Saturday, August 23, 2008

एक अच्छा पागलपन

खेलों का असर पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। ऐसे में अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?

कुछ लोगों को लगता है कि भारत में एक नए किस्म का पागलपन तारी हो गया है। भारतीय खुश हो रहे हैं। बल्लियों उछल रहे हैं। जश्न मना रहे हैं। एक जीत पर खुशियां तो एक हार पर उसी तरह का दु:ख। लेकिन खुशियां उन दु:खों पर कई गुना भारी पड़तीं। अभी तक ऐसा सिर्फ क्रिकेट को लेकर होता था। अब दूसरे खेलों पर भी होता है। क्योंकि खेल सिर्फ मैदान के भीतर नहीं खेले जाते और न ही केवल एक खिलाड़ी की जीत या हार का सवाल होता है। उनका असर व्यापक होता है और पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस सामूहिक चेतना का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?
कुछ समाचार-पत्रों ने ऐसे लेख प्रकाशित किए हैं कि तीन पदक जीतने पर भारत के अखबार और टेलीविजन चैनल पागल हो गए हैं। उन्होंने इसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। इस प्रक्रिया में खबर की बलि दे दी गई।
एक अखबार ने तो यहां तक लिख दिया कि दुनिया बदल गई है और ऐसे में ओलंपिक खेलों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। उन्हें एक सिरे से खारिज कर देना चाहिए।
सिर्फ एक खेल आयोजन पर घंटों का टेलीविजन प्रसारण और हजारों-लाखों टन अखबारी कागज बर्बाद करने का कोई तुक नहीं है। उनके अनुसार यह मानना भी बेतुका है कि खेलों का राष्ट्रीय चेतना पर कोई असर पड़ता है। क्योंकि खेल का एक तमगा देखने में सुंदर हो सकता है, इससे ज्यादा उसकी अहमियत नहीं है।खेलों और खेल की भावना के प्रति ऐसे लेखकों की नासमझी सिर्फ इस वजह से स्वीकार नहीं की जा सकती कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। सहमति-असहमति उसके बाद आती है। खेलों के प्रति यही भावना होती तो एवरेस्ट अभी अविजित होता। इंगलिश चैनल में कोई तैराक न उतरता। कार्ल लुईस दस सेकंड से कम में सौ मीटर न दौड़ते। येलेना पांच मीटर से ऊंची छलांग न लगाती। आदमी चांद पर न जाता। अपनी गुफा में रहता। शिकार करता और खुश रहता। सौभाग्य से खेलों के प्रति यह सनकी विचार कुछ सीमित लोगों के हैं। ज्यादातर लोग उनसे सहमत नहीं हैं।हॉकी के भारतीय परिदृश्य और सामूहिक चेतना से गायब होने के बाद एक बड़ा शून्य था जिसे 1983 के क्रिकेट विश्व कप ने भरा। कपिल देव के नेतृत्व में 11 खिलाड़ियों ने केवल विश्व कप नहीं जीता, देश को ऐसी चेतना दी जिसकी मिसाल नहीं है। वह केवल एक घटना नहीं थी। उसका असर व्यापक था और आज तक कायम है। 1983 से पहले भारत में क्रिकेट खेली जाती थी, पर राष्ट्रीय स्तर पर उसे लेकर इतना भावनात्मक लगाव नहीं था। विश्व कप ने यह सब बदल दिया। इसी का असर था और है कि आज भारतीय टीम में 11 में से सात खिलाड़ी गांव की पृष्ठभूमि से आते हैं। पहले एक नजफगढ़ आया। उसके बाद रायबरेली, इलाहाबाद, मेरठ, गाजियाबाद, रांची, हिसार जसे कस्बे क्रिकेट के विश्व मानचित्र पर आ गए। विश्व कप ने उन्हें एक सपना दिया।बीजिंग में चल रहे ओलंपिक खेलों में भारत ने कोई दस-बीस पदक नहीं जीते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन करने से यह और साफ हो जाएगा कि भारत खेल के मामले में अति पिछड़े हुए देशों में शामिल है। उसे ओलंपिक के इतिहास के 108 साल में पहली बार व्यक्तिगत स्वर्ण पदक मिला। 56 साल बाद कुश्ती में कांस्य पदक हासिल हुआ। मुक्केबाजी में पहली बार उसे पदक मिलेगा। इसलिए इसका जश्न होना स्वाभाविक है। इसे केवल एक स्वर्ण, एक कांस्य और एक अन्य पदक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
अगर थोड़ा ध्यान दिया जाए तो संभवत: 2008 का बीजिंग ओलंपिक दूसरे खेलों के लिए वही कर सकता है जो 1983 के विश्व कप ने क्रिकेट के लिए किया था। इसमें सबसे खास बात यह है कि तीन में से दो पदक विजेता ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। उन्हें कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। पहलवान सुशील जसे 20 खिलाड़ियों को प्रशिक्षण के दौरान एक कमरे में गुजारा करना पड़ा। भिवानी जसे कस्बे से चार मुक्केबाजों का ओलंपिक स्तर तक पहुंचना कम उपलब्धि नहीं है। कहते हैं कि भिवानी में क्रिकेट के उतने बल्ले नहीं मिलेंगे, जितने मुक्केबाजी के ग्लव्स मिल जाएंगे। क्या इसे आने वाले दिनों की तस्वीर नहीं माना जा सकता? भले भिवानी के चार में से केवल एक मुक्केबाज को पदक मिला हो, अगले ओलंपिक में यह एक चार में बदल सकता है। एक जमाने में कहा जाता था कि क्रिकेट को देश में धर्म का दर्जा मिल गया है। खिलाड़ी अर्ध-ईश्वर हो गए हैं। क्रिकेट समझने और देखने-सुनने वालों की प्रतिक्रियाएं हैरान करती थीं। एक मैच हारने पर खिलाड़ी के घर पर पथराव। एक मैच जीतने पर उसे कंधे पर बिठाना। कॉरपोरेट जगत ने भी तभी उसकी सुध ली। खिलाड़ी जनमानस में पहुंच गए और उन पर पैसों की बरसात होने लगी। मामला करोड़ों तक जा पहुंचा। जाहिर है, यह भी 1983 के बाद ही हुआ। एक तरह से कहा जाए तो बीजिंग ओलंपिक ने भारत का खेल इतिहास दोबारा लिख दिया है। उसकी तहरीर पूरी होने में थोड़ा समय लग सकता है। जब वह पूरी होगी तो कुछ उसी तरह हो सकती है जिसमें चीन ने अमेरिका को पदक तालिका के शीर्ष से बेदखल कर दिया।

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