खाली जगह सिर्फ कल्पना है। हकीकत में ऐसी कोई जगह नहीं होती। अगर कभी हुई, तो देर तक रह नहीं पाती। उसे कोई न कोई भर देता है। चाहे प्रकृति हो या समाज। जगह का खाली होना और भरना परिवर्तन का कारक बनता है। कई बार खामियां और विकृतियां सिर्फ इसलिए आती हैं कि जगह को भरने वाला पात्र अनुपयुक्त होता है। केवल समाज के संदर्भ में देखें तो इसे तमिलनाडु के उदाहरण से साफ-साफ समझा जा सकता है। अब से 135 साल पहले जन्मे ईवी रामास्वामी नायकर की मिसाल लेकर, जिन्हें पेरियार के रूप में जाना जाता है।
तमिलनाडु सदियों तक मंदिर केंद्रित समाज था। शहर मंदिरों के इर्द-गिर्द बसते थे। मीनाक्षीपुरम से लेकर चिदंबरम तक । मंदिर थे तो देव प्रतिमाएं भी थीं। पेरियार ने एक आंदोलन शुरू किया, जो मोटे तौर पर दलितों के आत्मसम्मान का आंदोलन था, जिसने बाद में ब्राह्मण विरोध का स्वरूप ग्रहण कर लिया। पेरियार का एक चर्चित वाक्य है-‘ईश्वर कहीं नहीं है। जिसने ईश्वर की रचना की है, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता। जो ईश्वर का गुणगान करता है, लुच्चा है। जो उसकी पूजा करता है, बर्बर है।ज् आजादी के तीन साल बाद शुरू हुआ यह आंदोलन फैलता गया। उसे समाज ने स्वीकार किया। इस हद तक कि जब 1953 में पेरियार ने बुद्धपूर्णिमा के दिन गणेश प्रतिमा तोड़ी तो कोई विरोध नहीं हुआ। 1956 में उन्होंने राम की प्रतिमा का भंजन किया। ईश्वर को नकारने और प्रतिमा भंजन ने तमिल समाज में कई परिवर्तन किए। उसने पहली बार प्रतिमा रहित समाज देखा लेकिन वह पेरियार को उस जगह नहीं बिठाना चाहता था। वह जगह खाली थी और उसे अंतत: सिनेमा ने भरा। सिनेमा के नायक महानायक बन गए। उनके प्रशंसकों का दायरा बढ़ता गया। धीरे-धीरे वे समाज के कें्र में आ गए। तमिलनाडु पहला राज्य था जहां 1960 के दशक में सिनेमा से जुड़े लोग सत्ता में पहुंचे। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। अन्नादुरै ने 1948 में वेल्लईकारी (नौकरानी) फिल्म की पटकथा लिखी, करुणानिधि दूसरे बड़े पटकथाकार बने। राजें्रन गीतकार थे। एमजी रामचं्रन अभिनेता। जयललिता अभिनेत्री। तमिल सिनेमा मूलत: पिछड़ी जातियों, समाज के कमजोर वर्गो और महिलाओं को कें्र मे रखकर मनोरंजन के उद्देश्य से बनाया जाता रहा। नायकों को महानायक बनाने के प्रति सिनेकार सतर्क थे। नायक महिलाओं की इज्जत करता था। परदे पर शराब नहीं पीता था और हमेशा कमजोर वर्ग के लोगों के पक्ष में खड़ा होता था। यानी कि तमिलनाडु में एक खालीपन को इस कुशलता से भरा गया कि उसका असर आज तक है। ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु में मंदिर नहीं हैं या उनमें पूजा-अर्चना नहीं होती लेकिन मंदिरों के समानांतर नायकों की दूसरी कतार खड़ी हो गई है। इससे तमिलनाडु का मंदिर केंद्रित समाज सिनेमा कें हो गया। बल्कि उसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ा। खासकर आंध्र प्रदेश में जहां एनटी रामाराव मिथकीय चरित्रों का अभिनय करते हुए समाज और राजनीति के महानायक बन गए। इस तरह के परिवर्तन देश के दूसरे क्षेत्रों में भी आए। उदाहरण के लिए उत्तर भारत नदी केंद्रित समाज से अपराध केंद्रित बन गया। पूर्व भारत में नव जागरण की वजह से कला, साहित्य और संस्कृति समाज के केंद्र में आई थी। वहां संस्कृति केंद्रित समाज कैडर केंद्रित बना जबकि पश्चिम भारत का बदलाव बिल्कुल अलग ढंग से हुआ। महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा सम्रु से सटे इलाके हैं। वहां सम्रु के रास्ते व्यापार की वजह से सहिष्णुता सहज रूप से समाज में व्याप्त थी। सम्रु की कें्रीयता कम होने से समाज में उसका महत्व घटा। खुलापन, जो उस समाज की पहचान था, संकुचित क्षेत्रीयता में बदलने लगा। महाराष्ट्र में शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे का उद्भव और गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कामयाबी सामने है। एक का नारा संकुचित मराठा गौरव है तो दूसरे का गुजरात गरिमा।
यह लगभग साफ है कि चीजों को उनके हाल पर छोड़ देना समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किसी समाज, क्षेत्र अथवा रंग पर किसी का अधिकार नहीं है। केवल इसलिए नीला, लाल, हरा या केसरिया रंग को नहीं छोड़ा जा सकता कि कुछ राजनीतिक दलों के झंडे उस रंग के हैं। रंगों की तरह ही संस्कृति किसी दल विशेष की नहीं हो सकती। वह सबकी है। साझा विरासत। दरअसल संस्कृति की उपेक्षा समाज को बहुत भारी पड़ सकती है। समेकित संस्कृति को समाज में केंद्रीय स्थान मिलना ही चाहिए। भले उसकी शब्दावली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलावा कुछ और हो। क्योंकि संस्कृति सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा महत्वपूर्ण है। जीडीपी समाज की प्रगति का एक आधा-अधूरा संकेतक है। संस्कृति में उसकी विराटता, विविधता और विवेक समाहित है। दुर्भाग्य है कि सांस्कृतिक एकीकरण और राष्ट्र के लिए उसका महत्व ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए अछूत हो गया है। यह एक खाली जगह है। इसे खाली नहीं छोड़ा जा सकता।
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