Thursday, July 31, 2008

उम्मीद है कि कायम है


दिल है कि मानता नहीं। हर बार खाली झोली लिए लौटने पर भी नहीं। कोई हाथ खड़े कर दे, तब भी नहीं। लगता है कि इस बार कुछ होगा। कोई चमत्कार। उम्मीद है कि कायम है। खुद से, खिलाड़ियों से। हफ्ते भर बाद ओलंपिक होंगे। बीजिंग में। खिलाड़ी कुछ करेंगे। कुछ ले आएंगे। पदक-शदक। सोना-चांदी नहीं। कांसा ही सही। लेकिन गिल ने हाथ खड़े कर दिए। बेचारे अपने खेलमंत्री। क्या करें। एक तो खेल के पीछे खेल। भारी सियासत। दूसरे, खेल विरोधी समाज। खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब। इसलिए लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर बेटा। बन जा नवाब।

3 comments:

बालकिशन said...

गहरा कटाक्ष छिपा है आपकी इन चंद पंक्तियों में.
मैं सहमत हूँ आपसे

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अभी कोई बता रहा था कि बीजिंग में भारत की ओर से करीब चार सौ पचहत्तर खिलाड़ियों के साथ करीब साढ़े चार सौ सपोर्टिंग स्टाफ और अधिकारियों का भारी-भरकम जत्था भी गया है। सही आँकड़ा मधुकर जी बता सकते हैं। इनपर खर्चा करोड़ों का आएगा। ...आने वाले पदक का अन्दाजा तो कोई भी लगा सकता है।
गिल साहब पहले ही हाथ खड़े करके निश्चिन्त हो ले रहे हैं। अच्छा ही है।

ravindra vyas said...

मेरे पास आपका ईमेल एड्रेस नहीं है। मैंने हिंदी पोर्टल वेबदुनिया में भारतनामा पर अपने साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग चर्चा में लिखा है। उसकी लिंक मैं आपको दे रहा हूं।
http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0807/31/1080731061_1.htm
धन्यवाद
रवींद्र व्यास, इंदौर
9229825454