Saturday, June 7, 2008

कोई कान खींचकर कहे-अबे सुन बे गुलाब


गोसाईंजी सुनिए। जमाना बदल गया है। वो दिन भी नहीं रहे कि गिरा अनयन नयन बिनु बानी। अब तो जीभ देखती हैं। आंखें बोलती हैं। लोहा-लक्कड़ सबकी राय है। चेतना उस स्तर तक पहुंच गई है। साइंस का चमत्कार नहीं है यह। कवि की कल्पना से भी नहीं। हकीकत है। हद से गुजर जाने की सच्चाई। महंगाई हद से आगे बढ़ गई है। कभी तो बोलना ही था। जबान सबको मिल गई है। लेकिन कान बंद रहे। कान खुले होते तो हाथ बंधे रहते। जरूरत है कि कोई कान खींचकर कहे-अबे सुन बे गुलाब। खून चूसना बंद कर।

1 comment:

Anonymous said...

çizgi filim
dokuma