सांसदों को पैसे देने के मामले से संसद की गरिमा पर जो धब्बा लगा है उसे मिटाने के लिए गहराई से जांच किए जाने की आवश्यकता है।
मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत आसानी से जीत लिया। जीत का अंतर भी कम नहीं था। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और पर्चियों के गिनती के मुताबिक यह अंतर 19 था। वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सरकार से विश्वास मत के जरिए अपना बहुमत साबित करने को कहा था। प्रस्ताव पारित होने से सरकार ने राहत की सांस ली होगी क्योंकि एक समय अंकगणित उसके खिलाफ लगने लगा था। पर यह जीत आधी-अधूरी है। सांसदों की खरीद-फरोख्त के काले दाग़ के साथ है। यह दाग धुलने में शायद काफी समय लगेगा। सही अर्थो में यह लोकतंत्र का काला दिन है।काला दिन एक शब्द-समूह है, जिसके बारे में लोग उम्मीद करते हैं कि वह कभी न आए। लेकिन वह गाहे-बगाहे आ जाता है। इस बार वह लोकतंत्र का काला दिन बना। भारतीय जनता पार्टी के तीन सांसदों ने लोकसभा में नोटों की गड्डियां लहराते हुए कहा कि उन्हें विश्वास मत के प्रस्ताव पर मत विभाजन से अनुपस्थित रहने के लिए यह रकम दी गई। उनके हाथों में एक-एक हजार रुपये के नोटों की गड्डियां थीं। तीन सांसदों-अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा ने कहा कि उन्हें समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह के प्रतिनिधि ने एक करोड़ रुपये दिए और आठ करोड़ रुपये मत विभाजन के बाद देने का वादा किया। यह घटना शर्मनाक है। दुखद है। दुर्भाग्यपूर्ण है। संसदीय इतिहास में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई। इसकी निंदा की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ कुछ और बातों पर नजर रखी जानी चाहिए। इस घटना में ऐसी तमाम बातें हैं, जिनका जवाब मिलना चाहिए।
नेताओं के पैसे लेने की खबरें पहले भी आती रही हैं। बंगारू लक्ष्मण हों, पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या संसद में सवाल पूछने के लिए धन लेने का मामला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही सांसदों की खरीद-फरोख्त की खबरें उड़ने लगी थीं। इसी के प्रमाण के रूप में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति से सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां लहराईं। आडवाणी ने कहा कि यह साधारणतया उचित नहीं है पर अंत में उन्होंने नोटों के बंडल सदन में ले जाने की अनुमति दे दी। इससे लोकसभा की सुरक्षा का सवाल भी जुड़ा है। आखिर सदस्यों को नोटों का थैला अंदर कैसे लाने दिया गया।यहीं से सवालों का सिलसिला शुरू होता है, जिनका कोई जवाब अब तक उपलब्ध नहीं है।
आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। चार दशक से राजनीति में हैं। गंभीर व्यक्ति हैं और उन्हें संसदीय प्रक्रिया की पूरी जानकारी है। उन आडवाणी ने इन तीन सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष से शिकायत करने की जगह नोटों की गड्डियां लोकसभा में ले जाने की अनुमति दी। उन्होंने यह भी कहा कि पूरी बातचीत और पैसे देने की घटना की फिल्म एक निजी टेलीविजन चैनल ने तैयार की है। इसके बारे में संबंधित सांसद जानकारी देंगे। सांसद बाद में मीडिया के सामने आए तो उनके साथ भाजपा के दो वरिष्ठ नेता थे- गोपीनाथ मुंडे और प्रकाश जावड़ेकर। जब सांसदों से पूछा गया कि अमर सिंह ने जो आदमी भेजा, उसका नाम क्या है? चैनल कौन सा है? मुंडे और जावड़ेकर ने उन्हें जवाब देने से रोकते हुए कहा, ‘आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है।एक सवाल चैनल के बारे में है। पत्रकारिता के इतिहास की एक अनोखी घटना। चैनल के पास टेप था पर उसने इसे प्रसारित न करने का फैसला किया। चैनल ने कहा कि वह अपना टेप लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को सौंप देगा। आखिर चैनल ने ऐसा क्यों किया, यह जानना जरूरी नहीं है। जरूरी यह जानना है कि समाचार संगठन का काम किसी राजनीतिक दल की मदद करना है या समाचार का प्रसारण करना।
अगला सवाल इसी से उठता है कि अंतत: इस घटना से किसको लाभ होने वाला है या हो सकता है। यह जानना कठिन नहीं है कि भाजपा इसके केंद्र में है, उसके सांसद केन्द्र में हैं, उसके नेता आडवाणी केंद्र में हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फौरन इसका राजनीतिक चेहरा सामने रख दिया। उन्होंने मांग की कि प्रधानमंत्री को तत्काल अपन पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यही मांग मायावती की ओर से सतीश मिश्रा ने भी की। लोकतांत्रिक इतिहास की इस दुखद और शर्मनाक घटना की पूरी जांच होनी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष को इसका पूरा अधिकार है कि वह सदन में हुई घटना की जांच कराएं और उस पर निर्णय लें।
सदन की गरिमा पर एक गहरा धब्बा लगा है। उसकी गरिमा दोबारा कायम करने के लिए कड़े कदम उठाना अनिवार्य है।इसे किसी एक राजनीतिक दल से जोड़ना ठीक नहीं है। इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं और संसद का मान तथा उसकी गरिमा बनाए रखना सबकी साझा जिम्मेदारी है। यह अहसास सबको होना चाहिए कि परंपराएं बनने में लंबा वक्त लगता है लेकिन उन्हें किसी की अदूरदर्शिता से आसानी से नष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए देश ने नब्बे साल लड़ाई लड़ी और साठ साल उसे सींचा। इस विश्वास प्रस्ताव में सरकार भले जीत गई हो पर दिन की अशोभनीय घटना लोकतंत्र की उसी परंपरा को बड़ा झटका है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment