साथ-साथ बहुत अच्छे लगते हैं। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। एडविना और नेहरू की कुंभ मेले के दौरान खींची गई एक तस्वीर के नीचे माउंटबेटन ने अपने हाथ से लिखा, ‘परिवार के साथ इलाहाबाद में।
डिकी माउंटबेटन, एडविना, उनकी बेटी पामेला और नेहरू एक बार कार से मशोबरा गए। मशोबरा की पहाड़ियों में एडविना और नेहरू शाम को घूमने निकल जाते थे, डिकी जान-बूझकर कमरे में रहते थे। हर सुबह यहीं दोनों बागीचे में बैठकर चाय पीते और दिन में कार से आसपास के इलाकों में जाते। पामेला ने एक बार एक पत्रकार से कहा, ‘मुझसे पूछा गया है कि क्या मेरी मां एडविना और नेहरू के बीच प्रेम था? मेरा जवाब है-हां।
1948 में डिकी माउंटबेटन और एडविना लंदन लौट गए। इस दूरी के बावजूद नेहरू और एडविना का प्रेम कम नहीं हुआ। शुरू में एडविना और नेहरू हर रोज चिट्ठी लिखते थे, फिर हर हफ्ते और बाद में हर पखवाड़े। समय बीतने के बावजूद इन पत्रों की गंभीरता और गहराई कम नहीं हुई। नेहरू पर प्रधानमंत्री बनने के बाद काम का बोझ बढ़ गया था लेकिन एडविना के पत्र तनाव के बीच उन्हें राहत देते थे। इस दौरान एडविना हर साल दिल्ली आती थीं और कई-कई हफ्ते रहती थीं। इसका असर भारतीय राजनीति पर भी पड़ने लगा था और टीका-टिप्पणी होने लगी थी। मामला इस हद तक आगे बढ़ा कि 1953 में नेहरू को संसद में एडविना का बचाव करना पड़ा। विरोधी राजनीतिक दलों ने उनके संबंधों के बारे में उनसे सीधा सवाल पूछा था, जिसपर नेहरू ने कहा, ‘यह छोटे दिमाग की बकवास है।
अप्रैल 1958 में नेहरू ने अचानक सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर निजी जीवन बिताना चाहते हैं। उन्होंने कहा, ‘यह सब कितना उबाऊ और सतही है।
एडविना को खबर मिली तो उन्होंने लिखा, ‘तुम्हें आराम की जरूरत है। छुट्टी लेकर पहाड़ों पर चले जाओ। मुझे बताओ कि मैं तुम्हें खत लिखती रहूं या नहीं? अगर तुम नहीं कहोगे तो भी मैं तुम्हारी बात समझूंगी।
नेहरू ने लिखा, ‘तुम्हें क्या लगता है कि महीनों गुजर जाएं और तुम्हारी चिट्ठी न आए, तो मुझे कैसा लगेगा? तुम्हें अंदाजा नहीं है कि तुम्हारी चिट्ठियों का मेरे लिए क्या मतलब है।
नेहरू की एक दोस्त मैरी सेटन का मानना था कि नेहरू को एडविना की जितनी जरूरत थी उससे ज्यादा एडविना को नेहरू की। एडविना हमेशा नेहरू के आसपास रहने की कोशिश करती थीं। चाहती थीं कि नेहरू का एक भी शब्द हवा में गुम न हो जाए। नेहरू ने अपने एक खत में एडविना को लिखा, ‘मैं तुम्हारी चिट्ठियां इतनी बार पढ़ता हूं कि मुझे लगता है कि यह एक प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता। लेकिन तुम जानती हो कि घटनाक्रम और संयोग ने मुझे प्रधानमंत्री बना दिया।
जारी..

Sunday, February 15, 2009

डिकी आज रात बाहर रहेगा, तुम दस बजे के बाद आना

  • पार्ट टू


नेहरू और एडविना की मुलाकात 1922 में ही हो गई होती लेकिन आजादी की लड़ाई और पिता मोतीलाल नेहरू के स्वभाव की वजह से यह संभव नहीं हुआ। एडविना माउंटबेटन से मिलने पानी के जहाज से लंदन से मुंबई पहुंचीं, जहां से उन्हें दिल्ली आना था, लेकिन तब तक प्रिंस ऑफ वेल्स का काफिला और माउंटबेटन इलाहाबाद पहुंच गए। इलाहाबाद के जिलाधीश ने मोतीलाल नेहरू से प्रिंस ऑफ वेल्स को अपने घर आनंद भवन में ठहराने का आग्रह किया पर उन्होंने इनकार कर दिया। उल्टे इस यात्रा का भारी विरोध रोकने के लिए मोतीलाल और उनके बेटे जवाहर को गिरफ्तार कर लिया गया। जवाहर की उम्र उस समय 32 साल थी। जाहिर है एडविना को इस पूरे घटनाक्रम की कोई जानकारी नहीं थी और 1946 तक नहीं हुई। 1946 में नेहरू माउंटबेटन के निमंत्रण पर मलाया पहुंचे और वहीं पहली बार एडविना से मिले। एक जलसे के दौरान अचानक भीड़ बढ़ने और अवरोध टूटने से भगदड़ मच गई। माउंटबेटन और नेहरू ने हाथ से हाथ मिलाकर एडविना को घेरे में ले लिया और उन्हें बचाकर बाहर निकाला। आजादी के संघर्ष और संभावित विभाजन के तनाव के बीच 1947 में फील्ड मार्शल क्लॉड ऑकिनलेक के निजी सचिव शाहिद हमीद ने अपनी डायरी में लिखा, ‘एडविना और नेहरू इतना करीब आ गए थे कि लोगों को आपत्ति होने लगी थी। इसी दौरान जिन्ना के मित्र और बलूच नेता याहिया बख्तियार ने कहा, ‘नेहरू और एडविना के बीच प्रेम परवान चढ़ चुका था। इसी दौरान एसएस पीरजादा भी दिल्ली में थे, जो बाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने। उनके मुताबिक, एडविना के प्रेमपत्रों का एक पुलिंदा जिन्ना के पास पहुंच गया। जिन्ना ने चिट्ठियां पढ़ीं और करीबी लोगों के साथ सलाह-मशविरे के बाद उन्हें एडविना को लौटा दिया। हालांकि इससे उनके मन में यह बात घर कर गई कि माउंटबेटन वही करेंगे जो एडविना चाहेंगी और वो नेहरू के खिलाफ नहीं जाएंगे। इन चिट्ठियों में एक में लिखा था, ‘डिकी माउंटबेटन आज रात बाहर रहेगा, तुम दस बजे के बाद आ जाना। एक और चिट्ठी, ‘तुम अपना रुमाल भूल गए थे। डिकी की नजर पड़ती, इससे पहले मैंने उसे छिपा दिया।एक और चिट्ठी में लिखा था, ‘मुझे सबकुछ याद है। शिमला यात्रा, मशोबरा की पहाड़ियां, घुड़सवारी और तुम्हारा स्पर्श। दरअसल, 1947 में माउंटबेटन वायसराय बनकर भारत आए और एडविना को अचानक जैसे जिंदगी का एक और मकसद मिल गया। माउंटबेटन के साथ एडविना के संबंध कभी सहज नहीं रहे और उनकी जिंदगी में कई बार तलाक की नौबत आई, जिसके पीछे एडविना के एक से ज्यादा प्रेम प्रसंग भी थे। हर प्रसंग के बारे में माउंटबेटन को मालूम था लेकिन एडविना की खुशी और अपनी शादी बचाए रखने की इच्छा से उन्होंने इसे नहीं रोका।

Saturday, February 14, 2009

एक आग का दरिया है और डूब के जाना है


जिंदगी नीरस और उदास हो गई है। सब सूना-सूना लगता है। महसूस होता है कि जो कुछ आसपास है, सब बनावटी है, फर्जी है। काश तुम यहां होते।

मुझे अब भी हवा में तुम्हारी खुशबू का अहसास होता है। मैं तुम्हारे खत बार-बार पढ़ता हूं और सपनों की दुनिया में खो जाता हूं।

ये दोनों खत 1948 में लिखे गए थे। पहला खत लेडी एडविना माउंटबेटन ने दिल्ली छोड़कर लंदन लौटने पर लिखा था और दूसरा भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने। नेहरू और एडविना के बीच प्रेम किस्से-कहानियों की तरह हमेशा हमारे बीच रहा है। लेकिन उनमें कितनी निकटता थी और उनके प्रेमपत्र कैसे होते थे, यह पहली बार सामने आया है। आजादी की लड़ाई के दौरान पनपी और अगले अट्ठारह साल तक चली इस प्रेमकथा ने न केवल दो जिंदगियां बदलीं बल्कि दो मुल्कों का इतिहास बदल दिया। निश्चित रूप से उनके प्रेमपत्रों से लिए गए उपरोक्त अंश प्रेमपत्रों के भारी पुलिंदे की एक झलक भर हैं और अभी बहुत कुछ आना बाकी है। नेहरू और एडविना के पत्र दो परिवारों की निजी संपत्ति हैं और उन्होंने बहुत निजी पत्रों को फिलहाल सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया है। इतिहासकार एलेक्स वॉन तुंजलमान के मुताबिक उन्होंने माउंटबेटन और नेहरू गांधी परिवार से इन पत्रों को देखने देने का बार-बार आग्रह किया, पर दोनों परिवारों ने बहुत शालीन ढंग से इससे इनकार कर दिया। मृत्यु से पहले अपने पत्र लॉर्ड माउंटबेटन को हिफाजत से रखने के लिए भेजते हुए एडविना ने लिखा, ‘‘एक तरह से देखो तो इन्हें प्रेमपत्र कहा जा सकता है। तुम्हें महसूस होगा कि हमारा अजीबोगरीब रिश्ता दरअसल भावनात्मक था। लेकिन मेरी जिंदगी में इसकी अहम जगह है। इन्हें पढ़कर तुम्हें लगेगा कि मैं उन्हें (नेहरू) और वह मुझे कितनी अच्छी तरह समझते थे। एडविना अपने समय में दुनिया की सबसे अमीर महिलाओं में से एक थीं, जिनसे माउंटबेटन की मुलाकात अक्टूबर 1920 में हुई थी। अगले साल माउंटबेटन ने लंदन के उमर खय्याम कैफे में उनसे पहली बार प्रेम का इजहार किया, हालांकि उन्होंने शादी के लिए औपचारिक अनुरोध 1922 में वेलेंटाइन डे के दिन 14 फरवरी को नई दिल्ली में वाइस रीगल लॉज में नृत्य के दौरान किया। एडविना खासतौर पर माउंटबेटन से मिलने लंदन से दिल्ली आई थीं और दोनों की मुलाकात पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई। उस समय माउंटबेटन प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ भारत के दौरे पर थे। नेहरू के साथ एडविना के गंभीर प्रेम प्रसंग की शुरुआत मई 1947 में हुई थी। हालांकि इसके पहले दोनों काफी निकट आ चुके थे। एडविना इन संबंधों की सीमाएं जानती थीं। उन्होंने नेहरू को लिखा, ‘‘डिकी माउंटबेटन और तुम अपनी किस्मत से आगे नहीं जा सकते, जैसे कि मैं अपनी किस्मत के दायरे में हूं।