Saturday, February 20, 2010

कूटनीति में यही होता है

मुलाकातें हमेशा अर्थवान। अपने ही अंदाज में। साधारण से लेकर असाधारण तक। कभी नाते-रिश्तेदार। दोस्त अहबाब। मेले में बिछड़े दो भाई। या कोई स्वार्थ। सौदा। फायदा। कभी-कभी दो धुरंधर। जसे शांति के नोबल पुरस्कार विजेता। दिक्कत अर्थ में है। मुलाकात में नहीं। अर्थ हो सकते हैं एक से ज्यादा। इसीलिए। देखने का नजरिया अलग। उसी से बदलता मानी। वरना हर्ज क्या था। दलाई लामा और ओबामा। एक साथ। ह्लाइट हाउस में। तिब्बती खुश थे। खुशी के आंसू। चीन नाराज। बेतरह। यह मुलाकात उसके लिए हस्तक्षेप। कूटनीति में यही होता है। बहुअर्थी।

Friday, February 12, 2010

हे भोले भंडारी! गौरापति


हे भोले भंडारी! गौरापति। गंगाधर। देवाधिदेव। महादेव। यह तो तुम ही हो। अजब-गजब। सामान्य समझ से परे। तीनों काल हिल जाते हैं। तुम्हारे डमरू से। अतीत, भविष्य और वर्तमान। गूंजती है। वही ध्वनि। विभिन्न अर्थो के साथ। गोपेश्वर की तरह। गोपियों की लीला में। नीलकंठ बनकर। हलाहल पीते। ताकि सिर्फ अमृत रहे बचा। सबके लिए। विवाह मंडप में। धरती से कैलाश तक। हर रूप विलक्षण। कल्याणकारी। जो भी है सत पथ अनुगामी। यह दिन तुम्हारा। रात्रि भी। बल्कि समस्त चराचर। कृपा बनाए रखना। आज और हमेशा। हम पर। और सब पर। जो हमारे साथ हैं।

Tuesday, February 9, 2010

बेरहम और निहायत खतरनाक, वही बर्फ


प्रकृति का अपना नियम-कानून। उसकी हर छटा। हर अदा। तस्वीर सी। समंदर से लेकर पहाड़ तक। लेकिन जो सुंदर है। स्निग्ध, सौम्य और शांत। वही हो सकता है जानलेवा। बेरहम और निहायत खतरनाक। वही बर्फ। सफेद चादर सी। रुई के फाहों सी हल्की। इंतजार करते हैं सब। कि खेल सकें। प्रकृति की देन मानकर। नाराज हो प्रकृति। गुस्सा आए उसे। जसे हिमस्खलन। खिलनमर्ग से आगे। दरक गया पहाड़। आ गिरा नीचे। धड़ाम से। तब क्या करें। सिवाय प्रार्थना के। हे वसुधा! बनाए रखना कृपा हम पर। तुम तो मां हो। ऐसी सजा मत दो। अपनी संतानों को।

Saturday, February 6, 2010

लोग ऐसे ही जुड़ते हैं, गीदड़भभकियों के खिलाफ


रेल ने बहुत कुछ बदला। शक्ल बदल दी हिंदुस्तान की। जोड़ दिया उसे एक तार से। यहीं चली थी पहली रेलगाड़ी। मुंबई से ठाणे। आजादी भी जुड़ी रही रेल से। दक्षिण अफ्रीका। पीटरमारित्जबर्ग स्टेशन। धक्का देकर उतारे गए महात्मा गांधी। और बदल गई उनकी दुनिया। घूमते रहे। तीसरे दज्रे के डिब्बे में। लोग जुड़ते गए। कि ब्रितानी साम्राज्य का शेर गीदड़ बन गया। और अब राहुल। लोकल में। लाइन में लगकर टिकट खरीदते। इंतजार करते। लोगों से बतियाते। अंधेरी से दादर। दादर से घाटकोपर। जरूरी था। क्योंकि लोग ऐसे ही जुड़ते हैं। गीदड़भभकियों के खिलाफ।

Friday, February 5, 2010

यह रुख पसंद आया, तुम्हारी सारी फिल्मों से ज्यादा


वे शाहरुख हैं। नाम से। माहरुख होते तो बदल जाते। चांद की तरह। शाहरुख हैं इसलिए डटे हुए हैं। यही उनका रुख है। अच्छा है। सिनेमा से इतर। इंसान की तरह। नागरिक के रूप में। शिवसेना ने धमकी दी। कला और बोलने की आजादी के खिलाफ। कहा माफी मांगो। वह टस से मस नहीं हुए। न बदले। न झुके। धमकियों के आगे। पर माफी मांग ली। लोगों से। अपने साथियों से। कि उनके रुख से असर होगा फिल्म पर। अब जो होना हो, हो। डटे रहो शाहरुख। यह रुख पसंद आया। तुम्हारी सारी फिल्मों से ज्यादा.
saabhar ; aajsamaj

Tuesday, February 2, 2010

संगीत की सरहदें नहीं होतीं


संगीत की सरहदें नहीं होतीं। दायरे नहीं होते। वह हर जगह मौजूद। दरीचे खोलता। पूरब से पश्चिम तक। हर विधा में। एक जसे ही होते हैं। उसको सराहने वाले। शास्त्रीय या सिनेमाई। कभी विलंबित। कभी द्रुत। पार कर जाते हैं सुर। सारी बाधाएं। उतरते दिल की गहराइयों में। सिर चढ़कर बोलता जादू। कि मुंह से निकल जाता है। बेसाख्ता। जय हो। साधु! साधु! पहले ऑस्कर। फिर गोल्डन ग्लोब। अब ग्रैमी। संगीत का नोबेल। रुहानी रहमानी संगीत। एक छोटी सी हंसी। और बयान। यह दीवाना बना देने वाली खुशी। मेहरबान हुआ है ऊपर वाला। तीसरी बार।
साभार आज समाज

फिर पूरा बदल गया अंग्रेज!

सैमुअल फुट ने जब 1732 में ‘द नवाब' नाटक लिखा तब तक अंग्रेज भारत में व्यापारी था और यहीं के तौर-तरीकों में रचने-बसने के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता था। चोंगा-साफा पहने दरबारों में वह जाता। नाच गर्ल्स के कोठों पर जाता। बख्शीश देता-लेता। स्थानीय जनों के बीच वह ‘बाहरी' नहीं दिखना चाहता था। ‘द नवाब' के मंचन के बाद इसका भारत में बसे अंग्रेजों ने विरोध किया। अखबारों में बहस हुई। ब्रिटेन में काफी दिनों तक इस पर चर्चा चली। फुट ने यही दर्शाया था कि भारत गए अंग्रेज अंग्रेज नहीं रहे, वे नवाब हो गए हैं। दिलचस्प यह है कि इसके बाद अंग्रेजों के चित्र अंग्रेजी वेशभूषा वाले ही मिलते हैं। क्या ‘द नवाब' के बाद उपजे विवाद के कारण बदलाव का फैसला लिया गया! क्योंकि फिर अंग्रेज बदल गया। उसे नवाब या सामंत की कृपा की दरकार नहीं रही। तो क्या ‘द नवाब' ने पूरी प्रक्रिया बदल दी! घुलने-मिलने वाला अंग्रेज अब अलग-थलग रहने लगा। निश्चित ही इस सबके पीछे अकेली यह किताब नहीं और भी कारण होंगे लेकिन ‘द नवाब' एक स्पष्ट विभाजक रेखा तो बनाती दिखती है।

मधुकर उपाध्याय
अंग्रेजों को भारत आए करीब एक सौ साल होने वाले थे। उस समय तक उनके साम्राज्यवादी विस्तार के इरादे बहुत स्पष्ट नहीं थे और लगभग सारा जोर व्यापार पर था। अठारहवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में ऐसे दृश्य आम थे जब अंग्रेज व्यापारी या व्यापारियों के मुखिया चोंगा पहनकर और साफा बांधकर नवाबों के दरबार में व्यापार की अनुमति लेने जाया करते थे। ऐसी कई तस्वीरें हैं जिनमें अंग्रेज व्यापारियों के हाथ में बख्शीश की थाली दिखाई गई है। उनकी पूरी कोशिश यही दिखाने की होती थी, कि वे स्थानीय व्यापारियों से भिन्न नहीं हैं। सामंतवादी और नवाबी व्यवस्था में चलन ऐसा ही था-चाहे वह सूरत हो, कालीकट या कोलकाता।
कोलकाता में हुगली नदी के तट पर बंधी व्यापारियों की नावों के कई चित्र कोलकाता के राष्ट्रीय संग्रहालय में हैं। उसी में एक चित्र जॉब चारनाक का भी है, जिसे कोलकाता का संस्थापक माना जाता है। वह चित्र अपने आप में खासा दिलचस्प है। जॉब चारनाक हुगली के तट पर रस्सी से बुनी एक खटिया पर बैठकर हुक्का पी रहा है। यह एक आम दृश्य रहा होगा और गांवों में आज तक है, जहां चौपाल पर या पेड़ के नीचे हुक्के के पास लोग इकट्ठा होते हैं। चारनाक के इस स्वरूप को चित्रित करने के पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा, यह नहीं मालूम लेकिन यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि इसे प्रचारित करना और इसे स्थानीय किस्से-कहानियों में शामिल करने का मंतव्य यह दिखाना था कि ये ‘बाहरी व्यक्ति' स्थानीय आम लोगों से अलग नहीं हैं। पोशाक में परिवर्तन पहले ही आ चुका था भले उसका इरादा सिर्फ नवाबों से व्यापार की अनुमति लेना रहा हो। उस काल के अन्य विवरणों से यह भी पता चलता है कि अंग्रेजों का खानपान काफी बदल गया था। बाजार के दबाव का ऐसा प्रभाव भारत ने पहली बार देखा और महसूस किया था, हालांकि वह इसके पूरे प्रभाव से शायद अनभिज्ञ था। किसी भी सभ्य और विकसित समाज की तरह तत्कालीन भारतीय समाज में भी विकृतियां थीं। समाज के साथ घुलने-मिलने के लिए इन विकृतियों को भी स्वीकार करना अंग्रेजों यानी कि अंग्रेज व्यापारियों को जरूरी लगता था। उनका मुकाबला उस दौर में भारतीय व्यापारियों की तुलना में अन्य यूरोपीय व्यापारियों से ज्यादा था जो उनसे पहले भारत आ चुके थे और कुछ इलाकों में बेहद मजबूती के साथ अपने पांव जमा चुके थे। इसके उल्लेख तत्कालीन रचनाओं में मिलते हैं कि ‘नाच गर्ल्स' और कोठे पर जाना फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच व्यापारी करते थे और अंग्रेजों को दूसरा कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था, क्योंकि उनके आदर्श उनके पूर्ववर्ती व्यापारी ही थे। चूंकि उनका सारा व्यापार और लगभग पूरी व्यापारिक गतिविधि समुद्र केन्द्रित थी इसलिए उनके प्रमुख केन्द्र समुद्र तट पर ही बने।

यूरोप ने सबसे पहले भारत को समुद्र तट से ही देखा था। और देखकर अभिभूत हुआ था। एक सहज, समन्वित समाज उनके आकर्षण का केन्द्र बन गया और उसने उन्हें ठीक उसी तरह अपने मोहपाश में जकड़ लिया जिस तरह शताब्दियों पहले तुर्को और मुगलों के साथ हुआ था। यह और बात है तुर्को और मुगलों ने भारत को समुद्रतट से नहीं बल्कि खैबर दर्रा की ऊंचाइयों से देखा था। बाहर से आए लोगों के बीच यह फर्क बहुत बड़ा था और अंत तक कायम रहा। एक तरह से कहें तो यह वही फर्क था जिसने अंतत: उनकी सोच को प्रभावित किया और यूरोपीय तथा खबर पार करके आए लोगों के बीच एक मौलिक विभेद पैदा कर दिया। इस अंतर की शुरुआत कब और कहां से हुई, यह एक बहुत बड़ा और लगभग अनुत्तरित प्रश्न है। अंग्रेज और उनके पहले के यूरोपीय व्यापारियों ने जिस तरह भारत में अपने पांव पसारने की शुरुआत की थी, वह तुर्को और मुगलों से इस अर्थ में भिन्न थी कि वे आक्रमणकारियों की तरह नहीं आए थे। बाद में यूरोपीय व्यापारियों और मुगलों तथा तुर्को ने यह समझ लिया कि भारत में कुछ भी भारत के ढंग से ही किया जा सकता है। उस समय तलवार का जोर और व्यापार का दबाव छोड़ने पर उन्हें काफी हद तक विवश होना पड़ा। मुगलों और तुर्को के सामने साम्राज्य की स्थापना और उसके विस्तार के दबाव में आई यह सोच काफी सीमा तक कामयाब रही, हालांकि उनके सामने इसका कोई उदाहरण नहीं था।

लड़ना और व्यापार करना तथा सत्ता कायम करना दो सर्वथा अलग चीजें हैं। तलवार का जोर सिर्फ व्यापारिक बुद्धि सत्ता कायम करने का आधार नहीं बन सकती। यह भी समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि तलवार लेकर लूट के इरादे से भारत में घुसे लोग यहां के कैसे हो गए और व्यापार तथा व्यापारिक बाने में लूट करने आए लोग अंतत: इतने क्रूर, हिंसक और आततायी कैसे बने? अंग्रेजों ने इस पूरी अवधि में अपने निजी विवरण लिखे जो इतिहास के प्राथमिक स्रोत माने जा सकते हैं। इस दौरान काफी साहित्य भी रचा गया जिनमें से कई रचनाओं का सीधा संबंध भारत से है। इसी में एक नाटक ‘द नवाबज् शामिल है। सैमुअल फुट ने यह नाटक तत्कालीन भारत और उसमें अंग्रेजों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद 1732 में लिखा था, जिसका दो साल बाद लंदन में मंचन हुआ। साहित्यिक रूप से इस नाटक को शायद दस में से दो अंक भी न मिलें लेकिन इतिहास के रूप में इसका महत्व काफी है।

‘द नवाब' के मंचन के बाद भारत में बसे अंग्रेजों ने इसका कड़ा विरोध किया और सैमुअल फुट को कई बार जान बचाकर भागना पड़ा। इन घटनाओं को स्थानीय समाचार पत्रों में भी जगह मिली और भारत गए अंग्रेजों के संबंधियों ने इस बारे में काफी खतोकिताबत की। यह चर्चा पूरे ब्रिटेन में एक लम्बे अर्से तक बनी रही। सैमुअल फुट ने ‘द नवाब' में मोटे तौर पर तीन टिप्पणियां की थीं। यह कि भारत गए अंग्रेज व्यापारी अपनी अंग्रेजियत खो बैठे हैं, यह कि वे ‘नाच गर्ल्स' के यहां जाते हैं और यह कि बख्शीश देते और लेते हैं। इसी नाटक में उन्होंने यह भी कहा था कि अंग्रेज कुल मिलाकर खुद नवाबों की तरह व्यवहार करने लगे हैं और नवाब बन गए हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि सैमुअल फुट भारत कब और क्यों आए थे और यहां से लौटकर क्यों गए। यह हो सकता है कि वह स्वयं व्यापार के इरादे से आए हों उसमें विफल रहे हों और इस रचना के मूल में व्यक्तिगत क्षोभ रहा हो, लेकिन उनके नाटक पर जितनी उग्र प्रतिक्रियाएं हुईं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि वास्तव में स्थितियां कमोबेश वैसी ही रही होंगी, जसा उन्होंने बयान किया था।

यह पूरा घटनाक्रम कोलकाता में फोर्ट विलियम की स्थापना और प्लासी के युद्ध से पहले का है इसलिए इन दोनों में से किसी एक को अंग्रेज मानसिकता और सोच में परिवर्तन का कारण मानना उचित नहीं होगा। अंग्रेजों की अंग्रेजियत के ह्लास पर एक लंबी बहस फोर्ट विलियम की स्थापना के युद्ध के बीस साल पूर्व ही हो चुकी थी और इस बहस का आधार बना था ‘न नवाब'। यह कहा जा सकता है कि ‘द नवाब' एक विभाजक रेखा है, जिससे पहले और जिसके बाद भारत में अंग्रेजों के दो सर्वथा भिन्न रूप दिखाई देते हैं। इस रेखा के एक तरफ वे अंग्रेज हैं, जो तुर्को या मुगलों की तरह स्थानीय जन-मन में रचने-बसने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी तरफ वे जिन्होंने खुद को अलग-थलग करके अपने को स्थानीय लोगों से बेहतर बताने और दिखाने की कोशिश की।

यह महज एक संयोग भी हो सकता है कि इस नाटक के बाद से चोंगा और साफा पहने या हुक्का पीते या फिर चौपाल में बैठे किसी अंग्रेज का कोई चित्र नहीं मिलता। उसके बाद के चित्रों में अंग्रेज ढेर सारे बटन वाले चमकदार कपड़ों में घोड़े की पीठ पर सवार दिखाई देता है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ‘द नवाब' के मंचन और उससे उपजे विवाद के बाद इस तरह का कोई फैसला लिया गया हो लेकिन आसपास के साक्ष्य लगभग इसी तरफ इशारा करते हैं। प्लासी के युद्ध के बाद तो यह पूरी तरह साफ हो जाता है कि अंग्रेज अपने को सिर्फ व्यापारी नहीं समझता, जिसे किसी नवाब या सामंत की कृपा की दरकार हो।

इस पूरे संदर्भ को इस रूप में देखा जा सकता है कि ‘द नवाब' ने पूरी प्रक्रिया ही बदल दी। अंग्रेजों ने, जो उस समय तक भारतीय समाज में घुलने-मिलने की कोशिश में लगे थे, अलग-थलग रहना शुरू कर दिया। यानी कि ‘एसिमिलेशन को एलियनेशन' में बदल दिया। यह अगर इसी तरह हुआ तो कहा जा सकता है कि आधुनिक इतिहास की यह एक अकेली घटना है, जहां कागज के चंद पन्नों ने इतिहास पलट दिया। इसे तुलसीदास के रामचरित मानस और कार्ल मार्क्‍स के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' से अलग करके देखना होगा, क्योंकि इसमें धर्म का या विचारधारा का सहारा नहीं लिया गया था। यह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि इतिहास की धारा बदलने में प्रेरक बने ये पन्ने दोयम दज्रे की साहित्यिक रचना ही माने जा सकते हैं। लेकिन इस पूरे परिवर्तन में सिर्फ किताब की ही भूमिका थी, यह मानना भी गलत होगा।

Monday, February 1, 2010

रविवार था टेनिस का दिन

रविवार था टेनिस का दिन। दो मुकाबले जानदार। फेडरर और मरे। दूसरे में। हमारे अपने। लिएंडर पेस। हर खेल में होता यही। किसी की पूरी होती मुराद। किसी का टूटता दिल। मरे के साथ। इंग्लैंड का भी। दिल ही नहीं। टूटा सपना। ग्रैंड स्लैम का। चौहत्तर साल पुराना। फेडरर का जारी रहा। तूफानी विजय अभियान। जीते आस्ट्रेलियाई ओपन। एक अंतराल के बाद। पेस ने भी किया कमाल। खेले जबर्दस्त। जोड़ीदार कारा ब्लैक से भी। रहे बीस। पाया मिश्रित युगल खिताब। ग्रैंड स्लैम की गिनती में। अब पेस-भूपति। दोनों ग्यारह!