दुनिया के नक्शे में पड़ोसी चुने नहीं जा सकते। वे चुने-चुनाए मिलते हैं। वह दोस्त हो या दुश्मन, अच्छा हो या बुरा, लोकतंत्र हो या सैन्य तानाशाही, उसके साथ रहना सभी देशों की मजबूरी है। भारत की भी। कूटनीतिक रूप से विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी का यह बयान ठीक हो सकता है कि मुशर्रफ का जाना पाकिस्तान का आंतरिक मामला है लेकिन इससे पड़ोस में स्थितियां बदल नहीं जातीं। इसलिए भारत के लिए यही बेहतर होगा कि वह इस आंतरिक मामले पर नजदीकी नजर रखे और वहां की गतिविधियों के अनुरूप और बदलावों से निपटने के लिए पूरी कूटनीतिक और रणनीतिक तैयारी रखे। इसका इशारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने यह कहकर किया था कि मुशर्रफ के जाने से भारत के पड़ोस में एक बड़ा शून्य पैदा हो जाएगा।नारायणन का संकेत स्पष्ट था। उनकी चिंता केवल शून्य को लेकर नहीं थी बल्कि यह थी कि वह शून्य कौन भरेगा।
पाकिस्तान के वर्तमान हालात में इस शून्य को भरने की तीन सूरतें हो सकती हैं। पहली यह कि मुशर्रफ को इस्तीफे के लिए मजबूर करने वाली लोकतांत्रिक ताकतें मजबूत होकर उभरें और पाकिस्तान को लोकतंत्र की ओर ले जाकर स्थायित्व दें। दूसरी सूरत कट्टरपंथी जमातों और मुल्लाओं की ताकत बढ़ने की है, जिन्हें अहसास है कि मुशर्रफ जैसे साझा दुश्मन के अभाव में किसी तरह एक हुई नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी की सियासी जमातें बिखर सकती हैं। यह उनके लिए खासतौर पर जरखेज जमीन होगी। तीसरी स्थिति सेना के एक बार फिर सत्ता पर नियंत्रण की है, जो हर हाल में पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति चलाती है।
पाकिस्तानी शासन में सेना का रसूख कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेनाध्यक्ष ने मुशर्रफ पर लगाए गए आरोपों को सेना के खिलाफ माना और कहा कि वह किसी भी सूरत में मुशर्रफ पर महाभियोग के नाम पर सेना की छवि धूमिल नहीं होंने देंगे। शासन को सेनाध्यक्ष की बात सुननी और माननी पड़ी। यह माना जा सकता है कि महाभियोग की प्रक्रिया लंबी चलती। ऐसे में सेना और नागरिक प्रशासन के बीच पहले से चले आ रहे मतभेद और गहरे होते। सत्ता का केंद्र न बदलता तो कम से कम उसकी धुरी जरूर कुछ खिसक जाती। एक तथ्य यह भी है कि पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष पर महाभियोग कभी नहीं लगाया गया। हालांकि आजादी के साठ में से चालीस साल वही सत्ता पर काबिज थे।तीनों ही स्थितियों में पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उसमें कोई अंतर नहीं आएगा। लेकिन भारत के लिए यह जरूरी होगा कि वह लोकतंत्र के पहरुओं के साथ-साथ पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अश्फाक परवेज कियानी की गतिविधियों पर नजर रखे और उन्हें समझने की कोशिश करे। पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व मुखिया रह चुके कियानी दरअसल मुशर्रफ का विस्तार हैं और शासन में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेगी। पाकिस्तान में भारत के पूर्व राजनयिक जी पार्थसारथी मानते हैं कि तालिबान को समर्थन के मामले में सेना की भूमिका नहीं बदलेगी लेकिन कश्मीर को लेकर उसके रुख में मामूली बदलाव आ सकता है।
भारत के लिए यह भी जरूरी होगा कि वह अमेरिकी प्रशासन और खुफिया तंत्र की गतिविधियों पर नजर बनाए रखे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के परदे में नौ साल तक मुशर्रफ को हर संभव मदद देने वाले अमेरिका के लिए भी पाकिस्तान में हुआ यह आंतरिक परिवर्तन अर्थपूर्ण है। दुनिया में लोकतंत्र के अलमबरदार बने अमेरिका की मुश्किल यह है कि सैन्य तानाशाहों से संपर्क रखना उसे ज्यादा सहूलियत भरा लगता है लेकिन वह लोकशाही की खुलेआम मुखालफत भी नहीं कर सकता। वह सार्वजनिक रूप से शायद अपनी यह इच्छा भी जाहिर नहीं कर सकता कि उसका इरादा इस इलाके पर अपनी धौंस जमाए रखने के लिए कश्मीर जसी किसी जगह पर पांव जमाने का है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा करना कठिन होगा।सेना और लोकतांत्रिक ताकतों को अलग रख दें तो पाकिस्तान की तीसरी स्थिति कट्टरपंथी जमातों के बढ़ते प्रभाव की होगी। अमेरिका के दम पर इन ताकतों को सीमित दायरे में चुनौती देने वाले मुशर्रफ पर कई बार हमले हुए, जिनमें वे बाल-बाल बच गए। उस समय सेना पूरी ताकत से उनके साथ थी। एक तरह से देखा जाए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सैन्य प्रशासन से ज्यादा खतरा धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों से है। मतलब यह कि उन्हें लगातार दुधारी तलवार पर चलना होगा। मुशर्रफ के जाने से सबसे ज्यादा खुशी और राहत इसी तबके ने महसूस की है। इन ताकतों के उभरने का सीधा असर भारत पर होगा। इनका लगभग पूरा अस्तित्व अफगानिस्तान में तालिबान और भारत में कश्मीर पर टिका हुआ है। तेरह साल की अपेक्षाकृत शांति के बाद घाटी में एक बार फिर से उठ रही आजादी की मांग से उनके हौसले जरूर कुछ बुलंद हुए होंगे। इस पर नजर रखना भारत की प्राथमिकता होना चाहिए। उसे पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त सतीश चंद्रा की इस बात पर कम भरोसा करना चाहिए कि पाक में बदलाव और यथास्थिति पर्यायवाची शब्द हैं। भारत के साथ उसके रिश्तों में कोई नाटकीय बदलाव आने की संभावना नहीं है।
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