Sunday, October 4, 2009

तो गांधी भी जरूरत भर



वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में बापू कुटी के सामने खड़े होने पर यह अंदाजा नहीं होता कि महात्मा गांधी इसी झोपड़ी में रहते थे और इसे बनाने में सौ रुपए से कम खर्च आया था। दरअसल नमक आंदोलन के समय साबरमती आश्रम छोड़ते हुए गांधी ने कहा था कि वह अंग्रेजों से आजादी मिले बिना अपने आश्रम लौट कर नहीं आएंगे। यह बात 1930 की है जबकि आजादी उसके सत्रह साल बाद मिली। इस अवधि में महात्मा गांधी किसी दूरदराज के गांव में रहना चाहते थे और इस सिलसिले में उन्होंने मीराबेन को पहले ही शेगांव भेज दिया था। शेगांव तक सड़क भी नहीं थी। पांच किलोमीटर पैदल चलकर ही वहां पहुंचा जा सकता था। गांधी नमक कानून तोड़ने के छह साल बाद तीस अप्रैल 1936 को सेवाग्राम पहुंचे।


मीराबेन और अपने अन्य अनुयायियों से गांधी ने सेवाग्राम में रहने की अपनी शर्ते स्पष्ट कर दी थीं। उन्होंने साफ कर दिया था कि अगर उनकी झोपड़ी ‘आदि निवास बनाने में सौ रुपए से ज्यादा खर्च आया तो वह वहां नहीं रहेंगे। यह गांधी की मितव्ययिता थी, जिसकी शुरुआत उन्होंने नमक आंदोलन के समय खाने-पीने की सामग्री और एक ग्राम से ज्यादा घी किसी को नहीं दिए जाने की शर्त लगाकर की थी। इस दौरान एक बार वह महादेव देसाई से केवल इस बात को लेकर नाराज हो गए कि देसाई ने उनके लिए मामूली टूटा पानी का कप रहते हुए दूसरा कप खरीद लिया था। काफी देर तक गांव की अर्थव्यवस्था और एक कप की कीमत का महत्व समझाते हुए गांधी ने देसाई को विवश कर दिया कि वे लौटकर कप दुकानदार को वापस कर दें। सेवाग्राम में गांधी की झोपड़ी बनाने में आने वाला खर्च कम रखने के लिए झोपड़ी की छत बांस और खपरैल से बनाई गई। दीवारें मिट्टी की थीं। खिड़की-दरवाजे बांस जोड़कर तैयार किए गए। एक टांड़ भी बांस की और एक आलमारी भी। नीचे बिछाने के लिए खजूर के पत्तों की चटाई। यह सुझाव गांधी का ही था कि जहां तक संभव हो स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का ही इस्तेमाल किया जाए। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी की ओर से इस समय चलाया जा रहा किफायतशारी के अभियान और उसके आज के नेताओं को पलट कर गांधी और अपने इतिहास से ही बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। यह और बात है कि तीसरे दर्जे में यात्रा करने की वजह से गांधी के अभियानों पर शायद पहले दर्जे की यात्रा से ज्यादा खर्च आता था। लेकिन इससे आम लोगों के बीच रहने और उन तक पहुंचने की गांधी की मंशा का महत्व कम नहीं होता। सरोजनी नायडू ने एक बार इसी पर टिप्पणी की थी कि गांधी को गरीब लोगों की तरह तीसरे दर्जे में यात्रा पर खर्च बहुत ज्यादा आता है।

राजनीतिक पहलू को छोड़ दें तब भी रोजमर्रा के जीवन में गांधी कमखर्ची की मिसाल कायम किया करते थे। इसमें लिफाफे के पीछे की जगह पर लिखना, चीजों का उतना ही इस्तेमाल जितना जरूरी हो। उनका कहना था कि धरती पर सबकी जरूरत भर का सामान है लेकिन सबके लालच भर का नहीं। वह शब्दों के मामले में भी उतने ही सतर्क रहते थे और सिर्फ जरूरत भर शब्द इस्तेमाल करते थे। नमक आंदोलन के समय दांडी के समुद्र तट पर पांच अप्रैल 1930 को संदेश देने के लिए कहे जाने पर गांधी ने कागज के एक छोटे से टुकड़े पर लिखा ‘आई वांट वर्ल्ड सिंपथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइटज् (मैं अन्याय के खिलाफ इस संघर्ष में दुनिया की सद्भावना चाहता हूं)। गांधी ने यह संदेश एक मामूली कलम से लिखा। हालांकि कुछ ही समय पहले वह आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति केवी रत्नम को यह सलाह दे चुके थे कि रत्नम फाउंटेन पेन के निब अपने कारखाने में बनाएं, जिनका तब तक आयात होता था। रत्नम ने निब पर विदेशी एकाधिकार खत्म करते हुए देश में पहली बार फाउंटेन पेन का उत्पादन शुरू किया। इस पेन का नाम रत्नम रखा गया। केवी रत्नम ने फाउंटेन पेन बाजार में उतारने से पहले दो कलम गांधी को उनके वर्धा आश्रम के पते पर भेजे। गांधी ने संभवत: उसी कलम से केवी को जवाब लिखा और कहा धन्यवाद।


पिछले सप्ताह गांधी की सादगी और किफायतशारी का मजाक उड़ाते हुए मशहूर पेन निर्माता कंपनी मो ब्लां ने दांडी मार्च की याद में एक फाउंटेन पेन का निर्माण किया, जिसकी कीमत 14 लाख रुपए रखी। इस तरह के केवल 241 फाउंटेन पेन बनाए जाएंगे क्योंकि साबरमती आश्रम से दांडी की दूरी 241 मील थी। हाथ से बनाए गए हर फाउंटेन पेन में रोडियम प्लेट वाली अठारह कैरेट सोने की निब होगी जिस पर लाठी लिए हुए चलते गांधी का चित्र बना होगा। निश्चित तौर पर गांधी की सादगी और नमक आंदोलन की याद से मो ब्लां का कोई संबंध नहीं है और उनका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक है क्योंकि उनकी नजर में गांधी बहुत बड़े और विश्वव्यापी ब्रांड हैं। इसके साथ ही कंपनी तीन हजार पेन की एक और श्रृंखला बनाएगी जिसका नाम महात्मा होगा। इनकी कीमत पौने दो लाख से डेढ़ लाख रुपए के बीच होगी। मो ब्लां को व्यापार करने से कोई नहीं रोकना चाहता लेकिन उससे यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए था कि इन फाउंटेन पेन की बिक्री से हुई कमाई कैसे खर्च की जाएगी। यह भी कि क्या इसका कुछ हिस्सा शिक्षा और स्कूलों पर खर्च होगा। क्या कंपनी 241 मील की यात्रा की याद में 241 गांव गोद लेकर उनमें सड़क, पानी और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। अगर नहीं, तो उसे गांधी और महात्मा नाम के इस्तेमाल का कोई अधिकार नहीं।

1 comment:

amit said...

bahut achha lekh