Sunday, April 13, 2008

बाजार शब्द में बाज छिपा है


बाजार क्या नहीं करता। उतार देता है। किसी को भी सबके सामने।
दुधमुंहे बच्चों तक को। इन बच्चों ने बाजार नहीं देखा।
उन्हें नहीं पता क्या होता है उपभोक्तावाद। पर बाजार ने उन्हें देखा।
उनमें अपने लिए संभावना देखी। मां के चेहरे पर खुशी। वह हंसी।
उसकी ममता। सब बाजार के चपेटे में।
कोशिश यह कि जो बिक सकता है, बेच दो।
जिसकी मदद चाहिए, ले लो। दो पीढ़ियां साथ हों तो और भी अच्छा।
सब सरे बाजार। बाजार शब्द में बाज छिपा है।
वह तो कभी भी झपट्टा मारेगा। कैसे बचे शिकार?

1 comment:

Satyendra PS said...

सही कहा आपने बाज ही है ये बाजार। बड़े बड़ों की आंखें निकाल रहा है।