भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता को समझने के लिए और तथ्य सामने लाने की जरूरत है और यह काम उसके महागुरुओं को जाने बिना संभव नहीं है। एडविन हर्शमान ने राबर्ट नाइट पर पहली किताब लिखी है। यह काफी नहीं है।
मधुकर उपाध्याय
भारतीय पत्रकारिता आज जिस मुकाम पर है, उसमें अक्सर पीछे पलटकर देखना जिसे लगभग गैरजरूरी-सा हो गया है। इसमें पीछे छूट जाने का खतरा निहित है, हालांकि यह पूरा सच नहीं है। संचार टेक्नोलॉजी का विस्फोट शायद इसकी बड़ी वजह है, जिसने मीडिया के हर क्षेत्र को पंख लगा दिए हैं और ऐसे दरीचे खोल दिए हैं कि समूचा आसमान उसे अपनी मुट्ठी में लगता है। कोई यह मौका चूकना नहीं चाहता और जाहिर है, इस भागमभाग में अतीत को बिना मतलब का बोझ समझने लगता है। इस दौर में एक और बदलाव आया है- पत्रकारिता के आधुनिक महागुरुओं का। उन महारथियों का, जो संचार माध्यमों को साबुन और टूथब्रश की तरह का उत्पादन मानते हैं और उसके लिए बाजार तलाश करते घूमते हैं। निश्चित तौर पर पत्रकारिता उनके लिए व्यापार है, जिसमें घाटे का सौदा किसी को पसंद नहीं, भले इस प्रक्रिया और हड़बड़ी में अतीत के साथ वर्तमान की भी बलि चढ़ जाए।
इस आपाधापी में भी अतीत का एक पन्ना पलटना जरूरी लगता है। इस पन्ने पर पत्रकारिता के इतिहास की एक नहीं बल्कि दो महागाथाएं दर्ज हैं और दोनों के केंद्र में एक ही व्यक्ति है। यह पन्ना पढ़े बिना भारत में, खासकर अंग्रेजी पत्रकारिता का इतिहास पूरा नहीं होगा। इससे पत्रकारिता का एक नया अध्याय भी खुलता है। हालांकि उसका उद्देश्य जनपक्षधरता से अधिक ब्रितानी राज के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना है। यह लगभग उसी तरह की दुधारी तलवार वाला तर्क है, जो अक्सर रेलगाड़ियां चलाने के सदंर्भ में आता है। यह कतई आश्चर्यजनक नहीं लगता, क्योंकि रेल पटरियां बिछाने और दैनिक अखबार शुरू करने का कालखंड करीब-करीब एक ही है।
अपने शुरुआती दिनों से लेकर लगभग पूरी बीसवीं सदी में लगातार महत्वपूर्ण बने रहे दो अखबार- द टाइम्स ऑफ इंडिया और द स्टेट्समैन एक ही व्यक्ति ने शुरू किए थे। रॉबर्ट नाइट को पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं था और वह पत्रकारिता करने भारत आए भी नहीं थे। लैम्बेथ में 1825 में जन्मे रॉबर्ट की स्कूली शिक्षा मामूली थी लेकिन उनकी सोच पर उपयोगितावाद के पुरोधा जेम्स मिल का भारी असर था। जेम्स, उनके सहयोगी जेरेमी बेंथम और दोनों के शिष्य रॉबर्ट को लगता था कि उनकी सभ्यता भारतीय लोगों से बेहतर है और यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे भारत को सभ्य बनाएं। इस प्रक्रिया में रॉबर्ट को ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ निर्णय ठीक नहीं लगते थे और वे उसकी आलोचना करने से नहीं चूकते थे।
रॉबर्ट भारत में नौकरी करने आए थे। उन्हें शराब आयात करने वाली एक कंपनी में बहीखाता संभालने वाले क्लर्क का काम मिला था। मेहनती रॉबर्ट नौकरी के बाद बचा समय लेख लिखने में लगाते और उन्हें नियमित रूप से बाम्बे गजट और बाम्बे टाइम्स को भेजा करते थे। उन साप्ताहिक अखबारों में रॉबर्ट नाइट जसा दूसरा कोई लेखक नहीं था। एक बार ‘बाम्बे टाइम्सज् के संपादक छुट्टी पर गए तो उन्होंने रॉबर्ट को अपनी अनुपस्थिति में अखबार के संपादन की जिम्मेदारी सौंप दी। शायद रॉबर्ट नाइट को इसी मौके का इंतजार था। संपादक लौटे तब भी रॉबर्ट वहीं बने रहे और जल्दी ही उसके साझीदार बन गए। अपने दोस्तों से पैसे जुटाए और 1861 में दैनिक के रूप में द टाइम्स ऑफ इंडिया की शुरुआत की। कुछ ही समय में वह शहर का सबसे बड़ा अखबार बन गया और उसकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी।
रॉबर्ट नाइट के लिखने का ढंग नहीं बदला था और उसे पूरी तरह न समझकर असहज होने वाले लोगों की कतार भी। रॉबर्ट अक्सर भारतीय लोगों का पक्ष लेते दिखाई देते। बंबई नगर निगम चुनाव में भारतीय लोगों के अधिक प्रतिनिधित्व की, उन्होंने जमकर हिमायत की। जब यह हुकूमत को नागवार गुजरने लगा तो अचानक दो घटनाएं हुईं। उनकी कंपनी के शेयर मुंह के बल गिरे और एक दिन संपादक की कुर्सी भी चली गई। इसी के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया का चरित्र भी बदला। रॉबर्ट नाइट लंदन लौट गए लेकिन कुछ ही समय में उन्हें लगा कि उनका कर्मक्षेत्र भारत ही है क्योंकि स्थितियां नहीं बदली थीं और वह अब भी मानते थे कि साम्राज्य (ब्रितानी) का काम स्थानीय लोगों के हित में काम करना है, उन्हें चूसकर गन्ने की खोई बना देना नहीं।
भारत लौटकर द टाइम्स ऑफ इंडिया शुरू करने के दस साल बाद रॉबर्ट नाइट ने एक नया अखबार निकालने का फैसला किया। इस सिलसिले में रॉबर्ट ने मद्रास से निकलने वाले और बंद हो चुके एक साप्ताहिक अखबार को खरीद लिया, जिसका नाम था द स्टेट्समैन। उन्होंने इसे बंबई से प्रकाशित करना शुरू किया। टाइम्स ऑफ इंडिया से बेदखल किए जाने के बाद रॉबर्ट नाइट के पास ज्यादा पैसे नहीं थे। जो पैसे थे, उसका एक बड़ा हिस्सा रॉबर्ट ने पहले ही एक नई साप्ताहिक पत्रिका इंडियन इकानामिस्ट निकालने में लगा दिया था। इस खस्ता हालत के बावजूद स्थितियों के प्रति उनका दृष्टिकोण नहीं बदला। उलटे अब उनके निशाने पर ब्रितानी सरकार और महारानी थीं। पत्रिका में प्रकाशित लेखों में रॉबर्ट ने महारानी के खर्चो को भारत के बजट में शामिल करने पर आपत्ति जताई और अफगानिस्तान अभियान के खर्चो को गलत बताया। इंडियन इकानामिस्ट के कई लेखों में रॉबर्ट नाइट ने रेल सेवा के विस्तार की तीखी आलोचना की। उनका तर्क था कि यह धनराशि सड़क बनाने और सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने पर खर्च करना बेहतर होता। एक और लेख में उन्होंने कहा कि ब्रितानी सरकार की सारी नीतियां और उसकी योजनाएं भ्रष्ट ब्रिटिश ठेकेदारों और ब्रितानी इस्पात उद्योग के हित में बनाई जाती हैं। उसमें जनता का हित कभी नहीं देखा जाता।
भारत लौटकर द टाइम्स ऑफ इंडिया शुरू करने के दस साल बाद रॉबर्ट नाइट ने एक नया अखबार निकालने का फैसला किया। इस सिलसिले में रॉबर्ट ने मद्रास से निकलने वाले और बंद हो चुके एक साप्ताहिक अखबार को खरीद लिया, जिसका नाम था द स्टेट्समैन। उन्होंने इसे बंबई से प्रकाशित करना शुरू किया। टाइम्स ऑफ इंडिया से बेदखल किए जाने के बाद रॉबर्ट नाइट के पास ज्यादा पैसे नहीं थे। जो पैसे थे, उसका एक बड़ा हिस्सा रॉबर्ट ने पहले ही एक नई साप्ताहिक पत्रिका इंडियन इकानामिस्ट निकालने में लगा दिया था। इस खस्ता हालत के बावजूद स्थितियों के प्रति उनका दृष्टिकोण नहीं बदला। उलटे अब उनके निशाने पर ब्रितानी सरकार और महारानी थीं। पत्रिका में प्रकाशित लेखों में रॉबर्ट ने महारानी के खर्चो को भारत के बजट में शामिल करने पर आपत्ति जताई और अफगानिस्तान अभियान के खर्चो को गलत बताया। इंडियन इकानामिस्ट के कई लेखों में रॉबर्ट नाइट ने रेल सेवा के विस्तार की तीखी आलोचना की। उनका तर्क था कि यह धनराशि सड़क बनाने और सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने पर खर्च करना बेहतर होता। एक और लेख में उन्होंने कहा कि ब्रितानी सरकार की सारी नीतियां और उसकी योजनाएं भ्रष्ट ब्रिटिश ठेकेदारों और ब्रितानी इस्पात उद्योग के हित में बनाई जाती हैं। उसमें जनता का हित कभी नहीं देखा जाता।
रॉबर्ट नाइट से नाराज लोगों की संख्या काफी थी पर बिना लाग-लपेट अपनी बात कहने के उनके ढंग के प्रशंसक भी कम नहीं थे। उनके एक शुभचिंतक सरकारी अधिकारी एलन आक्टेवियन ह्यूम थे, जिन्होंने बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ह्यूम ने रॉबर्ट नाइट का परिचय बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्ज कैंपबेल से करा दिया। खतो किताबत के बाद कैंपबेल रॉबर्ट की मदद को राजी हो गए पर उनकी शर्त थी कि इंडियन इकानामिस्ट कलकत्ता से प्रकाशित हो। इसी के साथ साप्ताहिक एक तरह से ब्रितानी आधिकारिक प्रकाशन बन गया। उसकी प्रसार संख्या बढ़ी। इसी बीच रॉबर्ट की टिप्पणियों के चलते प्रशासन ने इंडियन इकानामिस्ट का प्रकाशन रोक दिया और उन्हें हटा दिया गया। रॉबर्ट ने इसके बाद भी हार नहीं मानी।
अपने परिवार को आगरा भेजने के बाद रॉबर्ट ने उन मित्रों से संपर्क किया जो उनकी अनुपस्थिति में बंबई से द स्टेट्समैन का बतौर साप्ताहिक लगातार प्रकाशन कर रहे थे। कुछ बातचीत और पैसे जुटाने पर रॉबर्ट ने द स्टेट्समैन को कलकत्ता लाने का निर्णय किया। शुरू में इसे साप्ताहिक रखा गया और कुछ साल बाद वह दैनिक हो गया। दैनिक ने अपनी भूमिका नहीं बदली। उसके पास संवाददाताओं का जाल था और आंकड़ों, तथ्यों के मामले में उससे बेहतर कोई अखबार नहीं था। जाहिर है, इसका असर हुआ और स्टेट्समैन मुनाफा कमाने वाला अखबार बन गया। रॉबर्ट नाइट 1890 में अपनी मृत्यु तक द स्टेट्समैन और भारतीय पत्रकारिता के प्रथम पुरुष बने रहे। दुर्भाग्य से रॉबर्ट पर अब तक कोई किताब नहीं थी। एडविन हर्शमान ने उन पर पहली किताब लिखी है। यह काफी नहीं है। भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता को समझने के लिए और तथ्य सामने लाने की जरूरत है और यह काम उसके महागुरुओं को जाने बिना संभव नहीं है।
अपने परिवार को आगरा भेजने के बाद रॉबर्ट ने उन मित्रों से संपर्क किया जो उनकी अनुपस्थिति में बंबई से द स्टेट्समैन का बतौर साप्ताहिक लगातार प्रकाशन कर रहे थे। कुछ बातचीत और पैसे जुटाने पर रॉबर्ट ने द स्टेट्समैन को कलकत्ता लाने का निर्णय किया। शुरू में इसे साप्ताहिक रखा गया और कुछ साल बाद वह दैनिक हो गया। दैनिक ने अपनी भूमिका नहीं बदली। उसके पास संवाददाताओं का जाल था और आंकड़ों, तथ्यों के मामले में उससे बेहतर कोई अखबार नहीं था। जाहिर है, इसका असर हुआ और स्टेट्समैन मुनाफा कमाने वाला अखबार बन गया। रॉबर्ट नाइट 1890 में अपनी मृत्यु तक द स्टेट्समैन और भारतीय पत्रकारिता के प्रथम पुरुष बने रहे। दुर्भाग्य से रॉबर्ट पर अब तक कोई किताब नहीं थी। एडविन हर्शमान ने उन पर पहली किताब लिखी है। यह काफी नहीं है। भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता को समझने के लिए और तथ्य सामने लाने की जरूरत है और यह काम उसके महागुरुओं को जाने बिना संभव नहीं है।
2 comments:
इतने दिनों बाद वापस ब्लॉग पर अपने अर्थपूर्ण विचारों को प्रस्तुत करने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद...एक छोटा सा प्रश्न है...अंग्रेजी पत्रकारिता का इतिहास क्या वर्तमान में टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों के पतन पर कुछ रौशनी डाल सकेगा?
एक बड़े लंबे अरसे के बाद अचानक आपको देखकर बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। बीबीसी के दिनों से आपका प्रशंसक हूं और इस चिट्ठे को खोजकर बहुत खुश हूं। आशा करता हूं अब आपको निरंतर पढ़ सकूंगा।
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