
फंस जाना एक तरह से धंस जाना है। गहरे। और गहरे। लेकिन दूसरी तरह से नहीं भी है। धंसना अक्सर दूसरे की वजह से होता है। फंसना, अपनी वजह से। हमेशा। जानते-बूझते। कई बार अनजाने में। मकड़ी दोषी नहीं है। वह जाल बुनती है। इंतजार करती है। कि शिकार आए। उसकी जिंदगी चले। उसका जीवन-व्यापार। यहां मौत का व्यापार है। अरबों रुपए का। फैला हुआ। ललचाता, लुभाता। सब्जबाग दिखाता। कि आओ और फंसो। इस फंसने से बचना कठिन नहीं है। धंसने से निकलना थोड़ा मुश्किल है। असंभव कतई नहीं। तोड़ दो दोस्त यह मकड़जाल।
2 comments:
बिल्कुल सही!
घुघूती बासूती
मधुकर जी,
बात तो आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, कि यह मकड़जाल तोड़ देना चाहिए और तोड़ना ही होगा, और उम्मीद है कि आपने इस पर भी विचार किया ही होगा कि इस मकड़जाल को तोड़ा कैसे जाए....
कुछ मदद कीजिए... या कुछ बातचीत ही शुरू कीजिए, शायद राह निकल आए...
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