Saturday, August 2, 2008
प्रकृति से ग्रहण सीखा, काटना नहीं सीखा
एक ग्रहण। सूरज की लहसुनिया तस्वीर। झुकी हुई। कटी हुई। नाम भी टेढ़ा सा। खग्रास। पूर्ण ग्रहण। रोज नहीं होता। कभी कभार होता है। इसलिए चर्चा। दिलचस्पी। रोज हो तो कोई न पूछे। डर खत्म हो जाए। आशाएं-आशंकाएं न रहें। सूरज-चांद का ग्रहण समझ में आता है। प्राकृतिक है। पर यहां तो रोज ग्रहण। हर ओर। कहीं बिजली-पानी। कहीं सत्ता, कहीं राजनीति। ऐसा ग्रहण कि छूटता ही नहीं। नहीं कटता। प्राकृतिक हो तो कटे। यह हमने बनाया। अपने अधकचरेपन में। प्रकृति से ग्रहण सीखा। काटना नहीं सीखा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
ना सीख पाएंगे..... कौन आएगा और हमारा ज्ञान चक्षु खोल देगा
एकदम सही कह रहे हैं आप। बहुत रोचक शैली में लिखा है। आनन्द आगया।
Post a Comment