Friday, June 27, 2008

सूली ऊपर सेज पिया की


कभी रंग थे इस गुलशन में। फूल थे। खिलखिलाते। लहलहाते। हर तरफ महकती उम्मीद की खेती। हरी-भरी। चार साल पहले। इसी दौरान सब बदल गया। अब रंग नहीं है। उसका भूतकाल है। दर्द की खेती है। सिर्फ कांटे। बल्कि कांटे की काटे। वह भी लोहे के। बहुत कठिन है डगर। गो उसकी राह आसान कभी नहीं रही। सूली ऊपर सेज पिया की। केहि विधि मिलना होय। करार रहे या सरकार। दोनों नहीं रह सकते। म्यान तो एक ही है। सांकरी गली में कैसे समाय। एक ही रास्ता है। मिलते रहें। या मिल लें।

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