Saturday, July 19, 2008

आजकल बहुत बे-करार हैं आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के दूसरे सबसे कामयाब नेता लालकृष्ण आडवाणी इन दिनों बहुत बेचैन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने मुखौटे के बावजूद पार्टी के सर्वोच्च नेता बने और रहे। वाजपेयी के चुनावी राजनीति से हटने के बाद आडवाणी खेमा और स्वयं आडवाणी खुद को उनका उत्तराधिकारी मान रहे हैं। यह सोचकर चल रहे हैं कि अब की उनकी बारी है। यही उनकी बेचैनी की वजह भी है। एक डर है कि सियासत में कहीं उनकी लकीर वाजपेयी द्वारा खींची गई लकीर से छोटी न रह जाए। अब जमाना एक पार्टी शासन का नहीं रह गया है इसलिए सियासत में उदारता का मुखौटा पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि आडवाणी के पास मुखौटा है ही नहीं। वह जैसे है, वैसे हैं.
आडवाणी समझते हैं कि राजनीति ‘जैसे है, वैसे है, वाले रूप से नहीं चलने वाली है। इसके लिए कई मुखौटे चढ़ाने-उतारने पड़ेंगे। ताकि तमाम छोटी-बड़ी मझोली सियासी जमातों के लिए जगह बनी रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस मामले में विफल नहीं कहा जा सकता। वह एक कामयाब प्रयोग था। तब से अब में केवल एक फर्क है। तब नेतृत्व वाजपेयी कर रहे थे, जबकि अब कमान आडवाणी के हाथ में है। इसे गुजरात दंगों के संदर्भ में बहुत साफ ढंग से देखा और समझा जा सकता है।
दंगों के बाद वाजपेयी ने राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से राजधर्म निभाने को कहा था। अब चुनावों के लिए पूरे देश में गुजरात मॉडल लागू करने की बात होती है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सफलता के बाद इस पर जोर ज्यादा ही बढ़ा है।इसीलिए आडवाणी बेचैन हैं। तरकीबें सोच रहे हैं कि किसी तरह अल्पसंख्यक मुसलमान उनके साथ आ जाएं! वे भाजपा और उनके सहयोगी संगठनों के सारे गुनाह माफ कर दे। भूल जाएं कि छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। गुजरात के दंगे विस्मृत कर दें। यह याद न रखे कि नरोदा पटिया कोई जगह है।
यह वाजपेयी के मुखौटे और नेतृत्व का कमाल था कि 2004 में आम चुनावों से एन पहले अटल हिमायती कमेटी बनी। जगह-जगह घूमी। हालांकि उसका असर अधिक नहीं हुआ पर यह मुस्लिम-भाजपा संबंधों की एक बड़ी कड़ी थी। आडवाणी इसे दोहराने की कोशिश में लगे हैं। चाहते हैं कि ऐसा आम चुनाव से पहले हो जाए तो उसकी सार्थकता इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें भी देख लें।आडवाणी की बेचैनी और बेसब्री समझ में आती है। भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश किया है और उन्हें पता है कि अगर उनका नंबर इस बार नहीं आया तो शायद आएगा भी नहीं। जब से मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-राजनीति वाले लटके-झटके शुरू किए हैं, यह लगभग तय माना जा रहा है कि आम चुनाव जल्दी और समय से पहले हो जाएंगे। लोकतंत्र के विश्वविद्यालय परिसर में सबने अपने-अपने ढंग से इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। परिसर में ऊहापोह की स्थिति। सब बेचैन, करार की स्थिति नहीं। पर सबसे बेकरार आडवाणी हैं।
बेकरारी और बेचैनी इस हद तक है कि वह अपना नारा तक बदलने को तैयार हो गए हैं ताकि किसी तरह अल्पसंख्यक यानी कि मुसलमान भाजपा के पाले में आ जाएं।भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक में आडवाणी ने हिंदू हित का नारा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा। आडवाणी ने यह बदलाव निश्चित रूप से सोच-समझकर किया है। वह चाहते हैं कि आम जनता और खासकर मुसलमान ‘हिन्दू हितों की जगह राष्ट्रहित पढ़ें। वह भाजपा को इफ्तार की दावतों के नाम पर सियासत से एक कदम आगे ले जाना चाहते हैं। तुष्टीकरण की राजनीतिक मुहावरेदारी बदलना चाहते हैं।
भारतीय राजनीति को तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता जसे तमाम नए शब्द देने वाली भाजपा जानती है कि ऐसे नवगढ़िए शब्दों का दरअसल कोई अर्थ नहीं होता। सहूलियत होती है। जब ठीक लगा, अपने हक में इस्तेमाल किया। नहीं लगा तो छोड़ दिया या उसकी आक्रामकता सुविधानुसार कुछ डिग्री कम कर दी।भारतीय जनता पार्टी का मुस्लिम चेहरा शायद पार्टी को यह समझाने में कामयाब रहा कि भारतीय मुसलमान वोट के अपने अधिकार को बहुत संजीदगी से लेता है। उसे अपनी ताकत मानता है। वोट डालना उसके लिए मतदान के दिन की छठी नमाज है। वह वोट जरूर डालता है। इसी वजह से भारत के वर्तमान राजनीतिक माहौल में उसकी अहमियत केवल आबादी के प्रतिशत की नहीं रह जाती। उससे लगभग डेढ़ गुना ज्यादा बढ़ जाती है। भाजपा को इसका अंदाजा हो गया है। उसे पता चल गया है कि केवल हिंदू हित की बात करने और हिंदू वोट के सहारे सरकार बनाना तो दूर, लोकसभा में दो सौ का आंकड़ा छूना भी असंभव है।
आडवाणी बेचैन हैं क्योंकि वह जानते हैं कि देश में मुसलमानों की आबादी भले पंद्रह प्रतिशत के आसपास है पर चुनावी गणित में मतदाताओं के रूप में यह पच्चीस प्रतिशत तक पहुंच जाता है। हर चौथा वोट उन्हीं का होता है। इसे अनदेखा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।

1 comment:

Rajesh Roshan said...

बहुत ही जबरदस्त आलेख... इस करार पर दो पंक्तिया मैंने भी लिखी हैं... करार सभी चाहते हैं

एक गुजारिश, आलेख के बीच थोड़ा जगह दे, पाठक को पढने में बड़ी सुविधा होती है।
धन्यवाद
राजेश रोशन