Thursday, July 31, 2008

उम्मीद है कि कायम है


दिल है कि मानता नहीं। हर बार खाली झोली लिए लौटने पर भी नहीं। कोई हाथ खड़े कर दे, तब भी नहीं। लगता है कि इस बार कुछ होगा। कोई चमत्कार। उम्मीद है कि कायम है। खुद से, खिलाड़ियों से। हफ्ते भर बाद ओलंपिक होंगे। बीजिंग में। खिलाड़ी कुछ करेंगे। कुछ ले आएंगे। पदक-शदक। सोना-चांदी नहीं। कांसा ही सही। लेकिन गिल ने हाथ खड़े कर दिए। बेचारे अपने खेलमंत्री। क्या करें। एक तो खेल के पीछे खेल। भारी सियासत। दूसरे, खेल विरोधी समाज। खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब। इसलिए लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर बेटा। बन जा नवाब।

Wednesday, July 30, 2008

जिंदगी इसी तरह हंसती है


मौत बेबात का फसाना है। जिंदगी ही असल कहानी है। मौत को धता बताती। पछाड़ती। लड़कर जीतती। यही सुप्रतिम है। अप्रतिम है। विचित्र किंतु सत्य। मानो या न मानो। डाक्टरों से घिरा। चेहरे पर मुस्कान। सौम्य। लेकिन मौत को मुंह चिढ़ाती। जिंदगी इसी तरह हंसती है। स्मित और मोहक। यह गुड़गांव के हादसे से बचना नहीं है। जूझकर निकलना है। आर-पार लोहे का सरिया। सीने पर खून का दरिया। फिर भी हौसला। गजब है। मीर साहब देखिए। हादसा बस कि एक मोहलत है। यानी आगे चलेंगे दम लेकर।

Monday, July 28, 2008

कुर्सी पर कब जमकर बैठेंगे शिवराज

आपकी यह मुस्कान। कर रही हैरान। चिंताग्रस्त देश। और कैसे निश्चिंत आप। आतंकवाद, नक्सलवाद। जलता कश्मीर। धधकता पूर्वोत्तर। पिछले दो दिन यानी अड़तालीस घंटे और उसमें धमाके छब्बीस। कोई पचासेक मारे गए बेमौत। निष्क्रिय सरकारें और मारे जाते निर्दोष बेचारे। भयावह संकट लेकिन नहीं बनते वे कभी आपदा पूरे देश की। प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष। और भी देश के नेतागण महान। संकट की घड़ी में कब दिखेंगे एकजुट। चिंतातुर कब जाएंगे साथ-साथ। कब होगा चुस्त-दुरुस्त शासन। कुर्सी पर कब जमकर बैठेंगे शिवराज।

Sunday, July 27, 2008

कब जागेगी सरकार

ऐसा पहली बार हुआ है कि दो राज्यों कर्नाटक और गुजरात में एक के बाद एक सीरियल धमाके हुए। शुक्रवार को बेंगलुरु, शनिवार को अहमदाबाद। दोनों अपने राज्यों की राजधानियां। दोनों महानगर। दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार। इससे दो महीने पहले मई में राजस्थान की राजधानी जयपुर में सीरियल धमाके हुए थे और संयोग से वहां भी भाजपा सरकार है। लेकिन फिलहाल जिक्र बेंगलुरु और अहमदाबाद का। दोनों स्थानों पर सीरियल विस्फोट। बेंगलुरु में नौ, अहमदाबाद में सत्रह। दोनों जगह कम शक्ति के बमों का इस्तेमाल।यह सवाल उठ सकता है कि आखिर आतंकवादी क्या करना या कहना चाह रहे हैं। क्या आतंकवादियों का इरादा तबाही मचाने से ज्यादा कुछ और है। जयपुर के बरक्स क्या वे कम ताकत के बमों का प्रयोग करके जानमाल को नुकसान पहुंचाने की जगह कोई और इशारा कर रहे हैं। क्या आने वाले दिनों में उनका इरादा किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने का है। यह सारे सवाल बेमानी हैं। इनका कोई अर्थ नहीं है। आतंकवादियों के इरादे साफ हैं। उनका पहला निशाना भारत का सिलिकान शहर बेंगलुरु था, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की नई जीवनरेखा है। यह हमला उसे क्षत-विक्षत करने के लिए था। दूसरा ठिकाना सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील पुराना अहमदाबाद बना। जाहिर है, आतंकवादी भारतीय अर्थव्यवस्था और सांप्रदायिक सद्भाव को निशाना बना रहे हैं। जयपुर और लखनऊ की तरह अहमदाबाद में भी बम रखने के लिए साइकिल और टिफिन बाक्स का प्रयोग किया गया। आतंकवादियों की ताजा सक्रियता की वजह उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई न होना है। इस स्थिति में सरकार से दोहरी सक्रियता अपेक्षित है। आतंकवादियों और उनके स्लीपर सेल माड्यूल पर कड़ी कार्रवाई और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना। लोगों ने आतंक का अपने ढंग से हर बार जवाब दिया है। इस बार भी देंगे। सरकार को उनके साथ खड़ा होना होगा। ट़ुच्ची राजनीतिक मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना होगा। लोग आतंक के नतीजों से निपट लेंगे पर आतंक से निपटने का मुख्य जिम्मा सरकार का है।

हे राम! ये क्या हो रहा है

डेढ़ सौ साल पहले दुनिया बदली थी। साइकिल ने बदल दी थी। जिंदगी में रफ्तार जोड़कर। पहियों ने आम आदमी को पंख लगा दिए। जादू कर दिया। उसके बाद कुछ भी वैसा नहीं रह गया, जसा था। क्योंकि साइकिल मुकम्मल थी। सबकुछ था। पहिये, गद्दी, हैंडिल, पैडल, घंटी। और कैरियर। सहूलियत का भंडार। डेढ़ सदी बाद दुनिया बदली। साइकिल फिर केंद्र में। दुर्भाग्य से इस बार तबाही का सबब बनकर। आतंक के हथियार के रूप में। साइकिल को क्या पता था कैरियर इतना खतरनाक होगा। हे राम! ये क्या हो रहा है। गांधी के देश में।

Thursday, July 24, 2008

पूरी जीत, आधी खुशी

सांसदों को पैसे देने के मामले से संसद की गरिमा पर जो धब्बा लगा है उसे मिटाने के लिए गहराई से जांच किए जाने की आवश्यकता है।

नमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत आसानी से जीत लिया। जीत का अंतर भी कम नहीं था। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और पर्चियों के गिनती के मुताबिक यह अंतर 19 था। वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सरकार से विश्वास मत के जरिए अपना बहुमत साबित करने को कहा था। प्रस्ताव पारित होने से सरकार ने राहत की सांस ली होगी क्योंकि एक समय अंकगणित उसके खिलाफ लगने लगा था। पर यह जीत आधी-अधूरी है। सांसदों की खरीद-फरोख्त के काले दाग़ के साथ है। यह दाग धुलने में शायद काफी समय लगेगा। सही अर्थो में यह लोकतंत्र का काला दिन है।काला दिन एक शब्द-समूह है, जिसके बारे में लोग उम्मीद करते हैं कि वह कभी न आए। लेकिन वह गाहे-बगाहे आ जाता है। इस बार वह लोकतंत्र का काला दिन बना। भारतीय जनता पार्टी के तीन सांसदों ने लोकसभा में नोटों की गड्डियां लहराते हुए कहा कि उन्हें विश्वास मत के प्रस्ताव पर मत विभाजन से अनुपस्थित रहने के लिए यह रकम दी गई। उनके हाथों में एक-एक हजार रुपये के नोटों की गड्डियां थीं। तीन सांसदों-अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा ने कहा कि उन्हें समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह के प्रतिनिधि ने एक करोड़ रुपये दिए और आठ करोड़ रुपये मत विभाजन के बाद देने का वादा किया। यह घटना शर्मनाक है। दुखद है। दुर्भाग्यपूर्ण है। संसदीय इतिहास में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई। इसकी निंदा की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ कुछ और बातों पर नजर रखी जानी चाहिए। इस घटना में ऐसी तमाम बातें हैं, जिनका जवाब मिलना चाहिए।
नेताओं के पैसे लेने की खबरें पहले भी आती रही हैं। बंगारू लक्ष्मण हों, पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या संसद में सवाल पूछने के लिए धन लेने का मामला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही सांसदों की खरीद-फरोख्त की खबरें उड़ने लगी थीं। इसी के प्रमाण के रूप में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति से सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां लहराईं। आडवाणी ने कहा कि यह साधारणतया उचित नहीं है पर अंत में उन्होंने नोटों के बंडल सदन में ले जाने की अनुमति दे दी। इससे लोकसभा की सुरक्षा का सवाल भी जुड़ा है। आखिर सदस्यों को नोटों का थैला अंदर कैसे लाने दिया गया।यहीं से सवालों का सिलसिला शुरू होता है, जिनका कोई जवाब अब तक उपलब्ध नहीं है।
आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। चार दशक से राजनीति में हैं। गंभीर व्यक्ति हैं और उन्हें संसदीय प्रक्रिया की पूरी जानकारी है। उन आडवाणी ने इन तीन सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष से शिकायत करने की जगह नोटों की गड्डियां लोकसभा में ले जाने की अनुमति दी। उन्होंने यह भी कहा कि पूरी बातचीत और पैसे देने की घटना की फिल्म एक निजी टेलीविजन चैनल ने तैयार की है। इसके बारे में संबंधित सांसद जानकारी देंगे। सांसद बाद में मीडिया के सामने आए तो उनके साथ भाजपा के दो वरिष्ठ नेता थे- गोपीनाथ मुंडे और प्रकाश जावड़ेकर। जब सांसदों से पूछा गया कि अमर सिंह ने जो आदमी भेजा, उसका नाम क्या है? चैनल कौन सा है? मुंडे और जावड़ेकर ने उन्हें जवाब देने से रोकते हुए कहा, ‘आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है।एक सवाल चैनल के बारे में है। पत्रकारिता के इतिहास की एक अनोखी घटना। चैनल के पास टेप था पर उसने इसे प्रसारित न करने का फैसला किया। चैनल ने कहा कि वह अपना टेप लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को सौंप देगा। आखिर चैनल ने ऐसा क्यों किया, यह जानना जरूरी नहीं है। जरूरी यह जानना है कि समाचार संगठन का काम किसी राजनीतिक दल की मदद करना है या समाचार का प्रसारण करना।
अगला सवाल इसी से उठता है कि अंतत: इस घटना से किसको लाभ होने वाला है या हो सकता है। यह जानना कठिन नहीं है कि भाजपा इसके केंद्र में है, उसके सांसद केन्द्र में हैं, उसके नेता आडवाणी केंद्र में हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फौरन इसका राजनीतिक चेहरा सामने रख दिया। उन्होंने मांग की कि प्रधानमंत्री को तत्काल अपन पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यही मांग मायावती की ओर से सतीश मिश्रा ने भी की। लोकतांत्रिक इतिहास की इस दुखद और शर्मनाक घटना की पूरी जांच होनी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष को इसका पूरा अधिकार है कि वह सदन में हुई घटना की जांच कराएं और उस पर निर्णय लें।
सदन की गरिमा पर एक गहरा धब्बा लगा है। उसकी गरिमा दोबारा कायम करने के लिए कड़े कदम उठाना अनिवार्य है।इसे किसी एक राजनीतिक दल से जोड़ना ठीक नहीं है। इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं और संसद का मान तथा उसकी गरिमा बनाए रखना सबकी साझा जिम्मेदारी है। यह अहसास सबको होना चाहिए कि परंपराएं बनने में लंबा वक्त लगता है लेकिन उन्हें किसी की अदूरदर्शिता से आसानी से नष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए देश ने नब्बे साल लड़ाई लड़ी और साठ साल उसे सींचा। इस विश्वास प्रस्ताव में सरकार भले जीत गई हो पर दिन की अशोभनीय घटना लोकतंत्र की उसी परंपरा को बड़ा झटका है।

राहगुजर ही राहगुजर है राहगुजर से आगे भी

मां हमेशा मां होती है। नाम जो भी हो। ठुमुकि चलत रामचंद्र वाली कौशल्या। राधा क्यों गोरी वाली यशोदा। या फिर शशिकला, कलावती, सोनिया। बच्चों के नाम भी बदल सकते हैं। देश-काल बदल सकता है। मां नहीं बदलती। बच्चों को बच्चा ही समझती है। देखकर खुश होती है। संतुष्ट नहीं होती। कभी पूरा इत्मीनान नहीं होता। यकीन नहीं होता। कि बच्चा बड़ा हो गया है। अपनी राह तय कर सकता है। चल सकता है। वश चले तो हाथ पकड़कर रास्ता दिखाए। चलना सिखाए। वह जानती है- राहगुजर ही राहगुजर है राहगुजर से आगे भी।

Wednesday, July 23, 2008

राजनीति तो धब्बों की सौगात

जो जीता वही सिकंदर। सिंह इज द किंग। लो जीत गई और रह गई सरकार। जीत लेकिन दागदार। इसी कारण मनमोहन। शायद कम खुश ज्यादा परेशान। एक बला राजनीति। बेदाग थे तब थे गैर राजनीतिक। राजनीति तो धब्बों की सौगात। उनका नहीं कुछ लेना-देना, पर नेता को पड़ेगा सब सहना। दुखदायी रहे दस दिन। बीते दो तो और भी गए गुजरे। कटुता-फरेब। घात प्रतिघात। दुरभिसंधियां। पैसे का खुला खेल। सिद्धांत-नीति फेल। संसद में गिनती ने बाजी मारी। आगे जनता है। उसका विश्वास जीतना एक संकट भारी।

Tuesday, July 22, 2008

धन्यवाद सोमनाथ...

ऐसा कम होता है। लेकिन होता है। वही संसद। वही सांसद। वही सब कुछ। पर दो पहलू। एक ओर खरीद-फरोख्त। सौदेबाजी। शर्मनाक स्थितियां। ऐसी कि चिढ़ हो जाए। नफरत हो। दूसरी ओर आदर झलके। सिर गर्व से ऊंचा हो जाए। एक आदमी दीवार की तरह खड़ा हो। सारे दबाव के बावजूद। निहायत गैरजरूरी लोकतांत्रिक पागलपन के बीच। संविधान की हिमायत में। उसकी हिफाजत के लिए। पूरी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर। सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए। जन और तंत्र दोनों को। वरना तो यह सिर्फ तंत्र हो गया होता। धन्यवाद सोमनाथ।

Sunday, July 20, 2008

ले जाओ एक टुकड़ा लोकतंत्र


भारत एक पहेली है। विकट लोकतांत्रिक पहेली। चित्रात्मक। चित्रलिखित। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। सबसे बड़ी पहेली। कुछ कठिन, कुछ आसान। पहचानिए। और ईनाम जीतिए। ले जाइए एक टुकड़ा लोकतंत्र। जितना हिस्से में आए। लोकतंत्र के टुकड़े हो रहे हैं। चंद्रबाबू ने मायावती से हाथ मिलाया। कोई किसी से हाथ मिला लेता है। कहीं से कहीं चला जाता है। सुबह यहां। शाम वहां। रात का ठिकाना नहीं। एक हाथ मिलाता है। दूसरे के पांव के नीचे से जमीन खिसक जाती है। पहेली में सहेली। झूठी है दोस्त उसकी हथेली कहेगी क्या?

Saturday, July 19, 2008

चल रे घोड़े लोकतंत्र के, बिक भी, दौड़ भी

चल रे घोड़े लोकतंत्र के। सीधे चल। सरपट चल। सोच मत। दाएं-बाएं मत देख। अंग्रेजी में घोड़ा बिकता है। हिंदी में दौड़ता है। तू दोनों कर। बिक भी, दौड़ भी। राजनीति का इक्का ऐसे ही चलता है। लोकतंत्र की आत्मा होती है। अंतरात्मा नहीं होती। आत्मा बेआवाज। अंतरात्मा की आवाज पर। व्हिप का चाबुक। सरपंच पर अविश्वास। पंच बिकाऊ। पंचायत बैठेगी। सब होगा। जोड़तोड़। तोड़फोड़। सब संभव। सब चलता है। इसलिए तू भी टुटहे इक्के को संसद पहुंचा दे। चाबुक के सहारे ही सही। चल रे घोड़े लोकतंत्र के।

आजकल बहुत बे-करार हैं आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के दूसरे सबसे कामयाब नेता लालकृष्ण आडवाणी इन दिनों बहुत बेचैन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने मुखौटे के बावजूद पार्टी के सर्वोच्च नेता बने और रहे। वाजपेयी के चुनावी राजनीति से हटने के बाद आडवाणी खेमा और स्वयं आडवाणी खुद को उनका उत्तराधिकारी मान रहे हैं। यह सोचकर चल रहे हैं कि अब की उनकी बारी है। यही उनकी बेचैनी की वजह भी है। एक डर है कि सियासत में कहीं उनकी लकीर वाजपेयी द्वारा खींची गई लकीर से छोटी न रह जाए। अब जमाना एक पार्टी शासन का नहीं रह गया है इसलिए सियासत में उदारता का मुखौटा पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि आडवाणी के पास मुखौटा है ही नहीं। वह जैसे है, वैसे हैं.
आडवाणी समझते हैं कि राजनीति ‘जैसे है, वैसे है, वाले रूप से नहीं चलने वाली है। इसके लिए कई मुखौटे चढ़ाने-उतारने पड़ेंगे। ताकि तमाम छोटी-बड़ी मझोली सियासी जमातों के लिए जगह बनी रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस मामले में विफल नहीं कहा जा सकता। वह एक कामयाब प्रयोग था। तब से अब में केवल एक फर्क है। तब नेतृत्व वाजपेयी कर रहे थे, जबकि अब कमान आडवाणी के हाथ में है। इसे गुजरात दंगों के संदर्भ में बहुत साफ ढंग से देखा और समझा जा सकता है।
दंगों के बाद वाजपेयी ने राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से राजधर्म निभाने को कहा था। अब चुनावों के लिए पूरे देश में गुजरात मॉडल लागू करने की बात होती है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सफलता के बाद इस पर जोर ज्यादा ही बढ़ा है।इसीलिए आडवाणी बेचैन हैं। तरकीबें सोच रहे हैं कि किसी तरह अल्पसंख्यक मुसलमान उनके साथ आ जाएं! वे भाजपा और उनके सहयोगी संगठनों के सारे गुनाह माफ कर दे। भूल जाएं कि छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। गुजरात के दंगे विस्मृत कर दें। यह याद न रखे कि नरोदा पटिया कोई जगह है।
यह वाजपेयी के मुखौटे और नेतृत्व का कमाल था कि 2004 में आम चुनावों से एन पहले अटल हिमायती कमेटी बनी। जगह-जगह घूमी। हालांकि उसका असर अधिक नहीं हुआ पर यह मुस्लिम-भाजपा संबंधों की एक बड़ी कड़ी थी। आडवाणी इसे दोहराने की कोशिश में लगे हैं। चाहते हैं कि ऐसा आम चुनाव से पहले हो जाए तो उसकी सार्थकता इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें भी देख लें।आडवाणी की बेचैनी और बेसब्री समझ में आती है। भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश किया है और उन्हें पता है कि अगर उनका नंबर इस बार नहीं आया तो शायद आएगा भी नहीं। जब से मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-राजनीति वाले लटके-झटके शुरू किए हैं, यह लगभग तय माना जा रहा है कि आम चुनाव जल्दी और समय से पहले हो जाएंगे। लोकतंत्र के विश्वविद्यालय परिसर में सबने अपने-अपने ढंग से इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। परिसर में ऊहापोह की स्थिति। सब बेचैन, करार की स्थिति नहीं। पर सबसे बेकरार आडवाणी हैं।
बेकरारी और बेचैनी इस हद तक है कि वह अपना नारा तक बदलने को तैयार हो गए हैं ताकि किसी तरह अल्पसंख्यक यानी कि मुसलमान भाजपा के पाले में आ जाएं।भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक में आडवाणी ने हिंदू हित का नारा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा। आडवाणी ने यह बदलाव निश्चित रूप से सोच-समझकर किया है। वह चाहते हैं कि आम जनता और खासकर मुसलमान ‘हिन्दू हितों की जगह राष्ट्रहित पढ़ें। वह भाजपा को इफ्तार की दावतों के नाम पर सियासत से एक कदम आगे ले जाना चाहते हैं। तुष्टीकरण की राजनीतिक मुहावरेदारी बदलना चाहते हैं।
भारतीय राजनीति को तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता जसे तमाम नए शब्द देने वाली भाजपा जानती है कि ऐसे नवगढ़िए शब्दों का दरअसल कोई अर्थ नहीं होता। सहूलियत होती है। जब ठीक लगा, अपने हक में इस्तेमाल किया। नहीं लगा तो छोड़ दिया या उसकी आक्रामकता सुविधानुसार कुछ डिग्री कम कर दी।भारतीय जनता पार्टी का मुस्लिम चेहरा शायद पार्टी को यह समझाने में कामयाब रहा कि भारतीय मुसलमान वोट के अपने अधिकार को बहुत संजीदगी से लेता है। उसे अपनी ताकत मानता है। वोट डालना उसके लिए मतदान के दिन की छठी नमाज है। वह वोट जरूर डालता है। इसी वजह से भारत के वर्तमान राजनीतिक माहौल में उसकी अहमियत केवल आबादी के प्रतिशत की नहीं रह जाती। उससे लगभग डेढ़ गुना ज्यादा बढ़ जाती है। भाजपा को इसका अंदाजा हो गया है। उसे पता चल गया है कि केवल हिंदू हित की बात करने और हिंदू वोट के सहारे सरकार बनाना तो दूर, लोकसभा में दो सौ का आंकड़ा छूना भी असंभव है।
आडवाणी बेचैन हैं क्योंकि वह जानते हैं कि देश में मुसलमानों की आबादी भले पंद्रह प्रतिशत के आसपास है पर चुनावी गणित में मतदाताओं के रूप में यह पच्चीस प्रतिशत तक पहुंच जाता है। हर चौथा वोट उन्हीं का होता है। इसे अनदेखा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।

Thursday, July 17, 2008

क्या यह बाईस तारीख की तस्वीर है?

जुबान झूठ बोल सकती है। उसकी फितरत है। आंखों का अंदाज-ए-बयां और है। वे कम बोलती हैं। पर जब बोलती हैं-सिर्फ सच बोलती हैं। चीख-चीखकर। कुछ भी नहीं छिपातीं। सब कह देती हैं। पलक झपकते। जुबान कहती है- हम होंगे कामयाब। आंखें उसका साथ नहीं देतीं। होंठ हिल-कांपकर रह जाते हैं। एक जरा चिंता। पीड़ा। असंभव का खौफ। कल क्या होगा। उम्मीद नजर ही नहीं आती। यकीन नहीं होता। क्या यह बाईस तारीख की तस्वीर है। आने वाले कल की हकीकत। उसका पूरा फसाना।

Wednesday, July 16, 2008

कामरेड... नहीं, यह लोकसभाध्यक्ष का घर

कामरेड... नहीं, नहीं, यह लोकसभाध्यक्ष का घर। इस समय शांत, निस्तब्ध। अंदर से लेकिन बेचैन-अशांत। राजनीति के अंधियारे में अंतरात्मा का झिलमिल सा दिखता-सोमनाथ-एक नाम। यह एक पद या कि महज सांसद का एक नाम। एटमी डील की राजनीति। बेहद संकरी उसकी पगडंडी। इसमें फंस गया एक बड़ा संवैधानिक डीलडौल। अंकों की गिनती को देखो तो कटारा, पप्पू यादव, अतीक, सूरजभान और वैसे ही एक सोमनाथ। मोल-तोल का बाजार गर्म। खरीद-बेच की उधेड़बुन। कैसे बचे कुछ इसकी एकला कश्मकश।

Sunday, July 13, 2008

कब कौन तिनका बन सहारा दे?

राजनीति माया का एक रूप। अनबुझ पहेली। बड़ी बेरहम। कौन दुश्मन, कौन दोस्त। पता नहीं। कल तक साथ थे। किनारे हो गए। कब कौन तिनका बन सहारा दे। करार पर। सभी बेकरार। मची है रार। असलियत से दूर। आंखें मूंदे। अनाड़ी बनने का नाटक। नाटक खूब चलता है। बिना जमाए जमता है। अपनी डफली। अपना राग। अपना हित सर्वोपरि। देशहित बेकार। बसी कुर्सी की चाहत। लेकिन जनता देख रही है। समझ रही है हकीकत। नेता एक बार चूक जाए। पर जनता नहीं चूकती। रहनुमा याद रखें तो अच्छा है।

Saturday, July 12, 2008

जब प्रेम तुम्हें बुलाए तो उसके पीछे-पीछे जाओ

'द प्राफेट' : अलमुस्तफा उसका नाम था- भाग दो...

जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसके पीछे-पीछे जाओ, हालांकि उसकी राहें टेढ़ी-मेढ़ी और मुश्किल हैं। जब उसके पंख तुम्हें ढंक लेना चाहें तो खुद को उसके हवाले कर दो। भले ही उन पंखों छुपी तलवार तुम्हें घायल कर दे। और वो जब तुमसे बोले तो उस पर भरोसा करो। भले ही उसकी आवाज तुम्हारे सपनों को चकनाचूर कर डाले। जसे तूफान किसी बगिया को उजाड़ डालता है। क्योंकि प्रेम जिस तरह तुम्हें मुकुट पहनाएगा, ताजपोशी करेगा, उसी तरह वो तुम्हें सूली पर भी चढ़ाएगा। वो तुम्हें पनपने देगा और तुम्हारी काट-छांट भी करता रहेगा। प्रेम जिस तरह तुम्हारी ऊंचाइयों तक चढ़कर सूरज की किरणों में कांपती हुई तुम्हारी कोमल कोंपलों की देखभाल करता है। उसी तरह वो गहराई तक उतरकर जमीन में दूर तक फैली हुई तुम्हारी जड़ों को भी झकझोर सकता है। अनाज के बालों की तरह वह तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। भूसी दूर करने के लिए तुम्हें फटकता है। पीसकर तुम्हें सफेद बनाता है और नरम बनाने तक तुम्हें गूंथता है। और फिर तुम्हें अपनी पवित्र आग पर सेंकता है जिससे तुम ईश्वर की थाली की पावन रोटी बन सको। प्रेम तुम्हारे साथ ये सारा खेल इसलिए करता है ताकि तुम अपने दिल के रहस्यों को जान सको। समझ सको। और उसी समझ और ज्ञान से जिंदगी की दुनिया का एक हिस्सा बन सको। लेकिन अगर किसी डर से तुम केवल प्रेम की शांति और उसके आनंद की ही कामना करते हो वही चाहते हो तो तुम्हारे लिए भला होगा कि तुम अपना नंगापन ढक लो और प्रेम के खलिहान से बाहर निकल जाओ। ऐसी दुनिया में घर बनाओ जहां मौसम आते-जाते न हों, जहां तुम हंसो लेकिन पूरी हंसी नहीं, और रोओ तो, लेकिन पूरे आंसुओं के साथ नहीं। प्रेम किसी को अपने आपके सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने आप के सिवा कुछ लेता है। प्रेम न तो किसी का मालिक बनता है, न ही किसी को मालिकाना हक देता है। क्योंकि प्रेम, प्रेम में ही पूरा हो जाता है। जब तुम प्रेम करो तो ये मत कहो कि ईश्वर मेरे दिल में है बल्कि कहो कि मैं ईश्वर के दिल में हूं। और कभी न सोचना कि प्रेम का रास्ता तुम तय कर सकते हो, क्योंकि प्रेम अगर तुम्हें प्रेम के काबिल समझता है तो वो खुद तुम्हारी राह तय करता है। प्रेम खुद को पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं चाहता। अगर तुम प्रेम करो और तुम्हारे दिल में इच्छाएं उठें ही तो वे इस तरह की इच्छाएं हो-मैं पिघल जाऊं बहते हुए झरने की तरह। रात को गीतों से भर सकूं। मैं इंतिहायी नाजुकी की तकलीफ महसूस कर सकूं। प्रेम की अपनी ही समझ से घायल हो सकूं। अपनी इच्छा से और हंसते-हंसते अपना खून बहता देख सकूं। सुबह उठूं तो दिल के डैने फैले हुए हों और प्रेम से लबरेज एक और दिन पाने के लिए शुक्रगुजार हो सकूं। दोपहर को आराम कर सकूं और प्रेम के परमानंद में डूब सकूं। दिन ढलने पर अहसानों से भरा हुआ दिल लेकर घर लौट सकूं और फिर रात में प्रिय के लिए इबादत और होठों पर उसकी तारीफ के गीत लेकर सो सकूं।

Wednesday, July 9, 2008

छाड़ानगर में एक रात - भाग दो

अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं। वहां आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं। प्रतिक्रियाएं आम थीं। लोग मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं।


छाड़ानगर में महाश्वेता देवी की उपस्थिति और उनका दर्जा समझ पाना कठिन नहीं था। बाद में जिन छाड़ा घरों में जाना हुआ, हर जगह दीवार पर महाश्वेता की तस्वीर थी। एक परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद स्थानीय लोगों में से किसी ने प्रस्ताव रखा कि मैं छाड़ानगर का एक नाटक देखूं। नाम था-बूधन। नाटककार कोई एक व्यक्ति नहीं था। समुदाय ने मिलकर उसे लिखा था। संगीत यंत्रों के नाम पर थालियां और लोटे। प्रकाश व्यवस्था के लिए एक टिमटिमाता बल्ब और दो लालटेन। बताया गया कि बिजली अक्सर चली जाती है इसलिए लालटेन जरूरी है।नाटक शुरू होने से पहले पात्रों की तलाश शुरू हुई। चार भाई इस नाटक के मुख्य कर्ताधर्ता थे। एक का नाम पूरब था, दूसरे का पश्चिम। तीसरे और चौथे उत्तर और दक्षिण थे। पता चला कि उत्तर को सुबह ही पुलिस उठा ले गई। उसकी जगह दूसरा पात्र खड़ा किया गया। बूधन की पत्नी की भूमिका पश्चिम की पत्नी ने की। नाटक में एक भूमिका महाश्वेता की भी थी। एक टेलीफोन वार्ता के जरिए। बूधन मामले में लोगों को सलाह देते हुए। बताते हुए कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। नाटक का पहला दृश्य विवाह के बाद बूधन और उसकी पत्नी का है। वे बाहर खाना खाते हैं। पत्नी के जिद करने पर बूधन उसे पान खिलाने ले जाता है। वहीं अचानक पुलिस पहुंचती है। बूधन को चोरी के एक मामले में गिरफ्तार करना चाहती है। दोनों इसका विरोध करते हैं। इसके बाद बूधन की पिटाई, गाली गलौज और अंत में पत्नी के सामने उसका गोलियों से भूना जाना।इसी दृश्य के बीच अचानक बिजली चली गई। पर नाटक नहीं रुका। उसी गति से चलता रहा। समझ में आया कि लालटेन इतनी जरूरी क्यों है। अभिनय की दृष्टि से ज्यादातर कलाकारों को प्रशिक्षित अभिनेताओं के समकक्ष रखा जा सकता है। संगीत अपने ढंग का बिल्कुल अनूठा। पटकथा एकदम कसी हुई। लगा कि इसे जस का तस राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में रख दिया जाए तो संभवत: पहला पुरस्कार उसे ही मिलेगा। यह समझ में आता है कि बूधन के बारे में इस नाटक में अभिनय की भाव प्रवणता इसलिए हो सकती है कि वह इसी समुदाय का था। उसकी तकलीफ सबकी साझा तकलीफ है। इसलिए अभिनय जसी कोई बात ही नहीं थी। यह जीवन था। बावजूद इसके, जीवन को मंच पर हूबहू पेश करना आसान काम नहीं है। यह निश्चित रूप से छाड़ा प्रतिभा का कमाल है।पौने दो घंटे का नाटक खत्म होने तक कोई नहीं हिला। इस बीच बिजली कई बार आयी गई। छाड़ानगर की मेहमाननवाजी चलती रही। कभी किसी के घर से चाय बनकर आती तो कभी पकौड़े। लाख मना करने पर कि हमने थोड़ी देर पहले उन्हीं के साथ खाना खाया है, कोई सुनने को तैयार नहीं था। नाटक पूरा होने के बाद अभिनेताओं ने हमसे विदा ली। और हमारे साथ एक कप चाय और पीने की जिद की। लगभग पूरा नाटक मैंने वीडियो कैमरे में रिकार्ड किया। पूरब और पश्चिम तथा पश्चिम की पत्नी वीडियो में अपना प्रदर्शन देखना चाहते थे। अगला एक घंटा उसमें लग गया। तब तक लगभग पूरा छाड़ानगर जाग रहा था। समय था रात के तीन बजे। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि एक रात में पूरा नहीं हो सकता था। भारी मन से वे हमें कार तक छोड़ने आए।अगले दिन मैंने एक दो पत्रकारों और कुछ परिचित लोगों से पिछली रात का जिक्र किया। एक ने मुङो छूकर देखा। पूछा ‘आपको कुछ हुआ तो नहीं। पहले बताते तो पुलिस का बंदोबस्त करवा लेते। वहां जाना बिल्कुल ठीक नहीं था। कार के पहिये भी निकाल कर बेच लेते। आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं।ज् ऐसी प्रतिक्रियाएं आम थीं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं। अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं।

छाड़ानगर में एक रात

पर मैं छाड़ानगर जाना चाहता था। दस हजार की आबादी वाली उस बस्ती में, जिन्हें अपराधी नगर के रूप में देखा जाता है। उनका खौफ इतना है कि रात में पुलिस भी उस बस्ती में नहीं जाती। पुलिस वैसे भी वहां तभी जाती है, जब उसे वसूली करनी होती है। छाड़ानगर में, जाहिर है, छाड़ा लोग रहते हैं। एक जनजाति, जिसे अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। तब से यह कलंक उनके माथे पर है।

पहला भागः

छाड़ानगर को सब जानते हैं। और कोई नहीं जानता। अहमदाबाद से बिल्कुल सटा हुआ। हवाई अड्डे के रास्ते में। लेकिन सबसे कटा हुआ। कोई उस तरफ जाता ही नहीं। कुछ डर के मारे, कुछ भ्रांतियों की वजह से। छाड़ानगर का नाम लेते ही एक अजीब सी असहज स्थिति पैदा होती है। सवाल होता है कि आप वहां जाना ही क्यों चाहते हैं। पर मैं छाड़ानगर जाना चाहता था। दस हजार की आबादी वाली उस बस्ती में, जिन्हें अपराधी नगर के रूप में देखा जाता है। उनका खौफ इतना है कि रात में पुलिस भी उस बस्ती में नहीं जाती। पुलिस वैसे भी वहां तभी जाती है, जब उसे वसूली करनी होती है।
छाड़ानगर में, जाहिर है, छाड़ा लोग रहते हैं। एक जनजाति, जिसे अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। तब से यह कलंक उनके माथे पर है। अहमदाबाद में कोई वारदात हो तो पहला शक छाड़ानगर पर जाता है। गिरफ्तारियां वहीं से होती हैं। करीब एक तिहाई आबादी इस धरपकड़ की वजह से जेल में रहती है। उनसे सवाल नहीं पूछे जाते। मान लिया जाता है कि वे अपराधी हैं। रात दस बजे मैं छाड़ानगर के बाहर था। साथ में कुछ मित्र और एक वकील। वकील साहब छाड़ा समुदाय के ही हैं। दिन में उनसे भेंट हुई थी। तभी मन बना लिया था कि छाड़ानगर जाना है। वकील अपना दुख-दर्द बता रहे थे। उन्होंने कहा ‘मैं पढ़ा लिखा हूं। वकालत की डिग्री है। अदालत से मान्यता मिली है। पर कोई मेरे पास मुकदमा लेकर नहीं आता है। मैं सिर्फ छाड़ा लोगों का वकील होकर रह गया हूं।
छाड़ानगर में स्थानीय लोगों ने हमारा स्वागत किया। दो महिलाओं ने गेंदे के फूलों की बनी माला पहनाई। हमारा पहला पड़ाव एक खस्ताहाल कमरा था। छाड़ानगर की लाइब्रेरी। पुस्तकालय में दो अखबार आते हैं। करीब पांच सौ किताबें वहां हैं। अच्छी किताबें। एक पूरा हिस्सा महाश्वेता देवी की किताबों का है। नजर पड़ी तो देखा कि वहां एक मेज पर महाश्वेता की फ्रेम में लगी तस्वीर रखी है। सामने जलती हुई अगरबत्ती। लोगों ने बताया कि महाश्वेता सचमुच की देवी हैं। उन्होंने हमारी बात की। हमारा पक्ष लिया। मुकदमा लड़ीं। वरना बूधन का मामला पुलिस ने कब का रफा-दफा कर दिया होता। उन्हीं में से एक ने स्वीकार किया कि छाड़ानगर में शराब की अवैध भट्ठियां हैं। पुलिस ने सारी अवैध भट्ठियां यहीं सीमित कर दी हैं। इससे उनकी वसूली ठीकठाक और जल्दी हो जाती है। लोगों का कहना था कि भट्ठियां उनकी मजबूरी हैं। उनके पास आमदनी का दूसरा कोई जरिया नहीं है। कोई उन्हें काम नहीं देता। झाडू पोंछे का भी नहीं।

Tuesday, July 8, 2008

दहशतगर्दी टुकड़खोर है

दहशतगर्दी टुकड़खोर है। टुकड़ों में रहती है। टुकड़ों पर पलती है। उसका काम है टुकड़े-टुकड़े करना। छोटे से दायरे में। बहुत सीमित दायरे में। बहुत सीमित असर के साथ। यह दायरा बड़ा भी हो भी नहीं सकता। बीच-बीच में अपनी औकात दिखाता रहता है। टुकड़खोर की औकात। पर जिंदगी दहशत पर भारी पड़ती है। हमेशा। जैसे काबुल में। तबाही हुई। लेकिन जिंदगी तबाह नहीं हुई। ललक बच गई। जिंदा रहने की। उम्मीद की पूरी दुनिया के साथ दर्द है पर खौफ नहीं। हाथ उठे हुए हैं। काबुलीवाले को पुकारते हुए।

Monday, July 7, 2008

अजनबी और दोस्त दो शब्द नहीं रह जाते

राजनीति अनिश्चितता का नाम है। कब क्या होगा-कुछ पता नहीं। अजनबी और दोस्त दो शब्द नहीं रह जाते। एक हो जाते हैं। अजनबी दोस्त बनते हैं, दोस्त अजनबी। यह मौकापरस्ती भी है। एक साथ चलने की मजबूरी। इसके पीछे भी कुछ है। किसी को घेरने की। किसी से हिसाब बराबर करने की। अपने को सुरक्षित रखने की। भीतर ही भीतर गोटियां चली जाती हैं। एक-दूसरे पर भारी पड़ने की। करार पर मिलन बेकरारी। लेकिन यह बेजारी में न बदले। लोग बेजार हुए तो ज्यादा गड़बड़ हो सकती है।

Sunday, July 6, 2008

कि मुसीबत में उम्मीद की चादर तनी रहे..

वह चिराग-ए-चिश्त हैं। चिश्तिया विरासत की शान। शहे औलिया हैं। औलिया लोगों के बादशाह। ग़रीब नवाज़ हैं। कायम है ख्वाजा जी, महाराज की बादशाहत। जमीनी बादशाह आए-गए। बादशाहतें खत्म हुई। मोइनुद्दीन वहीं हैं। उतने ही उदार। नीयत और मंशा से बेपरवाह। उनसे उम्मीद की खेती नहीं सूखती। कोई नहीं लौटता खाली हाथ। कुछ न कुछ सबकी झोली में। लोकतंत्र में वोट और सीटों की दरकार। मन्नत मांगते हैं। चादर चढ़ाते हैं। कि मुसीबत में उम्मीद की चादर तनी रहेगी। बचा ले जाएगी। महंगाई, मुद्रास्फीति और बे-करारी से।

Saturday, July 5, 2008

नयी नजर, उड़ती तितलियां और प्यार का गुनाह

इस्लामी दुनिया की ये किताबें एक नया नजरिया पेश करती हैं। खासतौर पर महिलाओं की स्थिति के बारे में। संभव है कि अब ऐसी किताबें सामने आएं और महिला आत्मकथात्मक लेखन को नए सिरे से परिभाषित करें। यह संभावना हमेशा बनी रहनी चाहिए कि जिंदगियां तराशने, सपने, विचार और ख्वाहिशों को कल्पना में जोड़ने की आजादी सबको होगी। कल्पना पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। प्रस्तुत है 'नई नजर और उड़ती तितलियां' का अंतिम भाग.


एक और किताब नोरमा खोरी की है। 'फारबिडेन लव।' वर्ष 2006 में इस किताब के छपने के बाद हंगामा हो गया। जार्डन की रहने वाली नोरमा ने किताब में अपने साथ-साथ अपनी एक दोस्त डालिया की कहानी कही है। महज 19 साल की उम्र में दोनों लड़कियों ने अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने तय किया कि वे परिवार की छाया से निकलकर अपने तईं कुछ करेंगी, उन्होंने ऐसा किया भी। अम्मान में दोनों लड़कियों ने मिलकर ब्यूटी पार्लर खोला जो शहर में अपने ढंग की एक नई चीज थी। उन्हें इस पार्लर के साथ आजादी का एहसास भी मिला, जो काम के बदले मिलने वाले पैसे के मुकाबले कहीं बड़ा था। पार्लर के पीछे एक कमरा था जहां, जब ग्राहक न हों, दोनों बैठकर दुनिया-जहान की बातें करती थीं। इसमें हकीकत से ज्यादा सपने थे। बीच-बीच में पर्स में छिपाकर लाई गई सिगरेट के कश।
एक दिन नोरमा पार्लर में नहीं थी। डालिया अकेली थी। एक पुरुष ग्राहक उनके पार्लर में आया। रायल सेना का एक ईसाई सैनिक। उसका नाम माइकल था। माइकल ने डालिया और फिर डालिया से सुने किस्से के आधार पर नोरमा के सपनों में रंग भर दिए। डालिया को एक लड़के से प्रेम था, लेकिन अम्मान की सामाजिक व्यवस्था में यह गुनाह माना जाता था। दो वर्ष तक यह राज सिर्फ डालिया और नोरमा के बीच रहा। लेकिन बाद में डालिया के भाई और उसके पिता को इसकी खबर मिल गई। डालिया की मां उनकी राजदार थीं पर घर की सामाजिक व्यवस्था में उनकी आवाज के कोई माने नहीं थे।
एक सुबह नोरमा को खबर मिली की डालिया अब दुनिया में नहीं है। उसकी हत्या कर दी गई है। हत्यारे उसी घर में रहते थे-उसके पिता और उसके भाई। लाश लाकर घर के बाहर रखी गई तो मां को ये भी हक नहीं था कि वो रो सके। सब्जी और गोश्त काटने वाले चाकू से डालिया को गोद डाला गया था। उसकी छब्बीसवीं सालगिरह के ठीक दो महीने बाद। नोरमा के लिए अब अम्मान का कोई मतलब नहीं रह गया था। उसकी सहेली दुनिया में नहीं थी। उसका सपना आधा रह गया था। उसके लिए अम्मान में स्थितियां अच्छी नहीं थी। ऐसे में माइकल ने उसकी मदद की।
नोरमा की किताब पर जार्डन में खासा विवाद हुआ। कहा गया कि यह सच्ची कहानी नहीं है। सवाल यह है कि इज्जत के नाम पर हत्या जार्डन की हकीकत है या नहीं। नोरमा का झूठ संभवतः उसी वजह से हो, जिससे अजर नफीसी ने अपनी किताब में अपने पात्रों के नाम बदल दिए।
इस्लामी दुनिया की ये किताबें एक नया नजरिया उपलब्ध कराती हैं। खासतौर पर महिलाओं की स्थिति के बारे में। बांग्लादेश की तस्लीमा नसरीन को भी इसी श्रृंखला से जोड़ा जा सकता है। लज्जा को विशेष रूप से। संभव है कि अब ऐसी किताबें सामने आएं और महिला आत्मकथात्मक लेखन को नए सिरे से परिभाषित करें। अजर नफीसी ने एक तरह से इस ओर इशारा किया। कहा कि मुझे अक्सर सपना आता है कि मौलिक अधिकार कानून में एक और अधिकार जुड़ गया है- कल्पना का अधिकार। यह संभावना हमेशा बनी रहनी चाहिए कि जिंदगियां तराशने और सपने, विचार और ख्वाहिशों को कल्पना में जोड़ने की आजादी सबको होगी। कल्पना पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा।

नयी नजर और उड़ती तितलियां- दो

स्लामिक देशों में महिलाओं की स्थिति पर महिलाओं ने ही अपने दर्द बयान किए हैं। कई किताबें भी लिखी गई हैं। उन्हीं किताबों की पड़ताल करता लेख, नई नजर और उड़ती तितलियां का दूसरा भाग
मुख्तारन माई पाकिस्तान की हैं। उनकी किताब 'इन द नेम आफ आनर' मुशर्रफ की किताब 'इन द लाइन आफ फायर' से मात्र दो महीना पहले ही आई। मुख्तारन माई न तो बहुत पढ़ी लिखी हैं और न ही लेखिका हैं। मगर, संवेदना और सामाजिक ताने-बाने की जटिलता उस किताब के हर पन्ने से झलकती है। 1972 में पैदा हुईं मुख्तारन बी जटोई इलाके में मीरवाला गांव की रहने वाली हैं। एक स्थानीय बलूच पंचायत ने उन्हें इज्जत के नाम पर सजा सुनाई- उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाए। मस्तोई बलूच कबीले के कुछ लोगों ने ऐसा ही किया। आमतौर पर औरतें इस तरह की घटना के बाद आत्महत्या कर लेती हैं लेकिन मुख्तारन उसके खिलाफ बोलीं, लड़ीं, जीतीं और कामयाब रहीं, एक हद तक। अदालत ने बलात्कारियों को सजा सुनाई और कहा कि मुख्तारन को कबीला जुर्माना की पूरी रकम दे। मुख्तारन को विदेश से भी काफी सहायता मिली। दरअसल, मुख्तारन का बड़ा रूप सिर्फ मुकदमा जीतने और गुनहगारों को सजा दिलाने में नहीं दिखता। वह उसके बाद नजर आता है। मुख्तारन ने मीरवाला में पूरी रकम लगाकर लड़कियों के लिए स्कूल खोला क्योंकि उनका मानना था कि पढ़ी-लिखी होने पर उनके साथ इस तरह का अन्याय नहीं होगा। वे अपनी बात कह सकेंगी और उनकी बात सुनी जाएगी। मुख्तारन माई के लिए खतरा अब भी कम नहीं हुआ है। बलात्कारी मस्तोई कुछ समय में जेल से छूटकर गांव लौट आएंगे। धमकियां अब भी मिलती हैं लेकिन मुख्तारन माई का नाम इतना बड़ा हो गया है कोई आसानी से उन्हें छूने की हिम्मत नहीं करेगा। यह बात मुशर्रफ के उस बयान के बाद और साफ हो गई जिसमें उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था, कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, कुछ औरतें विदेश जाने और पैसे ऐंठने के लिए ऐसी कहानियां सुनातीं हैं। मुशर्रफ उस समय अपनी किताब के प्रचार के सिलसिले में अमेरिका में थे। उनके इस बयान पर दुनियाभर में प्रतिक्रिया हुई और अंततः राष्ट्रपति सचिवालय को कहना पड़ा कि उनके बयान को गलत ढंग से छापा गया है। 29 साल की मुख्तारन माई को अमेरिकी सीनेट को संबोधित करने के लिए बुलाया गया। उसी समय उन्होंने पहली बार गांव के बाहर कदम रखा। टाइम पत्रिका में निकोलस क्रिस्टाफ ने लिखा, मैं नहीं जानता कि गांधी या मार्टिन लूथर किंग को देखने वाले पत्रकारों को क्या अहसास हुआ होगा लेकिन मुख्तारन माई के वजूद में मुझे महानता, सरापा, सिर से पैर तक दिखती है।

Friday, July 4, 2008

नयी नजर और उड़ती तितलियां

स्लामी देशों में औरतों के दुख-दर्द को बताती कई किताबें आयीं। इनफिडेल, थाउजेंड स्प्लेंडिड सन्स और द बुकसेलर आफ काबुल, में इन देंशों की स्त्रियों के दुखों की कई मिसालों से पिछले लेख में आप रू-ब-रू हुए। इस बार इन द नेम आफ आनर, रीडिंग लोलिता इन तेहरान और फोरबिडेन लव। इस्लामी दुनिया पर ये किताबें हमारे सामने एक नया नजरिया रखती हैं। प्रस्तुत है इस्लामी दुनिया में महिलाओं की स्थिति की पड़ताल करती कुछ किताबों पर विशेष लेख।

पहला भागः

' ईरानी इस्लामी गणराज्य के शुक्रगुजार हैं कि उसने हमें तमाम चीजें नई रोशनी में देखने की सलाहियत दी, जिसे हम आमफहम मान बैठे थे। हम इस्लामी गणराज्य के कर्जदार हैं कि उसने हमें पार्टियां करने, सार्वजनिक रूप से आइसक्रीम खाने, प्रेम करने, एक दूसरे का हाथ थामे चलने, लिपिस्टिक लगाने, ठहाका लगाकर हंसने और तेहरान में लोलिता पढ़ने का शऊर दिया।'
अजर नफीसी ने, जाहिर है यह टिप्पणी व्यंग्य में की है। वह खुद नव्बे के दशक के आखिरी वर्षों में इस माहौल से गुजरीं और अंततः मजबूरी में उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। तेहरान विश्वविद्यालय में अजर नफीसी को कुछ किताबें पढ़ाने पर तेहरान की धार्मिक पुलिस की ज्यादती सहनी पड़ी। उसके प्रोफेसर खफा हो गए और अंत में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अजर का इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ और दो साल बाद उन्हें तेहरान विश्वविद्यालय में बुर्का न पहनने की वजह से निकाल दिया गया।
अजर नफीसी की किताब 'रीडिंग लोलिता इन तेहरान' उनकी निजी जिंदगी की दास्तान बयान करने के साथ उन सात लड़कियों की कहानी कहती है, जिन्होंने छिप-छिपाकर '1984 द ग्रेट गैट्स्बी', 'मैडम बोवेरी' और 'प्राइड एंड प्रीज्यूडिस' पढ़ी। लेकिन, सबसे ज्यादा असर 'लोलिता' का रहा। अजर कहती हैं कि इन लड़कियों के साथ 'लोलिता' पढ़ते हुए उन्हें अक्सर एक तितली का ख्याल आता है, जिसे पिन के सहारे दीवार में चुन दिया गया है। विश्वविद्यालय में सीमित किताबें पढ़ाने का बंधन तोड़ने के लिए अजर ने इन लड़कियों को अपने घर बुलाया, हर बृहस्पतिवार। कई साल तक।
इन लड़कियों में नसरीन, मन्ना, महशिद, मित्रा, सनाज, यासी और अजीन शामिल थीं। एक लड़का भी था-नीमा। किताब में ये मूल चरित्रों के बदले हुए नाम हैं। हालांकि नसरीन अब इंग्लैंड में है, यासी टेक्सस में, अजीन कैलीफोर्निया और मित्रा कनाडा में। मन्ना, महशिद और नीमा ईरान में ही हैं। सनाज का अजर ने किताब के अंत में उल्लेख नहीं किया है। अजर ने पहली बार इन लड़कियों के घर पहुंचने पर उनकी फोटो खींची थी। काले बुर्के में सर से पांव तक ढकी हुई, सिर्फ आंखें नजर आती।
दो साल बाद अजर ने इन लड़िकयों की एक और तस्वीर खींची। तब तक वे साथ-साथ कई किताबें पढ़ चुकी थीं। इस तस्वीर में लड़कियां जींस, रंग बिरंगे कुर्ते और टी-शर्ट में है। घर में दाखिल होते ही बुर्का उतार देती थीं। ये दो तस्वीरें अजर की सबसे कीमती धरोहर हैं, जिन्होंने साबित किया है कि किसी को किताब भी कितना बदल सकती है, अंदर तक।

Wednesday, July 2, 2008

'द प्राफेट' : अलमुस्तफा उसका नाम था

खलील जिब्रान का व्यक्तित्व करिश्माई था। वे अरबी, अंगरेजी फारसी के ज्ञाता, दार्शनिक और चित्रकार भी थे। उन्हें अपने चिंतन के कारण जाति से बहिष्कृत कर देश निकाला तक दे दिया गया था। उनका जन्म लेबनान के 'बथरी' नगर में हुआ था। उनमें अद्भुत कल्पना शक्ति थी। खलील जिब्रान की पुस्तक 'द प्राफेट' का दुनिया की 132 भाषाओं में अनुवाद हुआ है। मैंने भी इस पुस्तक की हिंदी में पुनर्रचना की है। और उसे अपनी आवाज दी। उस आडियो कैसेट को तो आपमें से बहुतो ने सुना होगा। पर जिन्होंने उसे नहीं सुना उनके लिए वह अमर रचनाएं पेश कर रहा हूं। यह आडियो कैसेट 13 भागों में है। इसका हर भाग आपको समय-समय पर पढ़ने को मिलेगा। हम आपको अल मुस्तफा की कुछ दुर्लभ पेंटिंग्स भी समय-समय पर उपलब्ध कराएंगे।

पहला भाग :

लमुस्तफा उसका नाम था। बारह बरस तक उसने आरफलीज नगर में उस जहाज का इंतजार किया था, जो उसे अपनी जन्मभूमि की तरफ ले जाने वाला था। शहर के बाहर की टीकरी पर वो रोज समुंदर की ओर देखता था। और उस दिन इलूल महीने की सातवीं तारीख को जब फसल काटने के दिन थे। उसे अपना जहाज कोहरे के साथ आता नजर आया। उसके दिल के दरवाजे खुल गए और उसकी खुशी पंख फड़फड़ाकर समुंदर में दूर तक फैल गई। फिर उसने आंखें बंद की और अनंत शांति में डूबकर इबादत की। जब अलमुस्तफा टीकरी से नीचे उतर रहा था, तो उस पर उदासी के बादल छा गए। वो सोचने लगा कि मैं यहां से कैसे जा सकूंगा। बिना दुख महसूस किए, बिना अपने ज़ज्बात पर घाव सहे। जहाज बंदरगाह के बेहद करीब पहुंच गया था। उसने देखा। और जैसे ही वो मुड़ा सामने दूर-दूर तक लोग नजर आ रहे थे। उसी की ओर बढ़ते हुए। वे उसी का नाम भी ले रहे थे। सबका कहना था कि उसे शहर छोड़ कर नहीं जाना चाहिए। लोगों ने मनुहार की। उसे अपना लाड़ला बेटा कहा। चिरौरी, विनती की। पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। सिर झुका लिया। जो पास खड़े थे उन्होंने उसकी छाती पर टपकते आंसू देखे। तभी शहर की इबादतगाह से एक औरत बाहर आई। उसका नाम था अलमित्रा। उसने कहा, तुम प्रभु के पैगंबर हो। अब तुम्हारा जहाज आ पहुंचा है और तुम्हारा जाना जरूरी है। तो जाओ। हमारा प्रेम तुम्हारा बंधन नहीं बनेगा। फिर भी हम तुमसे प्रार्थना करते हैं, कि जाने से पहले तुम सच के अपने भंडार में से हमें कुछ दे जाओ। जो हम अपनी संतानों को देंगे। और वे अपनी संतानों को। और वो अमर रहेगा। जीवन और मौत के बीच में जो भी है। और उसके बारे में जो भी तुम जानते हो। हमें बताओ। फिर लोगों ने प्रेम, विवाह, बच्चे, दुख, खुशी, घर, कपड़े, कानून, समय, सुंदरता भलाई-बुराई, इबादत, धर्म और मौत और न जाने किन-किन विषयों पर उससे सवालात किए। अलमुस्तफा ने एक-एक करके सबको जवाब दिया।

आने वाली नस्लें नदी को सड़क न समझें


जो जहां है, रहना चाहिए। जैसा है, करीब-करीब वैसा ही। नदी को नदी। पहाड़ को पहाड़। सड़क को सड़क। ताकि हम बचे रहें। आने वाली नस्लें नदी को सड़क न समझें। जंगल कट-कटाकर शहर न बन जाएं। यहां एक शहर था। सड़क थी। एक दिन बारिश हुई। झमाझम। सब उलट-पुलट गया। बरसात ने दिल तोड़ दिया। नदी सूखकर सड़क हो गई। फिर तो सड़क को नदी बनना ही था। ऐन मुंबई में। मायानगरी। यह माया नहीं है। असली पानी है। असली मुसीबत। खेल-खेल में पानी-पानी।