Monday, November 3, 2008

हे महर्षि कुंबले


फिरकी बाबा। असली संन्यासी। न जटा-जूट। न लंबी दाढ़ी। चोंगा-बाना भी गायब। हाथ में एक लाल गोला। कभी-कभी सफेद। गोला रखते तो किताब उठा लेते। किताब रखते तो कैमरा। बिल्कुल बेदाग। किसी चीज का गुमान नहीं। हाथी की तरह मस्त चाल। लोग जंबो बाबा कहने वगे। विनम्र। नपी तुली भाषा। भद्र व्यवहार। दुनिया भर घूमे। चमत्कार करते। सबने देखा। अट्ठारह साल तक। फिर उसने लाल गोला अलग रख दिया। कहा-अब बस। ऐसा संन्यासी। उसे संन्यास लेने की क्या जरूरत। ऋषि से कौन पूछे। हे महर्षि कुंबले। हम कृतग्य हैं कि आप इतने दिन साथ रहे।

3 comments:

सुनील मंथन शर्मा said...

और आगे भी साथ रहेंगे ऐसी आशा है.

मनोज द्विवेदी said...

Guruji ap mahan hai. bahut dino bad mile hai pranam karata hun. ap mujhe nahi janate magar mai apko janata hun. apke paper me patrakar banane gaya tha. bekar hi louta. aur sir kaise hai.

anil yadav said...

अच्छा हुआ सन्यासी बाबा ने अपना लाल गोला रख दिया....नही तो इस लाल गोले ने दुनिया भर के बल्लेबाज बाबाओं की नाक में दम कर ऱखा था....