Tuesday, February 26, 2008

रेडियो के देश में टेलीविजन

कहीं रेडियो पर भी गणेश दूध न पीने लगें और समुद्र का पानी मीठा न हो जाए। यह भी कि कोई भूत का साक्षात्कार न करे और यमराज से मिलकर लौटे आदमी का इंटरव्यू न हो। निजी टेलीविजन ये सारे चमत्कार कर चुका है।

मधुकर उपाध्याय

मशहूर रेडियो पत्रकार नाइजल रीस ने एक बार टेलीविजन का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि दुनिया का सबसे आसान काम टेलीविजन पत्रकार होना है। उसमें आपको कुछ नहीं करना होता। सब पहले से तय होता है और आप खाली जगह भरते हैं। नाइजल ने विस्फोट की एक खबर का उदाहरण देते हुए कहा कि टेलीविजन पत्रकार के पास बस चार सवाल होते हैं और वह उन्हें उसी क्रम में पूछता है। उसमें कोई नयापन नहीं होता। विस्फोट की खबर में पहला सवाल होता है - घटना का ताजा विवरण क्या है। दूसरा सवाल - लोग क्या महसूस कर रहे हैं। तीसरा सवाल -अधिकारियों का क्या कहना है और चौथा सवाल - यह घटना इसी समय क्यों हुई। नाइजल कहते हैं कि इसके बाद भी समय बच जाए तो टेलीविजन पत्रकार उसे कागज समेटने, चश्मा उतारने और कलम जेब में रखने में पूरा कर देता है। तीस साल तक बीबीसी रेडियो फोर के सबसे लोकप्रिय प्रस्तुतकर्ता रहे नाइजल का मानना है कि टेलीविजन ने अपनी उपस्थिति के साठ साल जरूर पूरे कर लिए हैं, लेकिन सही मायनों में टेलीविजन समाचार आज तक दुनिया में कहीं उपलब्ध नहीं है। आंख बंद करके आप टेलीविजन की पूरी खबर सुन और समझ सकते हैं। इस लिहाज से वह दरअसल रेडियो है। भारत जैसे देश के लिए, जहां चालीस फीसदी से ज्यादा लोग अब भी अनपढ़ हैं, रेडियो जनसंचार का सबसे मुफीद माध्यम है। अखबार और पत्रिकाएं अनपढ़ लोगों के लिए नहीं हैं और टेलीविजन तक सबकी पहुंच नहीं है। वैसे भी भारत हमेशा से बोले हुए शब्दों के सहारे जीता रहा है। उसकी लगभग पूरी संस्कृति इसी पर आधारित है। पांच हजार साल पुरानी वैदिक परंपरा बोले हुए शब्दों से बची रही। वह श्रुति, आवृत्ति और स्मृति का देश है। वह ध्यान से सुनता है, सुने हुए को दोहराता है और इसी प्रक्रिया में उसे याद कर लेता है। लिखना-पढ़ना उसने बहुत बाद में सीखा। इस संदर्भ में नाइजल रीस की बात और सही साबित होती है। गांव में, खासकर जाड़े के दिनों में, अलाव के पास बैठकर जितनी खबरें कही-सुनी जाती हैं, उनका मुकाबला कोई प्रसारण माध्यम नहीं कर सकता। वह एक तरह से अलाव रेडियो है, जिसे तस्वीरों की जरूरत नहीं होती। टेलीविजन से पंद्रह साल बाद निजी कंपनियों के भारी दबाव के कारण दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुशंसा की है। फैसला सरकार को करना है। हो सकता है इसमें अभी कुछ और समय लग जाए लेकिन ट्राई का यह कदम देश की नब्ज पर हाथ रखने जैसा है। इस पूरे तर्क में एक समस्या है, एक डर कि कहीं रेडियो पर भी गणेश दूध न पीने लगें और समुद्र का पानी मीठा न हो जाए। यह भी कि कोई भूत का साक्षात्कार न करे और यमराज से मिलकर लौटे आदमी का इंटरव्यू न हो। निजी टेलीविजन ये सारे चमत्कार कर चुका है। सरकार इसे निजी रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति न देने के तर्क के रूप में इस्तेमाल कर रही है। निश्चित तौर पर जनसंचार माध्यमों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और सिर्फ एटवरटिजमेंट के लिए टीआरपी रेटिंग बढ़ाने का तर्क लेकर अनाप-शनाप कार्यक्रमों से बचना होगा। यह आसान नहीं है। अगर निजी जनसंचार माध्यम अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते तो उन्हें नियंत्रित करने के लिए सरकारी नियंत्रण से मुक्त स्वायत्त संस्था की जरूरत होगी। जाहिर है, सरकार एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति आसानी से नहीं देगी, लेकिन देर सवेर उसे यह करना ही होगा। अगर प्रसारण कानून एक है तो सरकार रेडियो और टेलीविजन में भेद कैसे कर सकती है। जिन समस्याओं का हवाला सरकार देती है, उसके उलट कई तर्क हैं जिन्हें वह नजरअंदाज कर देती है। सोचिए कि एफएम स्टेशन मोहल्ले के दो कमरे के एक मकान से चलता है, जहां कोई भी पहुंच सकता है तो शिकायत होने पर लोग वहां क्यों नहीं पहुंचेंगे। संभव है कि प्रसारणकर्ता आपका पड़ोसी हो और सुबह दूध खरीदते हुए लाइन में खड़ा मिल जाए। स्थानीय स्तर पर रेडियो के पास गैर जिम्मेदार होने का विकल्प ही नहीं है। उसे कोई भी पकड़ लेगा। कोई भी टोक देगा। रेडियो न सिर्फ प्रसारकों बल्कि आम लोगों को भी जिम्मेदार नागरिक बनाएगा, जो काम ऊंची चहारदीवारी से घिरा सरकारी रेडियो या सुरक्षाकर्मियों से घिरे आलीशान टेलीविजन स्टूडियो सोच भी नहीं सकते। इस सरकार के लिए यह चलाचली का साल है। संभव है कि निजी एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण की अनुमति देने से वह बच निकले, लेकिन यह न तो सरकार के हित में होगा, न ही समाज के।

3 comments:

Prem said...

रेडियो आज देश की जरूरत है। वास्तव में ये लोगों तक पहुंचने का सबसे सशक्त माध्यम है। लेकिन बेहद अफसोसजनक है कि टीवी के इस युग में रेडियो को लोगों ने बिसरा दिया है। क्या हम कल्पना कर सकते है कि रेडियो फिर से हमारी जीवनचर्या का हिस्सा हो सकेगा। हो सकता है कि यह महज एक कोरी कल्पना हो, लेकिन हमें विश्वास है कि रेडियो एक बार फिर हमारे जीवन में एक नए रूप में उपस्थिति दर्ज कराएगा और इसके लिए सरकार को सहयोग करने की जरूरत है।

Satyendra PS said...

रेडियो को लोकप्रिय बना रहा है एफएम। हालांकि इसे लेकर गंभीरता खत्म होती जा रही है। खासकर समाचार के मामले में तो अब शायद ही कोई इसके करीब जाता हो। हालांकि असली भारत के कउड़ा की बैठकी में रेडियो का समाचार आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना पहले था।

Amalendu Upadhyaya said...

मधुकर जी , आपने सही प्रश्न उठाए हैं. लेकिन एक विनम्र असहमति है. कम से कम एक जन्संचार्मध्यम को लार्कारी शिकंजे में बंधा रहने दे . वरना जो हाल आज तेलीविसिओं का हो रहा है वही रेडियो का भी हो जायेगा. आप तो काफी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आपने कमलेश्वर जी और रघुवीर सही के दौर का रेडियो और दूरदर्शन सुना और देखा होगा, ज़रा उसकी तुलना आज के टी वी चैनल्स से कर लें अन्तर मालूम पड़ जायेगा. कमलेश्वर जी दूरदर्शन में जिस तरह से काम कर सके क्या वैसा ही काम जैन टी वी में जाने पर कर पाये? यह व्यक्ति की नहीं व्यवस्था की कमी है. और मेरी समझ में आता है की कम से कम ऍफ़ एम् पर सरकार का नियंत्रण बना रहना चाहिए, वरना देखिये की जब मुंबई पर हमला हो रहा था तो यही निजी ऍफ़ एम् चैनल कैसे फूहड़ और वाहियात कार्यक्रम दे रहे थे. विदेशी पूंजी आने के बाद यह निजी चैनल और ज़्यादा उच्छ्रिखाल हो जायेंगे