Sunday, June 29, 2008

एक चादर कबीर की थी


धागा तैयार है। ताना-बाना बुना जा रहा है। करघा घूमने को है। रंगरेज चाक-चौबंद। झीनी चादर बुनने को। एक चादर कबीर की थी। एक राजनीति की है। कभी मुकम्मल नहीं बनी। अबकी भी नहीं बनेगी। यानी कि कुछ नहीं बदला। पूरी चादर अकेले नहीं बनती। सबको पता है। जोड़-गांठकर बनानी पड़ेगी। पैबंद लगाकर। और फिर सहेजकर रखनी होगी। जस-की-तस। कि किसी तरह पांच साल चल जाए। अनगिनत सियासी जुलाहे। लट्ठम-लट्ठ को तैयार। पांव फैलाने को बेसब्र। तेते पांव पसारिए से बेपरवाह। बेफ्रिक कि चादर झीनी है। और छोटी भी।

3 comments:

Ashok Pandey said...

एक दिन यही चादर इन सियासी लोगों की कफन बनेगी।

डा. अमर कुमार said...

नो कमेंट्स !

बोधिसत्व said...

भाई साहब
कुछ सवाल हैं
क्या ताना-बाना भी बुना जाता है
क्या रंगरेज कपड़े बुनता है
क्या नई चदरिया में पैबंद भी बुनी जाती है
कभी किसी की एक कविता पढ़ी थी
छीपी औ रंगरेद में रोज होत तकरार
क्या छीपी बुनकर होता है जो रंगरेज नहीं होता
आप के लिखे का भक्त रहा हूँ...हे वसुधा से लेकर विष्णु भट्ट की आत्मकथा तक जो मिला है पढ़ चुका हूँ...