Wednesday, August 6, 2008

कम से कम आंख खोल कर देखो तो

तुम तो सबके नाथ हो। अमरनाथ। त्रिकालदर्शी। सब जानते-समझते हो। तुम्हीं कुछ करो। कम से कम आंख खोल कर देखो तो। क्या हो रहा है तुम्हारे नाम पर। एक टुकड़ा जमीन के लिए। अदालत कहती है कि भगवान भी नहीं बचा सकता हमें। देश को। मानने का मन नहीं होता। पर तुम्हें क्यों दोष दें। चौंतीस दिन हो गए। लाठी गोली। आंसू गैस। मौतें। सुलग रहा है जम्मू-कश्मीर। आंच में नेता रोटियां सेंक रहे हैं। सियासत की। यानी वे कुछ नहीं करेंगे। लोग ही समझें तो समझें। हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा।

3 comments:

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है।बधाई स्वीकारें।

Shiv said...

देखेंगे कैसे जी? रौशनी बहुत ज्यादा है.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हे ईश्वर, ऐ ख़ुदा, अपनी संतानों को सद्‍बुद्धि दे, अपने बन्दों को सही राह दिखा। लड़ाई तेरे ही नाम पर हो रही है। कब दिखाएगा कि तू एक ही है जो क़ाबे में है वही काशी में भी।
...सुना है कि तू तो सबके दिल में है।
...फिर ये देश का मस्तक क्यों इतनी मुश्किल में है?
...बता तो सही, तू है नऽ...?