Thursday, February 28, 2008

गांव शहर में आसानी से नहीं आता


गांव आसानी से शहर नहीं आता।
मजबूरी में आता है।
जब पानी सिर से ऊपर हो जाए।
परेशान-हलकान हो जाए।
गांव अक्सर गांव में रहता है।
उसे शहर की जरूरत नहीं होती।
किसान इंडिया गेट पर क्या करें।
जंतर मंतर क्यों आए।
कुदाल चला नहीं सकता।
हंसिया-दरांती लेकर नहीं जा सकता।
उसका खेत गांव में।
जिंदगी गांव में। हाट गांव में।
गुस्सा उसे कम ही आता है।
घरवाली को उससे भी कम।
वह खुश होकर शहर में नहीं आयी।
हुस्से में है। कुछ करो कि क्रोध काबू में रहे।
ज्वालामुखी न फटे।

Wednesday, February 27, 2008

संसद टर्मिनल से चुनाव जंक्शन


मधुकर उपाध्याय

ला ला ला लिल्ली लिल्ली।
लालू जी आए हैं दिल्ली।
पांच साल से डटे हुए हैं,
देखो उनका खेल तमाशा।
बांट रहे हैं खुले हाथ से
खुद को राहत सबको आशा।
मैनेजमेंट यही है असली,
न कोई तिनका, न कोई दाढ़ी।
अगला स्टेशन चुनाव का,
वहीं रुकेगी अबकी गाड़ी।
ऊंचा खेल अजीमाबादी,
तुम नादान कहां समझोगे।
कहां-कहां तक सिर पटकोगे।
जादूगर ऐसा करता है,
खुश रखता है, खुश रहता है।
झटका खाती, बोझ उठाती,
लस्टम पस्टम चलती रेलें।
बजट मास्टर लालू अव्वल,
बाकी जो झेले सो झेले।

Tuesday, February 26, 2008

रेडियो के देश में टेलीविजन

कहीं रेडियो पर भी गणेश दूध न पीने लगें और समुद्र का पानी मीठा न हो जाए। यह भी कि कोई भूत का साक्षात्कार न करे और यमराज से मिलकर लौटे आदमी का इंटरव्यू न हो। निजी टेलीविजन ये सारे चमत्कार कर चुका है।

मधुकर उपाध्याय

मशहूर रेडियो पत्रकार नाइजल रीस ने एक बार टेलीविजन का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि दुनिया का सबसे आसान काम टेलीविजन पत्रकार होना है। उसमें आपको कुछ नहीं करना होता। सब पहले से तय होता है और आप खाली जगह भरते हैं। नाइजल ने विस्फोट की एक खबर का उदाहरण देते हुए कहा कि टेलीविजन पत्रकार के पास बस चार सवाल होते हैं और वह उन्हें उसी क्रम में पूछता है। उसमें कोई नयापन नहीं होता। विस्फोट की खबर में पहला सवाल होता है - घटना का ताजा विवरण क्या है। दूसरा सवाल - लोग क्या महसूस कर रहे हैं। तीसरा सवाल -अधिकारियों का क्या कहना है और चौथा सवाल - यह घटना इसी समय क्यों हुई। नाइजल कहते हैं कि इसके बाद भी समय बच जाए तो टेलीविजन पत्रकार उसे कागज समेटने, चश्मा उतारने और कलम जेब में रखने में पूरा कर देता है। तीस साल तक बीबीसी रेडियो फोर के सबसे लोकप्रिय प्रस्तुतकर्ता रहे नाइजल का मानना है कि टेलीविजन ने अपनी उपस्थिति के साठ साल जरूर पूरे कर लिए हैं, लेकिन सही मायनों में टेलीविजन समाचार आज तक दुनिया में कहीं उपलब्ध नहीं है। आंख बंद करके आप टेलीविजन की पूरी खबर सुन और समझ सकते हैं। इस लिहाज से वह दरअसल रेडियो है। भारत जैसे देश के लिए, जहां चालीस फीसदी से ज्यादा लोग अब भी अनपढ़ हैं, रेडियो जनसंचार का सबसे मुफीद माध्यम है। अखबार और पत्रिकाएं अनपढ़ लोगों के लिए नहीं हैं और टेलीविजन तक सबकी पहुंच नहीं है। वैसे भी भारत हमेशा से बोले हुए शब्दों के सहारे जीता रहा है। उसकी लगभग पूरी संस्कृति इसी पर आधारित है। पांच हजार साल पुरानी वैदिक परंपरा बोले हुए शब्दों से बची रही। वह श्रुति, आवृत्ति और स्मृति का देश है। वह ध्यान से सुनता है, सुने हुए को दोहराता है और इसी प्रक्रिया में उसे याद कर लेता है। लिखना-पढ़ना उसने बहुत बाद में सीखा। इस संदर्भ में नाइजल रीस की बात और सही साबित होती है। गांव में, खासकर जाड़े के दिनों में, अलाव के पास बैठकर जितनी खबरें कही-सुनी जाती हैं, उनका मुकाबला कोई प्रसारण माध्यम नहीं कर सकता। वह एक तरह से अलाव रेडियो है, जिसे तस्वीरों की जरूरत नहीं होती। टेलीविजन से पंद्रह साल बाद निजी कंपनियों के भारी दबाव के कारण दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुशंसा की है। फैसला सरकार को करना है। हो सकता है इसमें अभी कुछ और समय लग जाए लेकिन ट्राई का यह कदम देश की नब्ज पर हाथ रखने जैसा है। इस पूरे तर्क में एक समस्या है, एक डर कि कहीं रेडियो पर भी गणेश दूध न पीने लगें और समुद्र का पानी मीठा न हो जाए। यह भी कि कोई भूत का साक्षात्कार न करे और यमराज से मिलकर लौटे आदमी का इंटरव्यू न हो। निजी टेलीविजन ये सारे चमत्कार कर चुका है। सरकार इसे निजी रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति न देने के तर्क के रूप में इस्तेमाल कर रही है। निश्चित तौर पर जनसंचार माध्यमों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और सिर्फ एटवरटिजमेंट के लिए टीआरपी रेटिंग बढ़ाने का तर्क लेकर अनाप-शनाप कार्यक्रमों से बचना होगा। यह आसान नहीं है। अगर निजी जनसंचार माध्यम अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते तो उन्हें नियंत्रित करने के लिए सरकारी नियंत्रण से मुक्त स्वायत्त संस्था की जरूरत होगी। जाहिर है, सरकार एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति आसानी से नहीं देगी, लेकिन देर सवेर उसे यह करना ही होगा। अगर प्रसारण कानून एक है तो सरकार रेडियो और टेलीविजन में भेद कैसे कर सकती है। जिन समस्याओं का हवाला सरकार देती है, उसके उलट कई तर्क हैं जिन्हें वह नजरअंदाज कर देती है। सोचिए कि एफएम स्टेशन मोहल्ले के दो कमरे के एक मकान से चलता है, जहां कोई भी पहुंच सकता है तो शिकायत होने पर लोग वहां क्यों नहीं पहुंचेंगे। संभव है कि प्रसारणकर्ता आपका पड़ोसी हो और सुबह दूध खरीदते हुए लाइन में खड़ा मिल जाए। स्थानीय स्तर पर रेडियो के पास गैर जिम्मेदार होने का विकल्प ही नहीं है। उसे कोई भी पकड़ लेगा। कोई भी टोक देगा। रेडियो न सिर्फ प्रसारकों बल्कि आम लोगों को भी जिम्मेदार नागरिक बनाएगा, जो काम ऊंची चहारदीवारी से घिरा सरकारी रेडियो या सुरक्षाकर्मियों से घिरे आलीशान टेलीविजन स्टूडियो सोच भी नहीं सकते। इस सरकार के लिए यह चलाचली का साल है। संभव है कि निजी एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति देने से वह बच निकले, लेकिन यह न तो सरकार के हित में होगा, न ही समाज के।