बड़े-बड़े जानकार मिले। महीनों काम किया। उम्मीद थी कि दिल्ली की सूरत बदल देंगे। यातायात व्यवस्था सुधर जाएगी। सब अपनी राह चलेंगे। नियम कानून मानेंगे। मुसाफिर बस में नहीं रहेंगे। तीन दिन में सब पलट गया। हाय तौबा मची। जो सुधरना था, और बिगड़ गया। बसें चलती थीं, रेंगने लगीं। लोग हलकान। एक बस बीच में घुस गई। गायें मंथर गति से बीच सड़क पर चल पड़ीं। गई भैंस पानी में शायद इसी को कहते हैं। मेट्रो वाले श्रीधरन से कुछ सीख लेते। बेबस न होते।
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2 comments:
क्या किया जाए। सभी लोग रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में भाग रहे हैं। मुंबई एक सहारा था, वहां भी राजनीति। कलकत्ता तो पहले ही खत्म हो चुका है। भीड़ बढ़ेगी तो समस्याएं तो होंगी ही। रही बात नियमों की। सरकारी अधिकारी तो नौकरी करते हैं। जो विचार में आया, किया। बना तो ठीक.. बिगड़ा तो ठीक।
पूरे शहर पर थोपने से पहले नई व्यवस्था को किसी एक इलाक़े में लागू कर के देखना चाहिए था. आदर्श या अनुकूल परिस्थितियों में नहीं, बल्कि वास्तविक माहौल में.
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