Sunday, June 29, 2008

एक चादर कबीर की थी


धागा तैयार है। ताना-बाना बुना जा रहा है। करघा घूमने को है। रंगरेज चाक-चौबंद। झीनी चादर बुनने को। एक चादर कबीर की थी। एक राजनीति की है। कभी मुकम्मल नहीं बनी। अबकी भी नहीं बनेगी। यानी कि कुछ नहीं बदला। पूरी चादर अकेले नहीं बनती। सबको पता है। जोड़-गांठकर बनानी पड़ेगी। पैबंद लगाकर। और फिर सहेजकर रखनी होगी। जस-की-तस। कि किसी तरह पांच साल चल जाए। अनगिनत सियासी जुलाहे। लट्ठम-लट्ठ को तैयार। पांव फैलाने को बेसब्र। तेते पांव पसारिए से बेपरवाह। बेफ्रिक कि चादर झीनी है। और छोटी भी।

Saturday, June 28, 2008

हम उसे अलविदा नहीं कहते, सैल्यूट करते हैं

अमेरिकी सैम सौ फीसदी नकली है। फर्जी है। गढ़ा हुआ। डरा हुआ। मोहल्ले का कामचलाऊ सैम अंकल। असली तो भारत में है। और हमेशा रहेगा। हमारा अपना सैम बहादुर। वह‘था' कभी नहीं हो सकता।‘है' ही रहेगा। बहादुरी कभी बीता हुआ कल नहीं होती। दिलेरी, जांबाजी, दूरदर्शिता इतिहास नहीं हो सकती। साहस कमजोर लोगों की शरणगाह है। हिम्मत का वर्तमान बहादुर होता है। हमारे सैम में यह सब है। गजब की प्रतिबद्धता। देश रचने की। हम उसे अलविदा नहीं कहते। सैल्यूट करते हैं। चौड़े सीने और गर्व से उठे माथे के साथ।

Friday, June 27, 2008

तोड़ दो दोस्त यह मकड़जाल


फंस जाना एक तरह से धंस जाना है। गहरे। और गहरे। लेकिन दूसरी तरह से नहीं भी है। धंसना अक्सर दूसरे की वजह से होता है। फंसना, अपनी वजह से। हमेशा। जानते-बूझते। कई बार अनजाने में। मकड़ी दोषी नहीं है। वह जाल बुनती है। इंतजार करती है। कि शिकार आए। उसकी जिंदगी चले। उसका जीवन-व्यापार। यहां मौत का व्यापार है। अरबों रुपए का। फैला हुआ। ललचाता, लुभाता। सब्जबाग दिखाता। कि आओ और फंसो। इस फंसने से बचना कठिन नहीं है। धंसने से निकलना थोड़ा मुश्किल है। असंभव कतई नहीं। तोड़ दो दोस्त यह मकड़जाल।

खाली जगह भरो

खाली जगह सिर्फ कल्पना है। हकीकत में ऐसी कोई जगह नहीं होती। अगर कभी हुई, तो देर तक रह नहीं पाती। उसे कोई न कोई भर देता है। चाहे प्रकृति हो या समाज। जगह का खाली होना और भरना परिवर्तन का कारक बनता है। कई बार खामियां और विकृतियां सिर्फ इसलिए आती हैं कि जगह को भरने वाला पात्र अनुपयुक्त होता है। केवल समाज के संदर्भ में देखें तो इसे तमिलनाडु के उदाहरण से साफ-साफ समझा जा सकता है। अब से 135 साल पहले जन्मे ईवी रामास्वामी नायकर की मिसाल लेकर, जिन्हें पेरियार के रूप में जाना जाता है।
तमिलनाडु सदियों तक मंदिर केंद्रित समाज था। शहर मंदिरों के इर्द-गिर्द बसते थे। मीनाक्षीपुरम से लेकर चिदंबरम तक । मंदिर थे तो देव प्रतिमाएं भी थीं। पेरियार ने एक आंदोलन शुरू किया, जो मोटे तौर पर दलितों के आत्मसम्मान का आंदोलन था, जिसने बाद में ब्राह्मण विरोध का स्वरूप ग्रहण कर लिया। पेरियार का एक चर्चित वाक्य है-‘ईश्वर कहीं नहीं है। जिसने ईश्वर की रचना की है, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता। जो ईश्वर का गुणगान करता है, लुच्चा है। जो उसकी पूजा करता है, बर्बर है।ज् आजादी के तीन साल बाद शुरू हुआ यह आंदोलन फैलता गया। उसे समाज ने स्वीकार किया। इस हद तक कि जब 1953 में पेरियार ने बुद्धपूर्णिमा के दिन गणेश प्रतिमा तोड़ी तो कोई विरोध नहीं हुआ। 1956 में उन्होंने राम की प्रतिमा का भंजन किया। ईश्वर को नकारने और प्रतिमा भंजन ने तमिल समाज में कई परिवर्तन किए। उसने पहली बार प्रतिमा रहित समाज देखा लेकिन वह पेरियार को उस जगह नहीं बिठाना चाहता था। वह जगह खाली थी और उसे अंतत: सिनेमा ने भरा। सिनेमा के नायक महानायक बन गए। उनके प्रशंसकों का दायरा बढ़ता गया। धीरे-धीरे वे समाज के कें्र में आ गए। तमिलनाडु पहला राज्य था जहां 1960 के दशक में सिनेमा से जुड़े लोग सत्ता में पहुंचे। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। अन्नादुरै ने 1948 में वेल्लईकारी (नौकरानी) फिल्म की पटकथा लिखी, करुणानिधि दूसरे बड़े पटकथाकार बने। राजें्रन गीतकार थे। एमजी रामचं्रन अभिनेता। जयललिता अभिनेत्री। तमिल सिनेमा मूलत: पिछड़ी जातियों, समाज के कमजोर वर्गो और महिलाओं को कें्र मे रखकर मनोरंजन के उद्देश्य से बनाया जाता रहा। नायकों को महानायक बनाने के प्रति सिनेकार सतर्क थे। नायक महिलाओं की इज्जत करता था। परदे पर शराब नहीं पीता था और हमेशा कमजोर वर्ग के लोगों के पक्ष में खड़ा होता था। यानी कि तमिलनाडु में एक खालीपन को इस कुशलता से भरा गया कि उसका असर आज तक है। ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु में मंदिर नहीं हैं या उनमें पूजा-अर्चना नहीं होती लेकिन मंदिरों के समानांतर नायकों की दूसरी कतार खड़ी हो गई है। इससे तमिलनाडु का मंदिर केंद्रित समाज सिनेमा कें हो गया। बल्कि उसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ा। खासकर आंध्र प्रदेश में जहां एनटी रामाराव मिथकीय चरित्रों का अभिनय करते हुए समाज और राजनीति के महानायक बन गए। इस तरह के परिवर्तन देश के दूसरे क्षेत्रों में भी आए। उदाहरण के लिए उत्तर भारत नदी केंद्रित समाज से अपराध केंद्रित बन गया। पूर्व भारत में नव जागरण की वजह से कला, साहित्य और संस्कृति समाज के केंद्र में आई थी। वहां संस्कृति केंद्रित समाज कैडर केंद्रित बना जबकि पश्चिम भारत का बदलाव बिल्कुल अलग ढंग से हुआ। महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा सम्रु से सटे इलाके हैं। वहां सम्रु के रास्ते व्यापार की वजह से सहिष्णुता सहज रूप से समाज में व्याप्त थी। सम्रु की कें्रीयता कम होने से समाज में उसका महत्व घटा। खुलापन, जो उस समाज की पहचान था, संकुचित क्षेत्रीयता में बदलने लगा। महाराष्ट्र में शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे का उद्भव और गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कामयाबी सामने है। एक का नारा संकुचित मराठा गौरव है तो दूसरे का गुजरात गरिमा।
यह लगभग साफ है कि चीजों को उनके हाल पर छोड़ देना समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किसी समाज, क्षेत्र अथवा रंग पर किसी का अधिकार नहीं है। केवल इसलिए नीला, लाल, हरा या केसरिया रंग को नहीं छोड़ा जा सकता कि कुछ राजनीतिक दलों के झंडे उस रंग के हैं। रंगों की तरह ही संस्कृति किसी दल विशेष की नहीं हो सकती। वह सबकी है। साझा विरासत। दरअसल संस्कृति की उपेक्षा समाज को बहुत भारी पड़ सकती है। समेकित संस्कृति को समाज में केंद्रीय स्थान मिलना ही चाहिए। भले उसकी शब्दावली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलावा कुछ और हो। क्योंकि संस्कृति सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा महत्वपूर्ण है। जीडीपी समाज की प्रगति का एक आधा-अधूरा संकेतक है। संस्कृति में उसकी विराटता, विविधता और विवेक समाहित है। दुर्भाग्य है कि सांस्कृतिक एकीकरण और राष्ट्र के लिए उसका महत्व ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए अछूत हो गया है। यह एक खाली जगह है। इसे खाली नहीं छोड़ा जा सकता।

सूली ऊपर सेज पिया की


कभी रंग थे इस गुलशन में। फूल थे। खिलखिलाते। लहलहाते। हर तरफ महकती उम्मीद की खेती। हरी-भरी। चार साल पहले। इसी दौरान सब बदल गया। अब रंग नहीं है। उसका भूतकाल है। दर्द की खेती है। सिर्फ कांटे। बल्कि कांटे की काटे। वह भी लोहे के। बहुत कठिन है डगर। गो उसकी राह आसान कभी नहीं रही। सूली ऊपर सेज पिया की। केहि विधि मिलना होय। करार रहे या सरकार। दोनों नहीं रह सकते। म्यान तो एक ही है। सांकरी गली में कैसे समाय। एक ही रास्ता है। मिलते रहें। या मिल लें।

Wednesday, June 25, 2008

जो केक काट रहे हैं, जश्न के धर्मगुरु हैं

जश्न धर्म है। अपने आप में पूर्ण। बेहद्दी। सीमारहित। उसका मुलम्मा चढ़ाना नहीं पड़ता। चढ़ जाता है। बाखुद। और वह भी ऐसा-वैसा नहीं। बिल्कुल पक्का। कभी न उतरने वाला। सालों बाद तक। दशकों-सदियों तक। उसमें सब शामिल होते हैं। जो अनुपस्थित हैं, वे। और जो आने वाले हैं, वे भी। कोई भेदभाव नहीं। उन्हें विरासत में मिलता है यह धर्म। पच्चीस साल पहले एक जश्न हुआ। विश्वकप जीतने पर। खुमार आज तक कायम है। जो केक काट रहे हैं, जश्न के धर्मगुरु हैं। भारत जश्न की गंगोत्री को सैल्यूट करता है तो ठीक ही तो करता है।

Sunday, June 22, 2008

बुलबुला तो फूट जाता, आदमी है कि डटा है


उसमें बेपनाह ताकत है। जिंदगी बख्शने की। वह न हो तो जीना मुहाल हो जाए। गला सूखे। सांस उखड़ जाए। पर इतना पानी? कि चारो ओर से घेर कर रख दे। जड़ से उखाड़ दे। ले जाए अपने साथ सब। बर्तन, भांडे। माल असबाब। अनाज। सब कुछ। सिर्फ पता बचे। घर न बचे। हर साल। तबाही हो तो क्या। मानस की जात है। पानी का केरा बुलबुला नहीं। जूझता है। बचा लेता है जिंदगी। दुश्वारियां हैं। दिन कठिन हैं। पांव पानी में। कंधे पानी से झुके हुए। लेकिन सिर नहीं झुका है। बुलबुला होता तो फूट जाता। आदमी है कि डटा हुआ है।

Saturday, June 21, 2008

खेल मोह का है और खिलाड़ी मनमोहन

यह मोह का खेल है। बहुत महंगा पड़ता है। माया से ज्यादा। माया से बच सकते हैं। मोह से कोई नहीं बचा। जो गिरफ्त में आया, कभी नहीं छूटा। उलझकर रह गया। मोहपाश में। खेल मोह का हो और खिलाड़ी मनमोहन, तब भी नहीं। वह जितना बढ़ता है, आदमी छोटा होता जाता है। चने की झाड़ पर चढ़ाता है। ऊंचाई देता है। जैसे भला करने पर आमादा हो। और तबाह कर देता है। भले हाथ में परमाणु हथियार हों। सत्ता के मोह में जो फंसा, सो फंसा। अब तो भली करेंगे राम।

Thursday, June 19, 2008

भांति-भांति की यात्राओं का देश


भांति-भांति की यात्राओं का देश। सबसे परम तीर्थ यात्रा। आस्था न देखे नदी पहाड़। दुर्गम को सुगम करती। पंगु को चढ़ाती गिरिवर गहन। सदियों से चल रही है अनवरत। कुछ दिनों में ही निकलेंगे कांवड़ियों के कारवां। आशुतोष औडर दानी। उनकी खातिर क्या संकट, क्या परेशानी। ग्यारह हजार फीट पर पहलगाम। वहीं विराजे अपनी प्रकृति से रचित बाबा अमरनाथ। अद्भुत हिम शिवलिंग। श्रावण पूर्णिमा तक दो लाख करेंगे दर्शन। पूरी होगी बरसों की साध। हे भोलेनाथ। मंगलमय रहे यात्रा। आपके भक्तों की फौज, लौटे मनाते मौज।

वह तो थी महाक्रांति



1857 का 150वां जयंती वर्ष पूरा हो गया। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम को इस बार जिस शिद्दत से याद किया गया, पहले कभी नहीं किया गया था। साल भर जलसे हुए, किताबें छपीं, गोष्ठियां हुईं। हर बार इस बात पर जोर दिया गया कि 1857 कोई सामान्य घटना नहीं थी। वह सिपाही विद्रोह भी नहीं था। रजवाड़ों की यह कोशिश भी नहीं कि वे अपनी रियासतें बचा सकें। ऐसा 1857 के स्वर्ण जयंती वर्ष 1907 या शताब्दी वर्ष 1957 में नहीं हुआ था। यह सवाल उठाया गया कि ऐसा इसी बार क्यों हुआ। डेढ़ सौ सालों बाद। जवाब आसान नहीं है। पर इतना कठिन भी नहीं कि कल्पना न की जा सके। 1907 में अंग्रेजों का शासन कायम था। 1957 में आजादी को महज दस साल हुए थे। 1857 की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों द्वारा की गई हिंसा को भुला पाना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा होगा। इतिहासकार अमरेश मिश्रा का मानना है कि प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने करीब एक करोड़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। घटना के बहुत निकट होते हुए भी कम लोग यह साहस कर सके कि 1857 का सही विश्लेषण करें। 1957 तक आजादी की चमक-दमक और उसका खुमार लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी था। अंग्रेजों के भारत में रहने तक 1857 का ठीक से अध्ययन संभव नहीं था। आजादी मिलने के बाद दस्तावेजों को खंगालने की शुरुआत हुई। संभवतः 50 साल और लगें। आम जानकारी के मुताबिक लगभग एक लाख पृष्ठ से अधिक सामग्री अभी तक पढ़ी ही नहीं गई है। कई बस्ते खुले ही नहीं। यह दस्तावेज सरकारी अभिलेखागार में हैं। इनमें उनका शुमार नहीं है जो इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। या फिर लोककंठों में हैं। तमाम छोटी रियासतों ने विद्रोह में हिस्सा लिया था। पर उनके दस्तावेज सामने नहीं आए हैं। लोकगीतों का पूरा संग्रह नहीं हुआ है। इस पर भी काम नहीं हुआ कि बुंदेलखंड का आल्हा 1857 के बाद खत्म क्यों हो गया। उसके पीछे भी एक अंग्रेज इलियट का हाथ था, जिसने आल्हा की जीवंत परंपरा को मुर्दा बना दिया।
यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि 1857 के जिन बहादुरों का डेढ़ सौ साल बाद हम शहीदों के रूप में सम्मान कर रहे हैं, वे सरकारी दस्तावेजों में आज भी विद्रोही, राजद्रोही, भगोड़े और कतई भरोसा न करने लायक लोग हैं। ये दस्तावेज बदले नहीं गए। न 1947 से पहले, न उसके बाद। जिन सिपाहियों ने उस स्वत्रंतता संग्राम में हिस्सा लिया था उनके प्रति सरकार और संसद को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। इसका पहला कदम अंग्रेजों के दस्तावेजों को बदलना हो सकता है। यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं बल्कि उपमहाद्वीप के चार देशों की है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान। 1857 इस उपमहाद्वीप की साझा विरासत है। उसका सम्मान करना साझा कर्तव्य होना चाहिए। इसे थोथी बयानबाजी से निपटाने का समय बीत गया है। अगर पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधों के लिए कुछ देशों से माफी मांगने की बात उठाई जा सकती है तो 1857 पर ब्रिटेन से माफी की मांग क्यों नहीं की जाती।
अंग्रेजों ने अपने अत्याचारों के लिए खासतौर पर अवध क्षेत्र को चुना। शायद इसलिए कि उसकी नजर में अवध 1857 के लिए किसी इलाके के मुकाबले ज्यादा जिम्मेदार था। इसलिए भी कि ब्रितानी सेना में एक तिहाई से अधिक सिपाही अवध के थे। बैरकपुर का विद्रोह अवध के एक नुमांइदे ने किया मेरठ के विद्रोह में अवध की टुकड़ी सबसे आगे थी। अंग्रेज इसे पचा नहीं पाए। 1857 के पहले अवध के लोगों को लड़ाकू और ईमानदार कौम समझा जाता था। ज्यादातर नियुक्तियां इसी आधार पर होती थीं। राज्यक्रांति के बाद अंग्रेजों ने अवध से नियुक्तियां बंद कर दीं। एक नया इलाका चुना। पंजाब में सिपाहियों की भर्ती होनी लगी। इस योजना में प्रमुख भूमिका पंजाब के गवर्नर मैलकम डार्लिंग ने निभाई। अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियां घर-घर पसरी थीं। आज भी हैं। कुछ कहानियों की शक्ल में। कुछ गीतों के रूप में। इन पर समन्वित रूप से अब तक काम नहीं हुआ। इन अत्याचारों के किस्से मेरठ से दिल्ली के रास्ते में आने वाले गांवों में भी हैं। टटेरी, बालैनी, जानीबुजुर्ग में। बालौनी में दो गांव पूरी तरह उजाड़ देने के किस्से स्थानीय लोग सुनाते हैं। उनका जुर्म सिर्फ इतना था कि उन्होंने मेरठ से दिल्ली जा रहे सिपाहियों को पानी पिलाया था।
1857 को हम पूरी तरह आज भी नहीं देख पाए हैं। शायद इसलिए भी कि उस घटना पर प्राथमिक स्त्रोत के रूप में इतिहासकारों की नजर केवल अंग्रेजों द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों, अभिलेखों, डायरियों और किताबों पर पड़ी। उनकी बहुतायत थी। उन्होंने उसे सिपाही विद्रोह कहा और अपने ढंग से, अपनी सहूलियत के लिए इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा। भारतीय स्त्रोत के रूप में 1907 में छपी सावरकर की किताब के अलावा मात्र तीन और पुस्तकें उपलब्ध थीं। विष्णुभट्ट गोडसे वरसईकर की माझा प्रवास, सीताराम पांडे की किस्सा पांडे सीताराम और रामजी राव की एक किताब जिसका हवाला सावरकर की किताब में मिलता है। सारे दस्तावेज सामने आने पर शायद तस्वीर और साफ होगी। मसलन, अभिलेखागार के एक बस्ते से मिले दस्तावेज, जिसमें दिल्ली में गोवध न करने का बहादुरशाह जफर का फरमान दर्ज है, के मिलने तक 1857 में मेरठ में विद्रोह करने वाली टुकड़ी में ज्यादातर हिंदू सिपाही थे, जबकि जेल पर हमला करके छुड़ाए गए तीसरी लाइट कैवेलरी के ज्यादातर सिपाही मुसलमान थे। दरअसल, 1857 का फलक इतना बड़ा था कि अंग्रेज उसे विद्रोह मानते तो उसके बोझ के नीचे दबकर मर जाते। उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इतना सुनियोजित, विस्तृत और नियंत्रित विद्रोह हुआ कैसे? उस समय जब वे समझ रहे थे कि सबकुछ नियंत्रण में है और उनका भारत पर पूरा कब्जा है। उन्होंने इसे म्युटिनी यानी सिपाही विद्रोह कहकर छोटा करने की कोशिश की। यह कहा कि विद्रोह कुचल दिया गया। नाकामयाब रहा। वास्तव में इसमें से कुछ भी सच नहीं है। 1857 केवल सिपाही विद्रोह नहीं था, भले ही वह सिपाहियों के विद्रोह के साथ शुरू हुआ। विद्रोह कुचला नहीं गया बल्कि कामयाब रहा। विद्रोह करने वालों की मंशा ईस्ट इंडिया कंपनी (जान कंपनी) को खदेड़ने और नष्ट करने की थी। वे अपने मकसद में कामयाब हुए। 1857 के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी खत्म हो गई। यह और बात है कि चालाक अंग्रेजों ने कंपनी को खत्म करते हुए भारत पर सीधी राजशाही थोप दी।
इस तरह से देखा जाए तो 1857 एक विद्रोह था ही नहीं। उस साल तीन विद्रोह हुए। इन सब ने 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद हुए लगभग सौ विद्रोहों से सबक लिया था। उन्हें इतिहास का यह पहलू मालूम था। 1857 के तीनों विद्रोहों के किरदार अलग-अलग थे। विद्रोह के कारण भी अलग थे। लेकिन वह एक जगह आकर मिल गए। पहला विद्रोह सिपाहियों का था। अंग्रेजों के मुताबिक इसलिए कि सिपाही चर्बी वाले कारतूस से भड़क गए थे। यानी कि यह विद्रोह था ही नहीं, धार्मिक प्रतिक्रिया थी।
यह बड़ा झूठ काफी समय चला। असली कारण सिपाहियों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति और गांवों की कमजोर पड़ती भूमिका थी। दूसरा विद्रोह रजवाड़ों का था जो अपनी रियासतें बचाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए। तीसरा विद्रोह जनविद्रोह था। इसकी शुरुआत फैजाबाद से हुई, जहां सिपाही विद्रोह से पहले जनता ने विद्रोह करके जेल में बंद अपने मौलवी अहमदुल्ला शाह को आजाद कराया। हर लिहाज से 1857 एक महाक्रांति थी। एक ऐसी क्रांति जिसकी औपनिवेशिक दुनिया में कोई मिसाल नहीं थी। एक महाशक्ति के खिलाफ एक महाक्रांति ही कामयाब हो सकती थी। या कम से कम उसका जवाब दे सकती थी।

Tuesday, June 17, 2008

तस्वीर में कुछ लिखा नहीं होता, छवि होती है


कई बार जो नहीं होता, वही सबसे प्रमुख हो जाता है। जीवन में। लिखे हुए शब्द में। तस्वीर में। ऐसा बार-बार होता है। खासकर राजनीति में। उसकी मुकम्मल तस्वीर कभी नहीं बनती। ऐसी तस्वीरों में उस अनुपस्थित को देखना कठिन नहीं है। साफ नजर आता है। दिखता है कि कोई झुक गया है। हाथ जोड़े। विनत। हालांकि वह तस्वीर में नहीं है। ऐसा न होता तो बैंसला जमीन से ऊपर न चल रहे होते। अकड़कर। तस्वीर में कुछ लिखा नहीं होता। छवि होती है। पर इसमें लिखा है कि कोई हार गया है।

Monday, June 16, 2008

प्रेम पवित्र है


प्रेम पवित्र है। शाश्वत है। निश्छल और स्वतंत्र। हर तरह के बंधन से मुक्त। उससे ऊपर। उसे पसंद नहीं कि कोई रोक-टोक हो। अपने आप में पूर्ण। भावना में। अभिव्यक्ति में। अपना रास्ता खुद तय करता है। वह मुहावरेदारी से भी ऊपर है। उम्र, जाति, रंग, धर्म-कुछ नहीं मानता। वजन भी। वह जिसे प्रेम के काबिल समझता है, बस आ जाता है। भले आपका वजन कुछ भी हो। आप दुनिया के सबसे भारी-भरकम आदमी हों। जो प्रेम को पढ़ सकता है, अनपढ़ नहीं हो सकता। उसके ढाई आखर सब मोटी पोथियों पर भारी पड़ेंगे।

Saturday, June 14, 2008

बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे।


बह रही है भ्रष्टाचार की गंगा। सभी हाथ धो रहे हैं। कोई ज्यादा कोई कम। पुलिस उसमें डूबी है। उसी में रमी है। सबको मालूम है। पता है। जन्नत की हकीकत। कौन बोले। कौन मुंह खोले। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। बांधना मुश्किल है। बंध जाए तो सवाल होगा- बिल्ली किसकी है। कहा जाएगा- मेरी बिल्ली, मुझसे म्याऊं। बात इतनी नहीं है कि पैसे कौन ले रहा है। ये भी है कि देता कौन है। लेन-देन में दोनों दोषी। माया का चक्कर है। सबको भरमाता है। बचे सो उतरहिं पार।

Friday, June 13, 2008

खबरों की दुनिया भी ऐसी ही है


समुद्र का नीला होता है। आसमान का रंग भी। अथाह गहराई। बेपनाह ऊंचाई। और विस्तार। इस सबके बावजूद बला की शांति। यह जानते हुए कि उनके अंदर क्या है। खबरों की दुनिया भी ऐसी ही है। नीला सागर। विराट। अनंत। संभावनाओं से भरपूर। उथलापन न हो तो। किनारे का रंग पीला होता है। इसलिए जरूरी है कि गहरे उतरो। थपेड़ों से डरे बिना। देखो। समझो। मझधार में जाओ। भंवर से खेलो। जहां तक हो सके। क्योंकि मोती तट पर नहीं होते। वहां बस सतही गंदगी है। और कीचड़।

Saturday, June 7, 2008

कोई कान खींचकर कहे-अबे सुन बे गुलाब


गोसाईंजी सुनिए। जमाना बदल गया है। वो दिन भी नहीं रहे कि गिरा अनयन नयन बिनु बानी। अब तो जीभ देखती हैं। आंखें बोलती हैं। लोहा-लक्कड़ सबकी राय है। चेतना उस स्तर तक पहुंच गई है। साइंस का चमत्कार नहीं है यह। कवि की कल्पना से भी नहीं। हकीकत है। हद से गुजर जाने की सच्चाई। महंगाई हद से आगे बढ़ गई है। कभी तो बोलना ही था। जबान सबको मिल गई है। लेकिन कान बंद रहे। कान खुले होते तो हाथ बंधे रहते। जरूरत है कि कोई कान खींचकर कहे-अबे सुन बे गुलाब। खून चूसना बंद कर।