ये लकीरें। हाकी के दर्द की।
पतन की। राष्ट्रीय शर्म की लकीरें हैं।
कभी राष्ट्रीय खेल। आठ ओलंपिक स्वर्ण।
स्वर्णिम युग। दद्दा, बाबू की हाकी।
पृथ्वीपाल, अजितपाल की हाकी।
कहां थी। कहां आ गई। गिल।
ज्योतिकुमारन की हाकी।
अब ओलंपिक से बाहर।
खेल में भी खेल। परदे के पीछे।
यह लेन-देन। चेहरे पर कलंक।
बदनुमा दाग। जांच की लीपापोती।
भला नहीं होगा। कुंडली मारे आकाओं का पर्दाफाश जरूरी है।
उनकी विदाई जो हाकी के नाम पर खा रहे मलाई।
सचमुच के खिलाड़ी बागडोर संभालें।
तभी अर्श तक पहुंचेगी हाकी और लौटेंगे स्वर्णिम दिन।
पतन की। राष्ट्रीय शर्म की लकीरें हैं।
कभी राष्ट्रीय खेल। आठ ओलंपिक स्वर्ण।
स्वर्णिम युग। दद्दा, बाबू की हाकी।
पृथ्वीपाल, अजितपाल की हाकी।
कहां थी। कहां आ गई। गिल।
ज्योतिकुमारन की हाकी।
अब ओलंपिक से बाहर।
खेल में भी खेल। परदे के पीछे।
यह लेन-देन। चेहरे पर कलंक।
बदनुमा दाग। जांच की लीपापोती।
भला नहीं होगा। कुंडली मारे आकाओं का पर्दाफाश जरूरी है।
उनकी विदाई जो हाकी के नाम पर खा रहे मलाई।
सचमुच के खिलाड़ी बागडोर संभालें।
तभी अर्श तक पहुंचेगी हाकी और लौटेंगे स्वर्णिम दिन।
1 comment:
आपके अखबार के कार्टून के बाद तो गिल बेचारा चला ही गया। अब देखते हैं हाकी का क्या होता है।
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