1857 का 150वां जयंती वर्ष पूरा हो गया। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम को इस बार जिस शिद्दत से याद किया गया, पहले कभी नहीं किया गया था। साल भर जलसे हुए, किताबें छपीं, गोष्ठियां हुईं। हर बार इस बात पर जोर दिया गया कि 1857 कोई सामान्य घटना नहीं थी। वह सिपाही विद्रोह भी नहीं था। रजवाड़ों की यह कोशिश भी नहीं कि वे अपनी रियासतें बचा सकें। ऐसा 1857 के स्वर्ण जयंती वर्ष 1907 या शताब्दी वर्ष 1957 में नहीं हुआ था। यह सवाल उठाया गया कि ऐसा इसी बार क्यों हुआ। डेढ़ सौ सालों बाद। जवाब आसान नहीं है। पर इतना कठिन भी नहीं कि कल्पना न की जा सके। 1907 में अंग्रेजों का शासन कायम था। 1957 में आजादी को महज दस साल हुए थे। 1857 की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों द्वारा की गई हिंसा को भुला पाना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा होगा। इतिहासकार अमरेश मिश्रा का मानना है कि प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने करीब एक करोड़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। घटना के बहुत निकट होते हुए भी कम लोग यह साहस कर सके कि 1857 का सही विश्लेषण करें। 1957 तक आजादी की चमक-दमक और उसका खुमार लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी था। अंग्रेजों के भारत में रहने तक 1857 का ठीक से अध्ययन संभव नहीं था। आजादी मिलने के बाद दस्तावेजों को खंगालने की शुरुआत हुई। संभवतः 50 साल और लगें। आम जानकारी के मुताबिक लगभग एक लाख पृष्ठ से अधिक सामग्री अभी तक पढ़ी ही नहीं गई है। कई बस्ते खुले ही नहीं। यह दस्तावेज सरकारी अभिलेखागार में हैं। इनमें उनका शुमार नहीं है जो इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। या फिर लोककंठों में हैं। तमाम छोटी रियासतों ने विद्रोह में हिस्सा लिया था। पर उनके दस्तावेज सामने नहीं आए हैं। लोकगीतों का पूरा संग्रह नहीं हुआ है। इस पर भी काम नहीं हुआ कि बुंदेलखंड का आल्हा 1857 के बाद खत्म क्यों हो गया। उसके पीछे भी एक अंग्रेज इलियट का हाथ था, जिसने आल्हा की जीवंत परंपरा को मुर्दा बना दिया।
यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि 1857 के जिन बहादुरों का डेढ़ सौ साल बाद हम शहीदों के रूप में सम्मान कर रहे हैं, वे सरकारी दस्तावेजों में आज भी विद्रोही, राजद्रोही, भगोड़े और कतई भरोसा न करने लायक लोग हैं। ये दस्तावेज बदले नहीं गए। न 1947 से पहले, न उसके बाद। जिन सिपाहियों ने उस स्वत्रंतता संग्राम में हिस्सा लिया था उनके प्रति सरकार और संसद को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। इसका पहला कदम अंग्रेजों के दस्तावेजों को बदलना हो सकता है। यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं बल्कि उपमहाद्वीप के चार देशों की है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान। 1857 इस उपमहाद्वीप की साझा विरासत है। उसका सम्मान करना साझा कर्तव्य होना चाहिए। इसे थोथी बयानबाजी से निपटाने का समय बीत गया है। अगर पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधों के लिए कुछ देशों से माफी मांगने की बात उठाई जा सकती है तो 1857 पर ब्रिटेन से माफी की मांग क्यों नहीं की जाती।
अंग्रेजों ने अपने अत्याचारों के लिए खासतौर पर अवध क्षेत्र को चुना। शायद इसलिए कि उसकी नजर में अवध 1857 के लिए किसी इलाके के मुकाबले ज्यादा जिम्मेदार था। इसलिए भी कि ब्रितानी सेना में एक तिहाई से अधिक सिपाही अवध के थे। बैरकपुर का विद्रोह अवध के एक नुमांइदे ने किया मेरठ के विद्रोह में अवध की टुकड़ी सबसे आगे थी। अंग्रेज इसे पचा नहीं पाए। 1857 के पहले अवध के लोगों को लड़ाकू और ईमानदार कौम समझा जाता था। ज्यादातर नियुक्तियां इसी आधार पर होती थीं। राज्यक्रांति के बाद अंग्रेजों ने अवध से नियुक्तियां बंद कर दीं। एक नया इलाका चुना। पंजाब में सिपाहियों की भर्ती होनी लगी। इस योजना में प्रमुख भूमिका पंजाब के गवर्नर मैलकम डार्लिंग ने निभाई। अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियां घर-घर पसरी थीं। आज भी हैं। कुछ कहानियों की शक्ल में। कुछ गीतों के रूप में। इन पर समन्वित रूप से अब तक काम नहीं हुआ। इन अत्याचारों के किस्से मेरठ से दिल्ली के रास्ते में आने वाले गांवों में भी हैं। टटेरी, बालैनी, जानीबुजुर्ग में। बालौनी में दो गांव पूरी तरह उजाड़ देने के किस्से स्थानीय लोग सुनाते हैं। उनका जुर्म सिर्फ इतना था कि उन्होंने मेरठ से दिल्ली जा रहे सिपाहियों को पानी पिलाया था।
1857 को हम पूरी तरह आज भी नहीं देख पाए हैं। शायद इसलिए भी कि उस घटना पर प्राथमिक स्त्रोत के रूप में इतिहासकारों की नजर केवल अंग्रेजों द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों, अभिलेखों, डायरियों और किताबों पर पड़ी। उनकी बहुतायत थी। उन्होंने उसे सिपाही विद्रोह कहा और अपने ढंग से, अपनी सहूलियत के लिए इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा। भारतीय स्त्रोत के रूप में 1907 में छपी सावरकर की किताब के अलावा मात्र तीन और पुस्तकें उपलब्ध थीं। विष्णुभट्ट गोडसे वरसईकर की माझा प्रवास, सीताराम पांडे की किस्सा पांडे सीताराम और रामजी राव की एक किताब जिसका हवाला सावरकर की किताब में मिलता है। सारे दस्तावेज सामने आने पर शायद तस्वीर और साफ होगी। मसलन, अभिलेखागार के एक बस्ते से मिले दस्तावेज, जिसमें दिल्ली में गोवध न करने का बहादुरशाह जफर का फरमान दर्ज है, के मिलने तक 1857 में मेरठ में विद्रोह करने वाली टुकड़ी में ज्यादातर हिंदू सिपाही थे, जबकि जेल पर हमला करके छुड़ाए गए तीसरी लाइट कैवेलरी के ज्यादातर सिपाही मुसलमान थे। दरअसल, 1857 का फलक इतना बड़ा था कि अंग्रेज उसे विद्रोह मानते तो उसके बोझ के नीचे दबकर मर जाते। उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इतना सुनियोजित, विस्तृत और नियंत्रित विद्रोह हुआ कैसे? उस समय जब वे समझ रहे थे कि सबकुछ नियंत्रण में है और उनका भारत पर पूरा कब्जा है। उन्होंने इसे म्युटिनी यानी सिपाही विद्रोह कहकर छोटा करने की कोशिश की। यह कहा कि विद्रोह कुचल दिया गया। नाकामयाब रहा। वास्तव में इसमें से कुछ भी सच नहीं है। 1857 केवल सिपाही विद्रोह नहीं था, भले ही वह सिपाहियों के विद्रोह के साथ शुरू हुआ। विद्रोह कुचला नहीं गया बल्कि कामयाब रहा। विद्रोह करने वालों की मंशा ईस्ट इंडिया कंपनी (जान कंपनी) को खदेड़ने और नष्ट करने की थी। वे अपने मकसद में कामयाब हुए। 1857 के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी खत्म हो गई। यह और बात है कि चालाक अंग्रेजों ने कंपनी को खत्म करते हुए भारत पर सीधी राजशाही थोप दी।
इस तरह से देखा जाए तो 1857 एक विद्रोह था ही नहीं। उस साल तीन विद्रोह हुए। इन सब ने 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद हुए लगभग सौ विद्रोहों से सबक लिया था। उन्हें इतिहास का यह पहलू मालूम था। 1857 के तीनों विद्रोहों के किरदार अलग-अलग थे। विद्रोह के कारण भी अलग थे। लेकिन वह एक जगह आकर मिल गए। पहला विद्रोह सिपाहियों का था। अंग्रेजों के मुताबिक इसलिए कि सिपाही चर्बी वाले कारतूस से भड़क गए थे। यानी कि यह विद्रोह था ही नहीं, धार्मिक प्रतिक्रिया थी।
यह बड़ा झूठ काफी समय चला। असली कारण सिपाहियों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति और गांवों की कमजोर पड़ती भूमिका थी। दूसरा विद्रोह रजवाड़ों का था जो अपनी रियासतें बचाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए। तीसरा विद्रोह जनविद्रोह था। इसकी शुरुआत फैजाबाद से हुई, जहां सिपाही विद्रोह से पहले जनता ने विद्रोह करके जेल में बंद अपने मौलवी अहमदुल्ला शाह को आजाद कराया। हर लिहाज से 1857 एक महाक्रांति थी। एक ऐसी क्रांति जिसकी औपनिवेशिक दुनिया में कोई मिसाल नहीं थी। एक महाशक्ति के खिलाफ एक महाक्रांति ही कामयाब हो सकती थी। या कम से कम उसका जवाब दे सकती थी।
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