
एक ग्रहण। सूरज की लहसुनिया तस्वीर। झुकी हुई। कटी हुई। नाम भी टेढ़ा सा। खग्रास। पूर्ण ग्रहण। रोज नहीं होता। कभी कभार होता है। इसलिए चर्चा। दिलचस्पी। रोज हो तो कोई न पूछे। डर खत्म हो जाए। आशाएं-आशंकाएं न रहें। सूरज-चांद का ग्रहण समझ में आता है। प्राकृतिक है। पर यहां तो रोज ग्रहण। हर ओर। कहीं बिजली-पानी। कहीं सत्ता, कहीं राजनीति। ऐसा ग्रहण कि छूटता ही नहीं। नहीं कटता। प्राकृतिक हो तो कटे। यह हमने बनाया। अपने अधकचरेपन में। प्रकृति से ग्रहण सीखा। काटना नहीं सीखा।
2 comments:
ना सीख पाएंगे..... कौन आएगा और हमारा ज्ञान चक्षु खोल देगा
एकदम सही कह रहे हैं आप। बहुत रोचक शैली में लिखा है। आनन्द आगया।
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