Friday, August 20, 2010

अथ पीपली कथा


आमिर खान सिनेमा जगत की एक बड़ी हस्ती हैं। अपनी दुनिया में लासानी। उनकी पहचान कम, लेकिन सोच-समझकर फिल्में बनाने वाले किरदार के रूप में होती है। संभवत: अभिनय से अधिक ध्यान विषय वस्तु और पटकथा को देने वाले आमिर इसीलिए हमेशा चर्चा में रहते हैं। सिनेमा का व्यापार इसी तरह चलता है और इसमें आमिर को कामयाब लोगों की सूची में पहले-दूसरे नंबर पर रखा जा सकता है। उनकी ख्याति और पहचान दरअसल कई बार सिनेमा की दुनिया से निकलकर आम जिंदगी और समाज के बीच आ खड़ी होती है। आमिर खान की कामयाबी का जश्न मनाते हुए। सरकारें भी उनसे प्रभावित होती हैं और अमेरिकी विदेश मंत्री भारत दौरे पर उनसे बात करना चाहती हैं। उनकी लगान प्रबंधन संस्थानों में पहुंच जाती है। ‘तारे जमीं पर देखकर बड़े-बड़े नेता रो पड़ते हैं। ‘थ्री इडियट्स उच्च शिक्षा की विकृतियों को उजागर करती हैं और ‘पीपली लाइव कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाते हुए, मजाक में ही सही, सबको झकझोर कर रख देती है। आमिर की नई फिल्म ‘पीपली लाइव कहने के लिए किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाती है, लेकिन वास्तव में पूरी फिल्म का केंद्रीय बिंदु टेलीविजन के समाचार चैनल हैं। कर्ज में डूबे किसान पर फिल्म कोई टिप्पणी नहीं करती, बल्कि उसे खेतिहर किसान से किसी महानगर का मजदूर बना देती है। फिल्म का पात्र नत्था किसान अंत में बच जाता है, पर एक और नत्था किसान धूल मिट्टी में ढका एक ढूह पर बैठा दिखाई देता है। असहाय। फिल्म हबीब तनवीर के एक गीत ‘चोला माटी का के साथ समाप्त हो जाती है। नत्था को गुस्सा नहीं आता। वह प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। अपनी स्थिति को चुपचाप स्वीकार कर लेता है। समूची व्यवस्था, प्रशासन और नेतृत्व भी इसे सहज रूप में लेता है। राहत की सांस लेते हुए कि नत्था ने आखिरकार आत्महत्या नहीं की। मरना तो एक दिन सबको है, सो नत्था भी मर गया।इस पूरी कथा में जो चीज नहीं बदलती वह है सत्ता का ढांचा और उसका केंद्र। फिल्म में सारी हाय-तौबा के बाद भी वही व्यवस्था कायम रहती है। मुख्यमंत्री कुर्सी पर बने रहते हैं। राजनीतिक दांवपेंच चलते रहते हैं। ‘पीपली लाइव इसमें बदलाव की कोशिश तो दूर उसे बदलने की हिमायत भी नहीं करती। यह यथास्थितिवाद का समर्थन है, जो सत्ता को पसंद आता है। जब तक उसके ढांचे पर हमला न हो, सत्ता को छोटी-मोटी घटनाओं से फर्क नहीं पड़ता। ‘पीपली लाइव का ज्यादा बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा मीडिया है, खासकर टेलीविजन चैनल। अखबार तो फिर भी खबर छाप देता है, पर चैनल टीआरपी की दौड़ में उस खबर, घटना और एक गरीब किसान की मजबूरी को हास्यास्पद बना डालता है। यहां भी फिल्म भाषाई स्तर पर चैनलों के साथ भेदभाव करती है। भाषा पर फिल्म में कोई सीधी टिप्पणी नहीं है, लेकिन यह समझना कठिन भी नहीं है कि अंग्रेजी बोलने वाली महिला पत्रकार खबर को क्या समझती है और हिंदी वाला उसे किस तरह देखता है। एक केंद्रीय मंत्री के साथ महिला पत्रकार की निकटता और इशारों में हुई बात साफ समझ में आती है। हिंदी चैनल का पत्रकार नेता के पैर छूता है। उसकी दूकान नेता के आशीर्वाद से ही चलती है। सैकड़ों और पत्रकारों के साथ ये दोनों भी पीपली गांव पहुंचते हैं और खबर को ‘नाटक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, क्योंकि चैनल के मालिकों को यही चाहिए।
पीपली से पहले आई फिल्म ‘थ्री इडियट्स भी सत्ता प्रतिष्ठान के साथ खड़ी रहती है। ऊपर से भले फिल्म उच्च शिक्षा की खामियां गिनाती हो, वास्तव में वह उसकी तरफदारी कर रही होती है। ठीक वही बात जो मानव संसाधन विकास मंत्री कहते हैं या सरकार चाहती है। जिसका सारा ध्यान बेहतर उच्च शिक्षा की व्यवस्था और नए विश्वविद्यालय खोलने पर हो उसे इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि इसकी बुनियाद कहां पड़ेगी। प्राथमिक शिक्षा कहां मिलेगी। इतना ही नहीं, ‘थ्री इडियट्स सफलता का पैमाना भी बताती है कि जब तक अमेरिका से पेटेंट न मिले और वह समाज व्यवस्था उसे स्वीकार न कर ले, कामयाबी का कोई अर्थ नहीं है। सारे दबाव और तनाव का जिक्र करते हुए फिल्म तय करती है कि नौकर का लड़का रैंचो संस्थान में अव्वल आएगा। उसके सौ से ज्यादा पेटेंट होंगे और कामयाब चतुर को पेटेंट लेने रैंचो उर्फ फुनसुख वांगड़ू के पास लौटकर आना ही पड़ेगा। चमत्कार ‘तारे जमीं पर में भी होता है। जो बच्चा जिस विषय में सबसे कमजोर है, उसी में बेहतरीन प्रदर्शन करता है। यह कभी पता नहीं चल पाता कि रैंचो या वह बच्चा यह करिश्मा कैसे करता है। दोनों फिल्में बाजार की व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश नहीं करतीं, बल्कि उसमें शामिल हो जाती हैं। लेकिन क्या आमिर खान की पहचान केवल इतनी है कि वह साल में एक बार अपनी कथा-पटकथा-अभिनय से लोगों को छू लें और बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा कमाई करने वाले स्टार बन जाएं। इसका उत्तर शायद नकारात्मक ही होगा। इसके बावजूद आखिर ऐसा क्या है कि आमिर सत्ता प्रतिष्ठानों को भी उतना ही पसंद आते हैं, जितना आम लोगों को। यह साधारणतया संभव नहीं दिखता कि आप लोगों के साथ खड़े हों और हुक्मरानों के भी। यह बिल्कुल विचित्र अवधारणा है। जसे कोई यह कहे कि महात्मा गांधी आम लोगों के हक की लड़ाई लड़ते हुए ब्रितानी शासन की आंखों के तारे बने रहे। यहां सवाल पक्षधरता का है। गांधी का पक्ष शुरू से अंत तक स्पष्ट था, आमिर का पक्ष अभी साफ नहीं है। फिर भी वह अपनी फिल्मों से चमत्कार करते हैं। इसका विश्लेषण होना चाहिए, क्योंकि यह एक अद्भुत घटना है, जो सिनेमा में करीब आधा सदी देखने के बाद मिल रही है।ऐसा लगता है कि आमिर खान के मुंबइया हिंदी सिनेमा और सरकार की चिंताएं एक जसी हैं। सरकार बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं मुड़ सकती, जिसका मुख्य जोर तकनीकी और उच्च शिक्षा पर है। उसके लिए लोग और उनकी पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती, जब तक कि वह उन्हें बाजार के योग्य बनाने में सक्षम है। कभी सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन था, अब अपनी नई सोच के साथ वह सत्ता में भागीदार है। इसीलिए फिल्मों के प्रति सत्ता प्रतिष्ठानों का नजरिया बदला है। सत्ता के समीकरणों को उसके व्यवहार और पुरस्कारों से देखा जा सकता है।
जवाहर लाल नेहरु के जमाने में एक बार हिंदी सिनेमा सत्ता प्रतिष्ठानों के इतना करीब आया था। राजकपूर अपनी फिल्मों से ‘समाजवाद का संदेश देते थे और तत्कालीन सोवियत संघ की ओर झुकाव रखने वाले नेहरु को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का यह माध्यम बेहतर लगा। कांग्रेस पार्टी की घोषित नीति भी ‘लेफ्ट ऑफ द सेंटर यानी कि बाईं ओर झुकी हुई मध्यमार्गी व्यवस्था की थी। मतलब यह कि राजकपूर उसी पाले में खड़े थे, जिसमें सत्ता थी। लोगों में नई हासिल आजादी का जुनून था और उन्हें भी यह विकल्प अच्छा लग रहा था। सत्ता ने इसके लिए राजकपूर को सम्मानित भी किया। उन्हें सैंतालीस साल की उम्र में पद्मभूषण मिला, जबकि दिलीप कुमार को यही सम्मान उनहत्तर साल की उम्र में और देवानंद को अठहत्तर साल का होने पर हासिल हुआ। इतिहास ने 2010 में खुद को दोहराया। इस साल के पद्म पुरस्कार घोषित हुए तो आमिर को पद्मभूषण मिला, जबकि शाहरुख खान को पद्मश्री से संतोष करना पड़ा। इसकी व्याख्या करने की शायद अब जरूरत नहीं।

Monday, July 5, 2010

खिलखिलाती रहेगी, महंगाई

बड़ी-बड़ी तुर्रम टीमें वापस। बड़े-बड़े तूफान। लैला और फेट वगैरह। अंतत: ध्वस्त। महीनों से झुलसा रही गर्मी। लग रहा मौसम का स्थायी भाव। जाने-जाने को। दिल्ली में आ ही गया। लेट पर लतीफ। मानसून! चले जाएंगे ललित मोदी भी। और अक्टूबर बाद जाएगी। राष्ट्रमंडल खेलों की। हायतौबा भी। आम लोगों की चिंता में। चीखता-चिल्लाता। आएगा-जाएगा। संसद का मानसून-सत्र। जनता के लिए। दर्द भरे दिल लिए। दलों का। आज भर ही भारत-बंद। लेकिन लोगों के बंधे रहेंगे हाथ। उनकी हद-हैसियत से। बेपार। खुली और खिलखिलाती रहेगी। महंगाई।

Tuesday, June 29, 2010

गर्मी में हौसले पस्त, पर फुटबाल में मस्त

साइना ने किया कमाल ऐसा। कि मिला कवरेज खूब। वरना न अखबार और मीडियावालों को। और न पढ़ने-देखने वालों को। सूझ रहा कुछ भी। फुटबाल के सिवा। एशिया कप जीत गए। जीत गए होंगे! विम्बलडन में क्या हुआ! ठीक-ठीक पता नहीं! टेस्ट टीम में भी दिलचस्पी नहीं खास। और दिन होते तो मचा देते कोहराम। फिलहाल फुटबाल में सब धुत्त। पसंदीदा टीम की जर्सी। टैटू। फैशन में जबर्दस्त। गर्मी में हौसले पस्त। पर फुटबाल में मस्त। भीड़भाड़, होहल्ला। क्रिकेट में भी कम नहीं। पर फुटबाल तो बेइंतहा जुनून। और बेहिसाब जश्न!

Thursday, June 24, 2010

बहरीन के ग्रेनाइट की फ्लोरिंग, चीनी पर्दे, विदेशी फूल

कायाकल्प की। अकल्पनीय कहानी। शहर हो ग्रीन-क्लीन! आवागमन सहज-सुगम! देवदूतों की तरह आते-जाते। पर्यटकों की खातिर। भव्य हों हवाई अड्डे। राष्ट्रमंडल खेल ने। किया गजब। भूल गए नौ दिन में। अढ़ाई कोस की तर्ज। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का। यह नया टर्मिनल। सैंतीस माह में तैयार। विशाल-आलीशान। वहां ले जाएंगे मनोरम मार्ग। बहरीन के ग्रेनाइट की फ्लोरिंग। चीनी पर्दे। विदेशी फूल। न छानबीन की झंझट। न कोई इंतजार। ऐलीवेटरों, एक्सीलेटरों, स्वचालित पगडंडियों की भरमार। दुनिया के विशालतमों, आधुनिकतमों में एक। स्वागत करतीं। नृत्य की। हस्त मुद्राएँ। अभय देतीं। तथागत की। भंगिमाएं!

Monday, June 14, 2010

कोई नहीं देख रहा पीड़ितों का दर्द

भोपाल गैस त्रासदी। सदी का सबसे भयानक हादसा। हजारों मरे। लाखों पीड़ित। ङोल रहे हैं दंश। आने वाली पीढ़ियां भी ङोलेंगी। बड़ी आस लगाए। बैठे थे लोग। अदालत से मिलेगा इंसाफ। जख्मों पर लगेगा मरहम। लेकिन फैसले ने। जख्मों पर नमक। छिड़क दिया। यह कैसा न्याय। देर भी। अंधेर भी। उठ रहे हैं। तरह-तरह के सवाल। कौन दोषी है? किसकी गलती है। राजनीति चरम पर। एक-दूसरे पर। ठीकरा फोड़ रहे हैं। अपना पल्ला झाड़ रहे। कोई नहीं देख रहा। पीड़ितों का दर्द। आखिर कैसे कम होगा। उनका गम। कुछ तो ऐसा हो। जिससे आहतों को। मिले कुछ राहत।

Friday, June 4, 2010

मौसम थोड़ा कूल, पर धूल ही धूल

आंधी-तूफान का मौसम। हर तरह की आंधियां और तूफान! कुछ हुए फिस्स। कुछ ने किया। बहुत कुछ तितर-बितर। लैला का था बड़ा शोर। लबे साहिल तक। पहुंचते-पहुंचते पड़ा। जोश ठंडा। आया दम। बच गये हम। अब फेट का हल्ला। लेकिन बंगाल की खाड़ी में। ममतादी लायीं जो राजनीतिक तूफान। वह हैरतअंगेज! गर्मी का मौसम। लू के थपेड़ों के साथ। चली हिंसा की क्रूर हवाएं। उड़ा ले गयीं वे। यूपीए की सालगिरह की नर्म हवाएं। अब मौसम। अजब। कभी गर्मी। कभी आंधी, गजब। मौसम थोड़ा कूल। पर धूल ही धूल।

Thursday, May 27, 2010

पूरे देश का यह चित्र

मई का महीना। गर्मी ही गर्मी। पसीना ही पसीना! दुबके हुए लोग लू से। धू-धू-धू! आग का बवंडर/पछाड़ खाता/मकानों, मैदानों, नदियों, वीरानों पर! घर में रहना त्रासद! सड़कों पर घोर यंत्रणा! देश झुलस रहा लू के। झोंकों से। सुबह-दोपहर। जसे तापघर। सुलगती शाम और रात। पंखों का चकराता सिर। कलपते कूलर। हांफते एसी। दम फूला विद्युत-घरों का! बिजली की बाय-बाय! पानी की हाय-हाय! सरकारों को और। मार गया काठ। उसका वितरण तंत्र। नाकाम। जनता के अपने पाइप। अपना वितरण। पूरे देश का यह चित्र। सत्य और विचित्र!

Saturday, February 20, 2010

कूटनीति में यही होता है

मुलाकातें हमेशा अर्थवान। अपने ही अंदाज में। साधारण से लेकर असाधारण तक। कभी नाते-रिश्तेदार। दोस्त अहबाब। मेले में बिछड़े दो भाई। या कोई स्वार्थ। सौदा। फायदा। कभी-कभी दो धुरंधर। जसे शांति के नोबल पुरस्कार विजेता। दिक्कत अर्थ में है। मुलाकात में नहीं। अर्थ हो सकते हैं एक से ज्यादा। इसीलिए। देखने का नजरिया अलग। उसी से बदलता मानी। वरना हर्ज क्या था। दलाई लामा और ओबामा। एक साथ। ह्लाइट हाउस में। तिब्बती खुश थे। खुशी के आंसू। चीन नाराज। बेतरह। यह मुलाकात उसके लिए हस्तक्षेप। कूटनीति में यही होता है। बहुअर्थी।

Friday, February 12, 2010

हे भोले भंडारी! गौरापति


हे भोले भंडारी! गौरापति। गंगाधर। देवाधिदेव। महादेव। यह तो तुम ही हो। अजब-गजब। सामान्य समझ से परे। तीनों काल हिल जाते हैं। तुम्हारे डमरू से। अतीत, भविष्य और वर्तमान। गूंजती है। वही ध्वनि। विभिन्न अर्थो के साथ। गोपेश्वर की तरह। गोपियों की लीला में। नीलकंठ बनकर। हलाहल पीते। ताकि सिर्फ अमृत रहे बचा। सबके लिए। विवाह मंडप में। धरती से कैलाश तक। हर रूप विलक्षण। कल्याणकारी। जो भी है सत पथ अनुगामी। यह दिन तुम्हारा। रात्रि भी। बल्कि समस्त चराचर। कृपा बनाए रखना। आज और हमेशा। हम पर। और सब पर। जो हमारे साथ हैं।

Tuesday, February 9, 2010

बेरहम और निहायत खतरनाक, वही बर्फ


प्रकृति का अपना नियम-कानून। उसकी हर छटा। हर अदा। तस्वीर सी। समंदर से लेकर पहाड़ तक। लेकिन जो सुंदर है। स्निग्ध, सौम्य और शांत। वही हो सकता है जानलेवा। बेरहम और निहायत खतरनाक। वही बर्फ। सफेद चादर सी। रुई के फाहों सी हल्की। इंतजार करते हैं सब। कि खेल सकें। प्रकृति की देन मानकर। नाराज हो प्रकृति। गुस्सा आए उसे। जसे हिमस्खलन। खिलनमर्ग से आगे। दरक गया पहाड़। आ गिरा नीचे। धड़ाम से। तब क्या करें। सिवाय प्रार्थना के। हे वसुधा! बनाए रखना कृपा हम पर। तुम तो मां हो। ऐसी सजा मत दो। अपनी संतानों को।

Saturday, February 6, 2010

लोग ऐसे ही जुड़ते हैं, गीदड़भभकियों के खिलाफ


रेल ने बहुत कुछ बदला। शक्ल बदल दी हिंदुस्तान की। जोड़ दिया उसे एक तार से। यहीं चली थी पहली रेलगाड़ी। मुंबई से ठाणे। आजादी भी जुड़ी रही रेल से। दक्षिण अफ्रीका। पीटरमारित्जबर्ग स्टेशन। धक्का देकर उतारे गए महात्मा गांधी। और बदल गई उनकी दुनिया। घूमते रहे। तीसरे दज्रे के डिब्बे में। लोग जुड़ते गए। कि ब्रितानी साम्राज्य का शेर गीदड़ बन गया। और अब राहुल। लोकल में। लाइन में लगकर टिकट खरीदते। इंतजार करते। लोगों से बतियाते। अंधेरी से दादर। दादर से घाटकोपर। जरूरी था। क्योंकि लोग ऐसे ही जुड़ते हैं। गीदड़भभकियों के खिलाफ।

Friday, February 5, 2010

यह रुख पसंद आया, तुम्हारी सारी फिल्मों से ज्यादा


वे शाहरुख हैं। नाम से। माहरुख होते तो बदल जाते। चांद की तरह। शाहरुख हैं इसलिए डटे हुए हैं। यही उनका रुख है। अच्छा है। सिनेमा से इतर। इंसान की तरह। नागरिक के रूप में। शिवसेना ने धमकी दी। कला और बोलने की आजादी के खिलाफ। कहा माफी मांगो। वह टस से मस नहीं हुए। न बदले। न झुके। धमकियों के आगे। पर माफी मांग ली। लोगों से। अपने साथियों से। कि उनके रुख से असर होगा फिल्म पर। अब जो होना हो, हो। डटे रहो शाहरुख। यह रुख पसंद आया। तुम्हारी सारी फिल्मों से ज्यादा.
saabhar ; aajsamaj

Tuesday, February 2, 2010

संगीत की सरहदें नहीं होतीं


संगीत की सरहदें नहीं होतीं। दायरे नहीं होते। वह हर जगह मौजूद। दरीचे खोलता। पूरब से पश्चिम तक। हर विधा में। एक जसे ही होते हैं। उसको सराहने वाले। शास्त्रीय या सिनेमाई। कभी विलंबित। कभी द्रुत। पार कर जाते हैं सुर। सारी बाधाएं। उतरते दिल की गहराइयों में। सिर चढ़कर बोलता जादू। कि मुंह से निकल जाता है। बेसाख्ता। जय हो। साधु! साधु! पहले ऑस्कर। फिर गोल्डन ग्लोब। अब ग्रैमी। संगीत का नोबेल। रुहानी रहमानी संगीत। एक छोटी सी हंसी। और बयान। यह दीवाना बना देने वाली खुशी। मेहरबान हुआ है ऊपर वाला। तीसरी बार।
साभार आज समाज

फिर पूरा बदल गया अंग्रेज!

सैमुअल फुट ने जब 1732 में ‘द नवाब' नाटक लिखा तब तक अंग्रेज भारत में व्यापारी था और यहीं के तौर-तरीकों में रचने-बसने के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता था। चोंगा-साफा पहने दरबारों में वह जाता। नाच गर्ल्स के कोठों पर जाता। बख्शीश देता-लेता। स्थानीय जनों के बीच वह ‘बाहरी' नहीं दिखना चाहता था। ‘द नवाब' के मंचन के बाद इसका भारत में बसे अंग्रेजों ने विरोध किया। अखबारों में बहस हुई। ब्रिटेन में काफी दिनों तक इस पर चर्चा चली। फुट ने यही दर्शाया था कि भारत गए अंग्रेज अंग्रेज नहीं रहे, वे नवाब हो गए हैं। दिलचस्प यह है कि इसके बाद अंग्रेजों के चित्र अंग्रेजी वेशभूषा वाले ही मिलते हैं। क्या ‘द नवाब' के बाद उपजे विवाद के कारण बदलाव का फैसला लिया गया! क्योंकि फिर अंग्रेज बदल गया। उसे नवाब या सामंत की कृपा की दरकार नहीं रही। तो क्या ‘द नवाब' ने पूरी प्रक्रिया बदल दी! घुलने-मिलने वाला अंग्रेज अब अलग-थलग रहने लगा। निश्चित ही इस सबके पीछे अकेली यह किताब नहीं और भी कारण होंगे लेकिन ‘द नवाब' एक स्पष्ट विभाजक रेखा तो बनाती दिखती है।

मधुकर उपाध्याय
अंग्रेजों को भारत आए करीब एक सौ साल होने वाले थे। उस समय तक उनके साम्राज्यवादी विस्तार के इरादे बहुत स्पष्ट नहीं थे और लगभग सारा जोर व्यापार पर था। अठारहवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में ऐसे दृश्य आम थे जब अंग्रेज व्यापारी या व्यापारियों के मुखिया चोंगा पहनकर और साफा बांधकर नवाबों के दरबार में व्यापार की अनुमति लेने जाया करते थे। ऐसी कई तस्वीरें हैं जिनमें अंग्रेज व्यापारियों के हाथ में बख्शीश की थाली दिखाई गई है। उनकी पूरी कोशिश यही दिखाने की होती थी, कि वे स्थानीय व्यापारियों से भिन्न नहीं हैं। सामंतवादी और नवाबी व्यवस्था में चलन ऐसा ही था-चाहे वह सूरत हो, कालीकट या कोलकाता।
कोलकाता में हुगली नदी के तट पर बंधी व्यापारियों की नावों के कई चित्र कोलकाता के राष्ट्रीय संग्रहालय में हैं। उसी में एक चित्र जॉब चारनाक का भी है, जिसे कोलकाता का संस्थापक माना जाता है। वह चित्र अपने आप में खासा दिलचस्प है। जॉब चारनाक हुगली के तट पर रस्सी से बुनी एक खटिया पर बैठकर हुक्का पी रहा है। यह एक आम दृश्य रहा होगा और गांवों में आज तक है, जहां चौपाल पर या पेड़ के नीचे हुक्के के पास लोग इकट्ठा होते हैं। चारनाक के इस स्वरूप को चित्रित करने के पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा, यह नहीं मालूम लेकिन यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि इसे प्रचारित करना और इसे स्थानीय किस्से-कहानियों में शामिल करने का मंतव्य यह दिखाना था कि ये ‘बाहरी व्यक्ति' स्थानीय आम लोगों से अलग नहीं हैं। पोशाक में परिवर्तन पहले ही आ चुका था भले उसका इरादा सिर्फ नवाबों से व्यापार की अनुमति लेना रहा हो। उस काल के अन्य विवरणों से यह भी पता चलता है कि अंग्रेजों का खानपान काफी बदल गया था। बाजार के दबाव का ऐसा प्रभाव भारत ने पहली बार देखा और महसूस किया था, हालांकि वह इसके पूरे प्रभाव से शायद अनभिज्ञ था। किसी भी सभ्य और विकसित समाज की तरह तत्कालीन भारतीय समाज में भी विकृतियां थीं। समाज के साथ घुलने-मिलने के लिए इन विकृतियों को भी स्वीकार करना अंग्रेजों यानी कि अंग्रेज व्यापारियों को जरूरी लगता था। उनका मुकाबला उस दौर में भारतीय व्यापारियों की तुलना में अन्य यूरोपीय व्यापारियों से ज्यादा था जो उनसे पहले भारत आ चुके थे और कुछ इलाकों में बेहद मजबूती के साथ अपने पांव जमा चुके थे। इसके उल्लेख तत्कालीन रचनाओं में मिलते हैं कि ‘नाच गर्ल्स' और कोठे पर जाना फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच व्यापारी करते थे और अंग्रेजों को दूसरा कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था, क्योंकि उनके आदर्श उनके पूर्ववर्ती व्यापारी ही थे। चूंकि उनका सारा व्यापार और लगभग पूरी व्यापारिक गतिविधि समुद्र केन्द्रित थी इसलिए उनके प्रमुख केन्द्र समुद्र तट पर ही बने।

यूरोप ने सबसे पहले भारत को समुद्र तट से ही देखा था। और देखकर अभिभूत हुआ था। एक सहज, समन्वित समाज उनके आकर्षण का केन्द्र बन गया और उसने उन्हें ठीक उसी तरह अपने मोहपाश में जकड़ लिया जिस तरह शताब्दियों पहले तुर्को और मुगलों के साथ हुआ था। यह और बात है तुर्को और मुगलों ने भारत को समुद्रतट से नहीं बल्कि खैबर दर्रा की ऊंचाइयों से देखा था। बाहर से आए लोगों के बीच यह फर्क बहुत बड़ा था और अंत तक कायम रहा। एक तरह से कहें तो यह वही फर्क था जिसने अंतत: उनकी सोच को प्रभावित किया और यूरोपीय तथा खबर पार करके आए लोगों के बीच एक मौलिक विभेद पैदा कर दिया। इस अंतर की शुरुआत कब और कहां से हुई, यह एक बहुत बड़ा और लगभग अनुत्तरित प्रश्न है। अंग्रेज और उनके पहले के यूरोपीय व्यापारियों ने जिस तरह भारत में अपने पांव पसारने की शुरुआत की थी, वह तुर्को और मुगलों से इस अर्थ में भिन्न थी कि वे आक्रमणकारियों की तरह नहीं आए थे। बाद में यूरोपीय व्यापारियों और मुगलों तथा तुर्को ने यह समझ लिया कि भारत में कुछ भी भारत के ढंग से ही किया जा सकता है। उस समय तलवार का जोर और व्यापार का दबाव छोड़ने पर उन्हें काफी हद तक विवश होना पड़ा। मुगलों और तुर्को के सामने साम्राज्य की स्थापना और उसके विस्तार के दबाव में आई यह सोच काफी सीमा तक कामयाब रही, हालांकि उनके सामने इसका कोई उदाहरण नहीं था।

लड़ना और व्यापार करना तथा सत्ता कायम करना दो सर्वथा अलग चीजें हैं। तलवार का जोर सिर्फ व्यापारिक बुद्धि सत्ता कायम करने का आधार नहीं बन सकती। यह भी समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि तलवार लेकर लूट के इरादे से भारत में घुसे लोग यहां के कैसे हो गए और व्यापार तथा व्यापारिक बाने में लूट करने आए लोग अंतत: इतने क्रूर, हिंसक और आततायी कैसे बने? अंग्रेजों ने इस पूरी अवधि में अपने निजी विवरण लिखे जो इतिहास के प्राथमिक स्रोत माने जा सकते हैं। इस दौरान काफी साहित्य भी रचा गया जिनमें से कई रचनाओं का सीधा संबंध भारत से है। इसी में एक नाटक ‘द नवाबज् शामिल है। सैमुअल फुट ने यह नाटक तत्कालीन भारत और उसमें अंग्रेजों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद 1732 में लिखा था, जिसका दो साल बाद लंदन में मंचन हुआ। साहित्यिक रूप से इस नाटक को शायद दस में से दो अंक भी न मिलें लेकिन इतिहास के रूप में इसका महत्व काफी है।

‘द नवाब' के मंचन के बाद भारत में बसे अंग्रेजों ने इसका कड़ा विरोध किया और सैमुअल फुट को कई बार जान बचाकर भागना पड़ा। इन घटनाओं को स्थानीय समाचार पत्रों में भी जगह मिली और भारत गए अंग्रेजों के संबंधियों ने इस बारे में काफी खतोकिताबत की। यह चर्चा पूरे ब्रिटेन में एक लम्बे अर्से तक बनी रही। सैमुअल फुट ने ‘द नवाब' में मोटे तौर पर तीन टिप्पणियां की थीं। यह कि भारत गए अंग्रेज व्यापारी अपनी अंग्रेजियत खो बैठे हैं, यह कि वे ‘नाच गर्ल्स' के यहां जाते हैं और यह कि बख्शीश देते और लेते हैं। इसी नाटक में उन्होंने यह भी कहा था कि अंग्रेज कुल मिलाकर खुद नवाबों की तरह व्यवहार करने लगे हैं और नवाब बन गए हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि सैमुअल फुट भारत कब और क्यों आए थे और यहां से लौटकर क्यों गए। यह हो सकता है कि वह स्वयं व्यापार के इरादे से आए हों उसमें विफल रहे हों और इस रचना के मूल में व्यक्तिगत क्षोभ रहा हो, लेकिन उनके नाटक पर जितनी उग्र प्रतिक्रियाएं हुईं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि वास्तव में स्थितियां कमोबेश वैसी ही रही होंगी, जसा उन्होंने बयान किया था।

यह पूरा घटनाक्रम कोलकाता में फोर्ट विलियम की स्थापना और प्लासी के युद्ध से पहले का है इसलिए इन दोनों में से किसी एक को अंग्रेज मानसिकता और सोच में परिवर्तन का कारण मानना उचित नहीं होगा। अंग्रेजों की अंग्रेजियत के ह्लास पर एक लंबी बहस फोर्ट विलियम की स्थापना के युद्ध के बीस साल पूर्व ही हो चुकी थी और इस बहस का आधार बना था ‘न नवाब'। यह कहा जा सकता है कि ‘द नवाब' एक विभाजक रेखा है, जिससे पहले और जिसके बाद भारत में अंग्रेजों के दो सर्वथा भिन्न रूप दिखाई देते हैं। इस रेखा के एक तरफ वे अंग्रेज हैं, जो तुर्को या मुगलों की तरह स्थानीय जन-मन में रचने-बसने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी तरफ वे जिन्होंने खुद को अलग-थलग करके अपने को स्थानीय लोगों से बेहतर बताने और दिखाने की कोशिश की।

यह महज एक संयोग भी हो सकता है कि इस नाटक के बाद से चोंगा और साफा पहने या हुक्का पीते या फिर चौपाल में बैठे किसी अंग्रेज का कोई चित्र नहीं मिलता। उसके बाद के चित्रों में अंग्रेज ढेर सारे बटन वाले चमकदार कपड़ों में घोड़े की पीठ पर सवार दिखाई देता है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ‘द नवाब' के मंचन और उससे उपजे विवाद के बाद इस तरह का कोई फैसला लिया गया हो लेकिन आसपास के साक्ष्य लगभग इसी तरफ इशारा करते हैं। प्लासी के युद्ध के बाद तो यह पूरी तरह साफ हो जाता है कि अंग्रेज अपने को सिर्फ व्यापारी नहीं समझता, जिसे किसी नवाब या सामंत की कृपा की दरकार हो।

इस पूरे संदर्भ को इस रूप में देखा जा सकता है कि ‘द नवाब' ने पूरी प्रक्रिया ही बदल दी। अंग्रेजों ने, जो उस समय तक भारतीय समाज में घुलने-मिलने की कोशिश में लगे थे, अलग-थलग रहना शुरू कर दिया। यानी कि ‘एसिमिलेशन को एलियनेशन' में बदल दिया। यह अगर इसी तरह हुआ तो कहा जा सकता है कि आधुनिक इतिहास की यह एक अकेली घटना है, जहां कागज के चंद पन्नों ने इतिहास पलट दिया। इसे तुलसीदास के रामचरित मानस और कार्ल मार्क्‍स के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' से अलग करके देखना होगा, क्योंकि इसमें धर्म का या विचारधारा का सहारा नहीं लिया गया था। यह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि इतिहास की धारा बदलने में प्रेरक बने ये पन्ने दोयम दज्रे की साहित्यिक रचना ही माने जा सकते हैं। लेकिन इस पूरे परिवर्तन में सिर्फ किताब की ही भूमिका थी, यह मानना भी गलत होगा।

Monday, February 1, 2010

रविवार था टेनिस का दिन

रविवार था टेनिस का दिन। दो मुकाबले जानदार। फेडरर और मरे। दूसरे में। हमारे अपने। लिएंडर पेस। हर खेल में होता यही। किसी की पूरी होती मुराद। किसी का टूटता दिल। मरे के साथ। इंग्लैंड का भी। दिल ही नहीं। टूटा सपना। ग्रैंड स्लैम का। चौहत्तर साल पुराना। फेडरर का जारी रहा। तूफानी विजय अभियान। जीते आस्ट्रेलियाई ओपन। एक अंतराल के बाद। पेस ने भी किया कमाल। खेले जबर्दस्त। जोड़ीदार कारा ब्लैक से भी। रहे बीस। पाया मिश्रित युगल खिताब। ग्रैंड स्लैम की गिनती में। अब पेस-भूपति। दोनों ग्यारह!

Saturday, January 30, 2010

ऐसे भी बनती हैं कलाकृतियां

ऐसे भी बनती हैं कलाकृतियां। कई बार। अचानक और अनचाहे। जहां उम्मीद न हो। ऐसी जगह। बन जाता है कैनवस। खुला मैदान। रंग-बिरंगे धुएं के गुबार में। जैसे एक बेतहाशा बड़ी पेंटिंग। कुछ संगीनें उसमें। एक टैंक। और नुक्ता सा तिरंगा। ऊपर। पेड़ों के बीच में। लहराते हुए झांककर देखता। अपने बच्चों को। एनसीसी के कैडेट। मजबूत इरादों के साथ। अंजाम देते। पूरी लगन, तैयारी और प्रशिक्षण के साथ। उठाते कला के स्तर तक। युद्धाभ्यास को। वे कहीं भी पैदा कर देंगे कला। आश्वस्त करते। कि वे हैं। रंग भरने के लिए।

Thursday, January 28, 2010

पत्रकारिता के महागुरु राबर्ट नाइट


भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता को समझने के लिए और तथ्य सामने लाने की जरूरत है और यह काम उसके महागुरुओं को जाने बिना संभव नहीं है। एडविन हर्शमान ने राबर्ट नाइट पर पहली किताब लिखी है। यह काफी नहीं है।

मधुकर उपाध्याय

भारतीय पत्रकारिता आज जिस मुकाम पर है, उसमें अक्सर पीछे पलटकर देखना जिसे लगभग गैरजरूरी-सा हो गया है। इसमें पीछे छूट जाने का खतरा निहित है, हालांकि यह पूरा सच नहीं है। संचार टेक्नोलॉजी का विस्फोट शायद इसकी बड़ी वजह है, जिसने मीडिया के हर क्षेत्र को पंख लगा दिए हैं और ऐसे दरीचे खोल दिए हैं कि समूचा आसमान उसे अपनी मुट्ठी में लगता है। कोई यह मौका चूकना नहीं चाहता और जाहिर है, इस भागमभाग में अतीत को बिना मतलब का बोझ समझने लगता है। इस दौर में एक और बदलाव आया है- पत्रकारिता के आधुनिक महागुरुओं का। उन महारथियों का, जो संचार माध्यमों को साबुन और टूथब्रश की तरह का उत्पादन मानते हैं और उसके लिए बाजार तलाश करते घूमते हैं। निश्चित तौर पर पत्रकारिता उनके लिए व्यापार है, जिसमें घाटे का सौदा किसी को पसंद नहीं, भले इस प्रक्रिया और हड़बड़ी में अतीत के साथ वर्तमान की भी बलि चढ़ जाए।

इस आपाधापी में भी अतीत का एक पन्ना पलटना जरूरी लगता है। इस पन्ने पर पत्रकारिता के इतिहास की एक नहीं बल्कि दो महागाथाएं दर्ज हैं और दोनों के केंद्र में एक ही व्यक्ति है। यह पन्ना पढ़े बिना भारत में, खासकर अंग्रेजी पत्रकारिता का इतिहास पूरा नहीं होगा। इससे पत्रकारिता का एक नया अध्याय भी खुलता है। हालांकि उसका उद्देश्य जनपक्षधरता से अधिक ब्रितानी राज के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना है। यह लगभग उसी तरह की दुधारी तलवार वाला तर्क है, जो अक्सर रेलगाड़ियां चलाने के सदंर्भ में आता है। यह कतई आश्चर्यजनक नहीं लगता, क्योंकि रेल पटरियां बिछाने और दैनिक अखबार शुरू करने का कालखंड करीब-करीब एक ही है।

अपने शुरुआती दिनों से लेकर लगभग पूरी बीसवीं सदी में लगातार महत्वपूर्ण बने रहे दो अखबार- द टाइम्स ऑफ इंडिया और द स्टेट्समैन एक ही व्यक्ति ने शुरू किए थे। रॉबर्ट नाइट को पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं था और वह पत्रकारिता करने भारत आए भी नहीं थे। लैम्बेथ में 1825 में जन्मे रॉबर्ट की स्कूली शिक्षा मामूली थी लेकिन उनकी सोच पर उपयोगितावाद के पुरोधा जेम्स मिल का भारी असर था। जेम्स, उनके सहयोगी जेरेमी बेंथम और दोनों के शिष्य रॉबर्ट को लगता था कि उनकी सभ्यता भारतीय लोगों से बेहतर है और यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे भारत को सभ्य बनाएं। इस प्रक्रिया में रॉबर्ट को ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ निर्णय ठीक नहीं लगते थे और वे उसकी आलोचना करने से नहीं चूकते थे।

रॉबर्ट भारत में नौकरी करने आए थे। उन्हें शराब आयात करने वाली एक कंपनी में बहीखाता संभालने वाले क्लर्क का काम मिला था। मेहनती रॉबर्ट नौकरी के बाद बचा समय लेख लिखने में लगाते और उन्हें नियमित रूप से बाम्बे गजट और बाम्बे टाइम्स को भेजा करते थे। उन साप्ताहिक अखबारों में रॉबर्ट नाइट जसा दूसरा कोई लेखक नहीं था। एक बार ‘बाम्बे टाइम्सज् के संपादक छुट्टी पर गए तो उन्होंने रॉबर्ट को अपनी अनुपस्थिति में अखबार के संपादन की जिम्मेदारी सौंप दी। शायद रॉबर्ट नाइट को इसी मौके का इंतजार था। संपादक लौटे तब भी रॉबर्ट वहीं बने रहे और जल्दी ही उसके साझीदार बन गए। अपने दोस्तों से पैसे जुटाए और 1861 में दैनिक के रूप में द टाइम्स ऑफ इंडिया की शुरुआत की। कुछ ही समय में वह शहर का सबसे बड़ा अखबार बन गया और उसकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी।

रॉबर्ट नाइट के लिखने का ढंग नहीं बदला था और उसे पूरी तरह न समझकर असहज होने वाले लोगों की कतार भी। रॉबर्ट अक्सर भारतीय लोगों का पक्ष लेते दिखाई देते। बंबई नगर निगम चुनाव में भारतीय लोगों के अधिक प्रतिनिधित्व की, उन्होंने जमकर हिमायत की। जब यह हुकूमत को नागवार गुजरने लगा तो अचानक दो घटनाएं हुईं। उनकी कंपनी के शेयर मुंह के बल गिरे और एक दिन संपादक की कुर्सी भी चली गई। इसी के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया का चरित्र भी बदला। रॉबर्ट नाइट लंदन लौट गए लेकिन कुछ ही समय में उन्हें लगा कि उनका कर्मक्षेत्र भारत ही है क्योंकि स्थितियां नहीं बदली थीं और वह अब भी मानते थे कि साम्राज्य (ब्रितानी) का काम स्थानीय लोगों के हित में काम करना है, उन्हें चूसकर गन्ने की खोई बना देना नहीं।
भारत लौटकर द टाइम्स ऑफ इंडिया शुरू करने के दस साल बाद रॉबर्ट नाइट ने एक नया अखबार निकालने का फैसला किया। इस सिलसिले में रॉबर्ट ने मद्रास से निकलने वाले और बंद हो चुके एक साप्ताहिक अखबार को खरीद लिया, जिसका नाम था द स्टेट्समैन। उन्होंने इसे बंबई से प्रकाशित करना शुरू किया। टाइम्स ऑफ इंडिया से बेदखल किए जाने के बाद रॉबर्ट नाइट के पास ज्यादा पैसे नहीं थे। जो पैसे थे, उसका एक बड़ा हिस्सा रॉबर्ट ने पहले ही एक नई साप्ताहिक पत्रिका इंडियन इकानामिस्ट निकालने में लगा दिया था। इस खस्ता हालत के बावजूद स्थितियों के प्रति उनका दृष्टिकोण नहीं बदला। उलटे अब उनके निशाने पर ब्रितानी सरकार और महारानी थीं। पत्रिका में प्रकाशित लेखों में रॉबर्ट ने महारानी के खर्चो को भारत के बजट में शामिल करने पर आपत्ति जताई और अफगानिस्तान अभियान के खर्चो को गलत बताया। इंडियन इकानामिस्ट के कई लेखों में रॉबर्ट नाइट ने रेल सेवा के विस्तार की तीखी आलोचना की। उनका तर्क था कि यह धनराशि सड़क बनाने और सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने पर खर्च करना बेहतर होता। एक और लेख में उन्होंने कहा कि ब्रितानी सरकार की सारी नीतियां और उसकी योजनाएं भ्रष्ट ब्रिटिश ठेकेदारों और ब्रितानी इस्पात उद्योग के हित में बनाई जाती हैं। उसमें जनता का हित कभी नहीं देखा जाता।

रॉबर्ट नाइट से नाराज लोगों की संख्या काफी थी पर बिना लाग-लपेट अपनी बात कहने के उनके ढंग के प्रशंसक भी कम नहीं थे। उनके एक शुभचिंतक सरकारी अधिकारी एलन आक्टेवियन ह्यूम थे, जिन्होंने बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ह्यूम ने रॉबर्ट नाइट का परिचय बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्ज कैंपबेल से करा दिया। खतो किताबत के बाद कैंपबेल रॉबर्ट की मदद को राजी हो गए पर उनकी शर्त थी कि इंडियन इकानामिस्ट कलकत्ता से प्रकाशित हो। इसी के साथ साप्ताहिक एक तरह से ब्रितानी आधिकारिक प्रकाशन बन गया। उसकी प्रसार संख्या बढ़ी। इसी बीच रॉबर्ट की टिप्पणियों के चलते प्रशासन ने इंडियन इकानामिस्ट का प्रकाशन रोक दिया और उन्हें हटा दिया गया। रॉबर्ट ने इसके बाद भी हार नहीं मानी।
अपने परिवार को आगरा भेजने के बाद रॉबर्ट ने उन मित्रों से संपर्क किया जो उनकी अनुपस्थिति में बंबई से द स्टेट्समैन का बतौर साप्ताहिक लगातार प्रकाशन कर रहे थे। कुछ बातचीत और पैसे जुटाने पर रॉबर्ट ने द स्टेट्समैन को कलकत्ता लाने का निर्णय किया। शुरू में इसे साप्ताहिक रखा गया और कुछ साल बाद वह दैनिक हो गया। दैनिक ने अपनी भूमिका नहीं बदली। उसके पास संवाददाताओं का जाल था और आंकड़ों, तथ्यों के मामले में उससे बेहतर कोई अखबार नहीं था। जाहिर है, इसका असर हुआ और स्टेट्समैन मुनाफा कमाने वाला अखबार बन गया। रॉबर्ट नाइट 1890 में अपनी मृत्यु तक द स्टेट्समैन और भारतीय पत्रकारिता के प्रथम पुरुष बने रहे। दुर्भाग्य से रॉबर्ट पर अब तक कोई किताब नहीं थी। एडविन हर्शमान ने उन पर पहली किताब लिखी है। यह काफी नहीं है। भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता को समझने के लिए और तथ्य सामने लाने की जरूरत है और यह काम उसके महागुरुओं को जाने बिना संभव नहीं है।