Monday, November 3, 2008

हे महर्षि कुंबले


फिरकी बाबा। असली संन्यासी। न जटा-जूट। न लंबी दाढ़ी। चोंगा-बाना भी गायब। हाथ में एक लाल गोला। कभी-कभी सफेद। गोला रखते तो किताब उठा लेते। किताब रखते तो कैमरा। बिल्कुल बेदाग। किसी चीज का गुमान नहीं। हाथी की तरह मस्त चाल। लोग जंबो बाबा कहने वगे। विनम्र। नपी तुली भाषा। भद्र व्यवहार। दुनिया भर घूमे। चमत्कार करते। सबने देखा। अट्ठारह साल तक। फिर उसने लाल गोला अलग रख दिया। कहा-अब बस। ऐसा संन्यासी। उसे संन्यास लेने की क्या जरूरत। ऋषि से कौन पूछे। हे महर्षि कुंबले। हम कृतग्य हैं कि आप इतने दिन साथ रहे।

Sunday, November 2, 2008

जीत सबकी होती है


जिसे जीतना है वह जीत ही जाता है। विजेता, विजेता होता है। वही दिखता है। क्योंकि जीत किसी खेल, संघर्ष या देश तक सीमित नहीं होती। सबकी होती है। यह जीत का व्याकरण है। कठिन है, पर बहुत नहीं। उदाहरण हर तरफ मौजूद। नाम जो भी हो। रूप-रंग बेमानी। पता-ठिकाना बेमतलब। मससन ओबामा। बराक ओबामा। बराक भी अपभ्रंश। शायद। मुबारक से बना। और अश्वेत। अमेरिकी इतिहास में पहली बार। वह आगे। बाकी पीछे। हांफते-डांफते। धीरे-धीरे गायब होते। नतीजा बाद में आएगा। लेकिन आगे की कहानी विजेता की होगी। हमेशा की तरह।

Saturday, November 1, 2008

असली हीरो विश्वनाथन

शतरंज की बिसात। चौसठ खानों का खेल। सब लगे रहते हैं। कि चारों खाने चित कर दें। अपने प्रतिद्वंद्वी को। शह और उसी के साथ मात। असली हीरो विश्वनाथन आनंद। विश्व चैम्पियन। क्रैमनिक को मात दी। पर खिलाड़ी तो और भी हैं। बल्कि सभी। छोटे-बड़े। प्यादे से फर्जी होने के चक्कर में। टेढ़ो-टेढ़ो जाय। कब उलट दें बाजी। ताज उनके सिर आ जाए। जिंदगी मे हर तरफ। राजनीति में कुछ ज्यादा। चुनाव सिर पर हैं। सब अपनी गोटियां बिठाने में। सब दांव पर है। विधायकी, सांसदी, पद। पर टिकट तो मिले।