कुछ आंखें सपना देखती हैं। सारी उम्र। बंद होने तक। उम्मीद के साथ। कि कोई उनकी भी सुनेगा। बदलेगी जिंदगी। बेहतर होगी। यह मजबूरी का सपना है। इसलिए कि उसने सीमा पर लड़कर जिंदगी खपा दी। ताकि मुल्क सपना देख सके। महफूज रहे और तरक्की करे। वह मुल्क के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा गया। मगर हुक्मरान पीछे रह गए। जानबूझकर या अनजाने में। आयोगों में उलझे। छठे वेतन आयोग में। एक छड़ी लेकर चला आ रहा है उसका भविष्य। जंतर-मंतर तक आया। पैदल चलकर। उसने उम्मीद का साथ नहीं छोड़ा है। शायद इस बार..।
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4 comments:
हर बार की तरह मार्मिक और भावुक...। धन्यवाद यहाँ बाँटने के लिए।
har bar ki tarah aapki lekhni ne jadu bikhera!
बहुत ही दुखद. जिन "जवानों" ने अपनी जवानी देश के लियी कुर्बान कर दी - अपने घर-परिवार, बच्चों, बूढे माँ-बाप को अकेला छोड़कर बर्फ, दलदल, रेगिस्तान, सागर और वर्षा-वनों में भटके - आज उन्हीं को बुढापे में छडी टक्कर अपने हक को मांगना पड़ रहा है, इससे ज़्यादा शर्म की बात हम सब के लिए क्या हो सकती है. छोटी सी पोस्ट मगर बेहद सशक्त, धन्यवाद!
सरहदों पर दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले अपने ही घर में हारते नजर आ रहे है....अफसोस....
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