Tuesday, September 16, 2008

भीड़ एक कलाकृति है


भीड़ एक कलाकृति है। अद्वितीय। वह अनगढ़ हो सकती है। पर दरअसल गढ़ती वही है। अपनी सामूहिकता में। वही बनाती है। और नाराज हो जाए तो बिगाड़ देती है। वह चाहे तो सब बदल जाए। समाज। दुनिया। दुनिया की राय। उससे ऊपर कोई नहीं। सामने कोई नहीं टिकता। न टाटा-बिड़ला। न दिखावटी ममता। न बुद्ध, न देव। वह स्वयं विश्वकर्मा है। अपने हाथों और हुनर पर भरोसा है उसे। बेहतर हो कि उसका व्याकरण पढ़ लें। भाषा सीख जाएं। जितनी जल्दी हो सके। क्योंकि उसके सामने फरेब नहीं चलता। चोलबे ना।

4 comments:

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही!!

dahleez said...

भीड़ की अच्छी पिरभाषा गढ़ी है अापने। वाकई भीड़ का कोई तोड़ नहीं है। जब अपने पर अा जाए तो सरकारें िगरा सकती है और बना भी सकती है।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

कहाँ चले गये थे साहब? कहीं इसी भीड़ में डुबकी तो नहीं लगा रहे थे...। बढ़िया है।

शिरीष कुमार मौर्य said...

saamuhiktaa ka bayaan aisa hi hota hai. ham use kisi khaanche mein nahi baant sakte. photo khud bahut kuchh kahti hai.

good work sir !