अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं। वहां आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं। प्रतिक्रियाएं आम थीं। लोग मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं।
छाड़ानगर में महाश्वेता देवी की उपस्थिति और उनका दर्जा समझ पाना कठिन नहीं था। बाद में जिन छाड़ा घरों में जाना हुआ, हर जगह दीवार पर महाश्वेता की तस्वीर थी। एक परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद स्थानीय लोगों में से किसी ने प्रस्ताव रखा कि मैं छाड़ानगर का एक नाटक देखूं। नाम था-बूधन। नाटककार कोई एक व्यक्ति नहीं था। समुदाय ने मिलकर उसे लिखा था। संगीत यंत्रों के नाम पर थालियां और लोटे। प्रकाश व्यवस्था के लिए एक टिमटिमाता बल्ब और दो लालटेन। बताया गया कि बिजली अक्सर चली जाती है इसलिए लालटेन जरूरी है।नाटक शुरू होने से पहले पात्रों की तलाश शुरू हुई। चार भाई इस नाटक के मुख्य कर्ताधर्ता थे। एक का नाम पूरब था, दूसरे का पश्चिम। तीसरे और चौथे उत्तर और दक्षिण थे। पता चला कि उत्तर को सुबह ही पुलिस उठा ले गई। उसकी जगह दूसरा पात्र खड़ा किया गया। बूधन की पत्नी की भूमिका पश्चिम की पत्नी ने की। नाटक में एक भूमिका महाश्वेता की भी थी। एक टेलीफोन वार्ता के जरिए। बूधन मामले में लोगों को सलाह देते हुए। बताते हुए कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। नाटक का पहला दृश्य विवाह के बाद बूधन और उसकी पत्नी का है। वे बाहर खाना खाते हैं। पत्नी के जिद करने पर बूधन उसे पान खिलाने ले जाता है। वहीं अचानक पुलिस पहुंचती है। बूधन को चोरी के एक मामले में गिरफ्तार करना चाहती है। दोनों इसका विरोध करते हैं। इसके बाद बूधन की पिटाई, गाली गलौज और अंत में पत्नी के सामने उसका गोलियों से भूना जाना।इसी दृश्य के बीच अचानक बिजली चली गई। पर नाटक नहीं रुका। उसी गति से चलता रहा। समझ में आया कि लालटेन इतनी जरूरी क्यों है। अभिनय की दृष्टि से ज्यादातर कलाकारों को प्रशिक्षित अभिनेताओं के समकक्ष रखा जा सकता है। संगीत अपने ढंग का बिल्कुल अनूठा। पटकथा एकदम कसी हुई। लगा कि इसे जस का तस राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में रख दिया जाए तो संभवत: पहला पुरस्कार उसे ही मिलेगा। यह समझ में आता है कि बूधन के बारे में इस नाटक में अभिनय की भाव प्रवणता इसलिए हो सकती है कि वह इसी समुदाय का था। उसकी तकलीफ सबकी साझा तकलीफ है। इसलिए अभिनय जसी कोई बात ही नहीं थी। यह जीवन था। बावजूद इसके, जीवन को मंच पर हूबहू पेश करना आसान काम नहीं है। यह निश्चित रूप से छाड़ा प्रतिभा का कमाल है।पौने दो घंटे का नाटक खत्म होने तक कोई नहीं हिला। इस बीच बिजली कई बार आयी गई। छाड़ानगर की मेहमाननवाजी चलती रही। कभी किसी के घर से चाय बनकर आती तो कभी पकौड़े। लाख मना करने पर कि हमने थोड़ी देर पहले उन्हीं के साथ खाना खाया है, कोई सुनने को तैयार नहीं था। नाटक पूरा होने के बाद अभिनेताओं ने हमसे विदा ली। और हमारे साथ एक कप चाय और पीने की जिद की। लगभग पूरा नाटक मैंने वीडियो कैमरे में रिकार्ड किया। पूरब और पश्चिम तथा पश्चिम की पत्नी वीडियो में अपना प्रदर्शन देखना चाहते थे। अगला एक घंटा उसमें लग गया। तब तक लगभग पूरा छाड़ानगर जाग रहा था। समय था रात के तीन बजे। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि एक रात में पूरा नहीं हो सकता था। भारी मन से वे हमें कार तक छोड़ने आए।अगले दिन मैंने एक दो पत्रकारों और कुछ परिचित लोगों से पिछली रात का जिक्र किया। एक ने मुङो छूकर देखा। पूछा ‘आपको कुछ हुआ तो नहीं। पहले बताते तो पुलिस का बंदोबस्त करवा लेते। वहां जाना बिल्कुल ठीक नहीं था। कार के पहिये भी निकाल कर बेच लेते। आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं।ज् ऐसी प्रतिक्रियाएं आम थीं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं। अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं।
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