Saturday, June 21, 2008

खेल मोह का है और खिलाड़ी मनमोहन

यह मोह का खेल है। बहुत महंगा पड़ता है। माया से ज्यादा। माया से बच सकते हैं। मोह से कोई नहीं बचा। जो गिरफ्त में आया, कभी नहीं छूटा। उलझकर रह गया। मोहपाश में। खेल मोह का हो और खिलाड़ी मनमोहन, तब भी नहीं। वह जितना बढ़ता है, आदमी छोटा होता जाता है। चने की झाड़ पर चढ़ाता है। ऊंचाई देता है। जैसे भला करने पर आमादा हो। और तबाह कर देता है। भले हाथ में परमाणु हथियार हों। सत्ता के मोह में जो फंसा, सो फंसा। अब तो भली करेंगे राम।

2 comments:

समयचक्र said...

baht badhiya . aaj ek samachaar patr me padha ki ki hamare desh ke p.m. ne isteefe ki peshakash ki hai . dhanyawaad.

Batangad said...

क्या बात है सर। आप भी ब्लॉग की दुनिया में आ गए हैं।