कुछ आंखें सपना देखती हैं। सारी उम्र। बंद होने तक। उम्मीद के साथ। कि कोई उनकी भी सुनेगा। बदलेगी जिंदगी। बेहतर होगी। यह मजबूरी का सपना है। इसलिए कि उसने सीमा पर लड़कर जिंदगी खपा दी। ताकि मुल्क सपना देख सके। महफूज रहे और तरक्की करे। वह मुल्क के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा गया। मगर हुक्मरान पीछे रह गए। जानबूझकर या अनजाने में। आयोगों में उलझे। छठे वेतन आयोग में। एक छड़ी लेकर चला आ रहा है उसका भविष्य। जंतर-मंतर तक आया। पैदल चलकर। उसने उम्मीद का साथ नहीं छोड़ा है। शायद इस बार..।
Sunday, December 28, 2008
Thursday, December 18, 2008
युद्ध नहीं है विकल्प
मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद में अचानक टेलीविजन का हमला शुरू हो गया है, जहां हर दूसरा आदमी यह कहता दिखाया जाता है कि भारत को चुप नहीं बैठना चाहिए और निर्णायक कदम उठाते हुए पाकिस्तान के अंदर चल रहे आतंकी ठिकानों पर हमला कर देना चाहिए। नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के इस बयान ने इस बहस में आग में घी का काम किया है कि किसी भी संप्रभु राष्ट्र को अपनी रक्षा के लिए कोई भी कदम उठाने का अधिकार है। जनता के स्तर पर यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि विश्व व्यापार केंद्र पर अलकायदा हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान के खिलाफ जैसी कार्रवाई की, भारत क्यों नहीं कर सकता? कुछ तथाकथित समझदार लोग ‘सीमित युद्ध की दलील दे रहे हैं लेकिन यह बताने को कोई तैयार नहीं है कि दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच ‘सीमित युद्ध की सीमा क्या होगी और कौन उसे नियंत्रित करेगा। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का पूरा फलक देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि ऐसा सीमित या पूर्ण युद्ध छेड़ना दरअसल जेहादी तत्वों, आईएसआई और पाकिस्तानी सेना के हित में होगा। वे यही चाहते हैं। आईएसआई ने पिछले शनिवार को अपनी एक अंदरूनी बैठक में यह बात कही थी कि भारत नियंत्रण रेखा पर फौजें जमा कर सकता है। इसका जवाब देने के लिए पाकिस्तान को अपनी पश्चिमी सीमा से सैनिक हटाकर उन्हें नियंत्रण रेखा पर तैनात करना होगा। अफगानिस्तान से लगने वाली पश्चिमी सीमा और वजीरिस्तान के इलाके में पाकिस्तानी सेना के करीब एक लाख जवान तैनात हैं, जो तालिबान को रोकने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरह से इन जवानों की तैनाती अमेरिका के हित में है। आईएसआई के बयान का मूल उद्देश्य भारत की तैयारी के खिलाफ कार्रवाई से ज्यादा पश्चिमी देशों और खासकर अमेरिका को यह संदेश देना है कि अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए वह सैनिक हटा लेगा और तब तालिबान के खिलाफ अमेरिकी लड़ाई कमजोर पड़ जाएगी। भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में जेहादी और पाकिस्तानी सेना दोनों राहत महसूस करेंगे क्योंकि इस लड़ाई में उन्हें जानमाल का भारी नुकसान हो रहा है। एक भारतीय अधिकारी ने कहा है कि भारत के पास ताजा स्थिति से निपटने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं हैं लेकिन वह विकल्पहीन भी नहीं है। भारत के लिए यही बेहतर होगा कि वह कूटनीतिक दबाव के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए पाकिस्तान को घेरे। पाकिस्तान की अंदरूनी हालत बहुत अच्छी नहीं है। पूरा समाज, राजनीति और देश अपने आप से लड़ रहा है। इनमें कई समूह और संगठन ऐसे हैं जो अपना हित साधने के लिए चाहेंगे कि भारत युद्ध में उतरे। अगर यह पूर्ण युद्ध न हो तब भी स्थितियां कमोबेश वैसी ही हो जाएं, जैसी 2001 में संसद पर आतंकवादी हमले के बाद बनी थीं। संसद पर हमले के बाद तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने सड़क और वायु संपर्क तोड़ दिए थे। नियंत्रण रेखा पर फौजों की तैनाती हुई थी और शांति प्रक्रिया रोक दी गई थी। पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के बाद सबसे बड़ा झटका आईएसआई और पाकिस्तानी सेना को लगा। दोनों का महत्व देश की राजनीति में बहुत कम रह गया है। लोकतंत्र आने से जेहादी तत्वों को भी संकट का सामना करना पड़ा है। ऐसे में यह पाक सेना और आईएसआई के हित में होगा कि भारत-पाकिस्तान पर हमला कर दे ताकि उनकी भूमिका फिर से महत्वपूर्ण हो जाए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है। वह भारत से निकटता से बावजूद पाकिस्तान से अपने संबंध बिगाड़ना नहीं चाहेगा। शायद यही वजह है कि राष्ट्रपति बुश ने भारत-पाकिस्तान के बीच बिगड़ती स्थिति को देखते हुए तत्काल अपनी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस को दोनों देशों के दौरे पर भेजा। भारत में अगले चार महीने में आम चुनाव होंगे। इस संदर्भ में भारत और खासतौर पर सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए आम जनभावना की उपेक्षा करना आसान नहीं होगा। अगर टेलीविजन चैनलों की मानें तो बुधवार को गेटवे आफ इंडिया पर जमा करीब एक लाख लोगों ने चीख-चीखकर कहा कि भारत को सीधी, कड़ी और निर्णायक लड़ाई छेड़ देनी चाहिए। जाहिर है यह कूटनीति और विश्व राजनीति की समझ रखने वाले विशेषज्ञों की राय नहीं है लेकिन चुनाव में इस तरह के लोगों की राय मायने रखती है। भारत के राजनीतिक दलों के लिए इस जनभावना को समझना और उसके उबाल के साथ आनन-फानन में कोई कार्रवाई न करना जरूरी है अन्यथा वह उन्हीं तत्वों के हाथ में खेल जाएगा, जिनसे वह लड़ना चाहता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रियाओं में संयम का परिचय दिया है। उन्होंने विकल्पों की बात की है लेकिन उसमें अंतिम विकल्प पर जोर नहीं दिया है। विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त शाहिद मलिक को बुलाकर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए आतंकवादियों की सूची दी है। मुखर्जी ने कहा है कि भारत अगला कदम उठाने से पहले पाकिस्तान के जवाब की प्रतीक्षा करेगा। राजनीतिक स्तर पर शब्द युद्ध जारी है लेकिन दक्षिण एशिया की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति के संदर्भ में इसे निर्णायक नहीं माना जा सकता। अगर भारत चुनावी दबाव को झेलते हुए पाकिस्तान के साथ सीधा टकराव टाल दे तो यह उसके हित में है। यही पाकिस्तान के कुछ उन समूहों को भारत का माकूल जवाब हो सकता है, जो चाहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की नजर अफगानिस्तान से लगने वाली पाक सीमा से हटकर भारत-पाक नियंत्रण रेखा और उसके साथ कश्मीर पर आ जाए। भारत के लिए इस समय युद्ध विकल्प नहीं हो सकता और जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, अमेरिका और नाटो अपने हित में अपने ढंग से उसे संभालने के लिए बाध्य होंगे।
Wednesday, December 17, 2008
चौतरफा काम, अब शुरू करो

स्वागत शीलाजी! फिर दिल्ली की सिरमौर। तीसरी बार। कम को ही मिलता है ऐसा सेवा का मौका। जनता अब अदल-बदल में माहिर। लेकिन फिर विश्वास जताया। विकास का किया काम। उसका ही पाया ईनाम। जो न किया, उसका सबक भी रखो याद। दस सीटें भी काट चुकी जनता इन दस सालों में। बहुत हुआ जश्न। अब हार उतारो, मुकुट धरो। शुरू करो। चौतरफा काम, अब शुरू करो। हो गया राजतिलक। गठन मंत्रिमंडल का। अब देरी क्या। देखो कितना पास आ गया खेल राष्ट्रमंडल का।
Wednesday, December 10, 2008
बकरीद में कुर्बानी फर्ज है

दिल्ली की जामा मस्जिद। भव्य और आलीशान। छत पर दो सुंदर बच्चियां। एक इबादत में। दूसरी, मस्ती में। खिलंदड़ापन। बेफिक्र। बेपरवाह। बेखबर। कि यह साल का आखिरी महीना है। इस्लामी कैलेंडर का। जुल-हिजा। बकरीद। जिसमें कुर्बानी फर्ज है। अब्राहम के बेटे इस्माइल की याद। खुदा ने इस्माइल को बचा लिया। कुर्बानी के लिए भेड़ भेजकर। उसका त्योहार। खास नमाज। गले मिलना। फिर खाना-पीना। लेकिन इस बार जोर सिर्फ इबादत पर। दूसरों की भावनाओं की कद्र पर। मुंबई हमले का भी असर। दारुल-उलूम की अपील। गोवध के खिलाफ। अल्लाह यह इबादत जरूर कुबूल करेगा।
Monday, November 3, 2008
हे महर्षि कुंबले

फिरकी बाबा। असली संन्यासी। न जटा-जूट। न लंबी दाढ़ी। चोंगा-बाना भी गायब। हाथ में एक लाल गोला। कभी-कभी सफेद। गोला रखते तो किताब उठा लेते। किताब रखते तो कैमरा। बिल्कुल बेदाग। किसी चीज का गुमान नहीं। हाथी की तरह मस्त चाल। लोग जंबो बाबा कहने वगे। विनम्र। नपी तुली भाषा। भद्र व्यवहार। दुनिया भर घूमे। चमत्कार करते। सबने देखा। अट्ठारह साल तक। फिर उसने लाल गोला अलग रख दिया। कहा-अब बस। ऐसा संन्यासी। उसे संन्यास लेने की क्या जरूरत। ऋषि से कौन पूछे। हे महर्षि कुंबले। हम कृतग्य हैं कि आप इतने दिन साथ रहे।
Sunday, November 2, 2008
जीत सबकी होती है
जिसे जीतना है वह जीत ही जाता है। विजेता, विजेता होता है। वही दिखता है। क्योंकि जीत किसी खेल, संघर्ष या देश तक सीमित नहीं होती। सबकी होती है। यह जीत का व्याकरण है। कठिन है, पर बहुत नहीं। उदाहरण हर तरफ मौजूद। नाम जो भी हो। रूप-रंग बेमानी। पता-ठिकाना बेमतलब। मससन ओबामा। बराक ओबामा। बराक भी अपभ्रंश। शायद। मुबारक से बना। और अश्वेत। अमेरिकी इतिहास में पहली बार। वह आगे। बाकी पीछे। हांफते-डांफते। धीरे-धीरे गायब होते। नतीजा बाद में आएगा। लेकिन आगे की कहानी विजेता की होगी। हमेशा की तरह।
Saturday, November 1, 2008
असली हीरो विश्वनाथन

Friday, October 31, 2008
उसकी हरकत नहीं बदलती

Monday, September 22, 2008
हम इस जज्बे को सलाम करते हैं

दिल्ली का निगमबोध घाट। बंधे हाथ। झुकी हुई बंदूकें। डबडबाई आंखें। होंठ भींचकर आंसू रोकने की कोशिश। ऐसा होता है। खासकर दिलेरी और हिम्मतवरी की तस्वीर में। हौसले को सलाम करने में। कर्मयोगी को विदाई देने में। एक नायक की विदाई। असली हीरो की। कहते हैं यही दुनिया है। भारतीय दर्शन में आने-जाने की जगह। लेकिन यह विदाई स्थूल की है। शरीर की। जज्बे की नहीं। हौसले और भावना की नहीं। आतंक से लड़ने के फैसले की नहीं। हमारी भी आंखें नम हैं। पर हम उस जज्बे को सलाम करते हैं जिसका नाम है मोहन चंद शर्मा।
Thursday, September 18, 2008
हम चंदामामा के यहां जाएंगे

उसकी सतह खुरदुरी है। ऊबड़-खाबड़। रहने लायक नहीं। पानी नहीं। हवा नहीं। गुरुत्वाकर्षण नदारद। सबकुछ जैसे उड़ता फिरता है। हमें इससे क्या? मामा का घर कैसा भी हो, अच्छा लगता है। चंदामामा का घर। जो पहले गए वे चांद पर गए। हम चंदामामा के यहां जाएंगे। जिन्हें बचपन से जानते हैं। जो हमारे सपने में आते हैं। मां उन्हें कटोरी में उतार लेती है। अपने भाई को। जब चाहे बुला ले। सारा मामला घरेलू है। बस चंद्रयान का इंतजार था। जैसे स्कूल बस का। वह हमें सपने की दुनिया में ले जाएगा। बहुत जल्दी।
Wednesday, September 17, 2008
अपराधी सदन में रहेंगे तो जेल में कौन रहेगा

एक चेहरे का कटा-पिटा होना। लोहे की जालियों के पीछे। जेल के सींखचों का पूर्वाभ्यास। यह हकीकत है। यही सच है इस तस्वीर का। सिनेमा होता तो चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लेते। बच जाते। छिप जाते। कोशिश तो थी ही। पर न नरेंद्र बचा न सुनील। यानी कि माननीय सुनील कुमार पांडेय। बिहार के विधायक जी। सदन की शोभा। आदरणीय। जनप्रतिनिधि। और अपहर्ता। जेल जा रहे हैं। सारी जिंदगी नहीं रहेंगे। अपने दोनों चेहरों के साथ। आजीवन कारावास। अपराधी सदन में रहेंगे तो जेल में कौन रहेगा। विधायक?
Tuesday, September 16, 2008
भीड़ एक कलाकृति है
भीड़ एक कलाकृति है। अद्वितीय। वह अनगढ़ हो सकती है। पर दरअसल गढ़ती वही है। अपनी सामूहिकता में। वही बनाती है। और नाराज हो जाए तो बिगाड़ देती है। वह चाहे तो सब बदल जाए। समाज। दुनिया। दुनिया की राय। उससे ऊपर कोई नहीं। सामने कोई नहीं टिकता। न टाटा-बिड़ला। न दिखावटी ममता। न बुद्ध, न देव। वह स्वयं विश्वकर्मा है। अपने हाथों और हुनर पर भरोसा है उसे। बेहतर हो कि उसका व्याकरण पढ़ लें। भाषा सीख जाएं। जितनी जल्दी हो सके। क्योंकि उसके सामने फरेब नहीं चलता। चोलबे ना।
Wednesday, August 27, 2008
अब तो ख्वाबों में मिलेंगे फराज
एक ऐसा शायर, जिसने जिंदगी के दोनों रंग चुने और उन्हें बखूबी निभाया। उन्हें अगर इश्क की नाजुकी और विरोध की तीखी आवाज की बुलंदी का शायर कहा जाता है तो यह गलत नहीं है।

अहमद फराज हालिया दौर के बड़े शायरों
में शुमार होंगे। एक ऐसा शायर, जिसने जिंदगी के दोनों रंग चुने और उन्हें बखूबी निभाया। उन्हें अगर इश्क की नाजुकी और विरोध की तीखी आवाज की बुलंदी का शायर कहा जाता है तो यह गलत नहीं है। अहमद फराज को इसी बुलंद विरोध की वजह से जेल जाना पड़ा। और जनरल जिया के जमाने में कई बरस निर्वासन में बिताने पड़े। कल शाम इस्लामाबाद में उनके इंतकाल से न केवल उर्दू शायरी को झटका लगा बल्कि सच और जिंदगी की हिमायत करने वाले एक नफीस इंसान से यह दुनिया महरूम हो गई। अहमद फराज बर्रे सगीर की आवाज थे। पूरे दक्षिण एशिया में उनकी शायरी का बोलबाला था। वह अक्सर दिल्ली आया करते थे। डेढ़ साल पहले फराज एक जलसे में शिरकत करने दिल्ली आए थे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनसे भेंट हुई। आधे घंटे तक फराज पाकिस्तान की शायरी और विरोध की आवाज की अहमियत पर बोलते रहे। उन्होंने सिर्फ अपना हवाला नहीं दिया, तमाम लोगों का नाम लेकर कहा कि उन सबको अपनी शायरी की वजह से कई-कई बार जेल जाना पड़ा। अल्फाज की तल्खी शायद इसी से उपजती है। जहां बोलने पर पाबंदी हो, वहीं सबसे ज्यादा आवाजें होती हैं। और वही आवाज असरदार होती है। मैंने उनसे हिंदुस्तान की शायरी के बारे में पूछा। उनके मुंह से सिर्फ एक नाम निकला-फिराक गोरखपुरी। फराज ने कहा कि उसके बाद ज्यादा कुछ कहने लायक है नहीं। हिंदी में शायरी होती जरूर होगी पर वह उर्दू में मौजूद नहीं है। इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अहमद फराज बार-बार कहते रहे कि हिंदुस्तान की कविता का वह मेयार, वह दर्जा इसलिए नहीं है कि यहां अपनी कविता के लिए जेल जाने वाले नहीं हैं। जिन्होंने जिंदगी का वो रंग नहीं देखा है वे उसे बयान भी नहीं कर सकते। कविता पढ़े लिखों की आरामगाह नहीं है। वह जिंदगी से आती है जिसमें बहुत पेचीदगियां हैं और वह जुल्फों के पेचोखम से ज्यादा मुश्किल और टेढ़ी है। शायरी जिंदगी के साथ चलती है और कई बार उसके आगे भी। अहमद फराज का मानना था कि अगर शायरी वक्त और समाज का सिर्फ आइना बनकर उसे उसी की छवि दिखाती रहे तो उसके ज्यादा मानी नहीं रह जाएंगे। शायरी बेआवाज की आवाज है। समाज के उस तबके से ताल्लुक रखती है, जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। अगर वह तरक्कीयाफ्ता नहीं है और बदलाव की दरकार नहीं रखती तो ऐसी शायरी के लिए कूड़ेदान से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती।

अहमद फराज हालिया दौर के बड़े शायरों
में शुमार होंगे। एक ऐसा शायर, जिसने जिंदगी के दोनों रंग चुने और उन्हें बखूबी निभाया। उन्हें अगर इश्क की नाजुकी और विरोध की तीखी आवाज की बुलंदी का शायर कहा जाता है तो यह गलत नहीं है। अहमद फराज को इसी बुलंद विरोध की वजह से जेल जाना पड़ा। और जनरल जिया के जमाने में कई बरस निर्वासन में बिताने पड़े। कल शाम इस्लामाबाद में उनके इंतकाल से न केवल उर्दू शायरी को झटका लगा बल्कि सच और जिंदगी की हिमायत करने वाले एक नफीस इंसान से यह दुनिया महरूम हो गई। अहमद फराज बर्रे सगीर की आवाज थे। पूरे दक्षिण एशिया में उनकी शायरी का बोलबाला था। वह अक्सर दिल्ली आया करते थे। डेढ़ साल पहले फराज एक जलसे में शिरकत करने दिल्ली आए थे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनसे भेंट हुई। आधे घंटे तक फराज पाकिस्तान की शायरी और विरोध की आवाज की अहमियत पर बोलते रहे। उन्होंने सिर्फ अपना हवाला नहीं दिया, तमाम लोगों का नाम लेकर कहा कि उन सबको अपनी शायरी की वजह से कई-कई बार जेल जाना पड़ा। अल्फाज की तल्खी शायद इसी से उपजती है। जहां बोलने पर पाबंदी हो, वहीं सबसे ज्यादा आवाजें होती हैं। और वही आवाज असरदार होती है। मैंने उनसे हिंदुस्तान की शायरी के बारे में पूछा। उनके मुंह से सिर्फ एक नाम निकला-फिराक गोरखपुरी। फराज ने कहा कि उसके बाद ज्यादा कुछ कहने लायक है नहीं। हिंदी में शायरी होती जरूर होगी पर वह उर्दू में मौजूद नहीं है। इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अहमद फराज बार-बार कहते रहे कि हिंदुस्तान की कविता का वह मेयार, वह दर्जा इसलिए नहीं है कि यहां अपनी कविता के लिए जेल जाने वाले नहीं हैं। जिन्होंने जिंदगी का वो रंग नहीं देखा है वे उसे बयान भी नहीं कर सकते। कविता पढ़े लिखों की आरामगाह नहीं है। वह जिंदगी से आती है जिसमें बहुत पेचीदगियां हैं और वह जुल्फों के पेचोखम से ज्यादा मुश्किल और टेढ़ी है। शायरी जिंदगी के साथ चलती है और कई बार उसके आगे भी। अहमद फराज का मानना था कि अगर शायरी वक्त और समाज का सिर्फ आइना बनकर उसे उसी की छवि दिखाती रहे तो उसके ज्यादा मानी नहीं रह जाएंगे। शायरी बेआवाज की आवाज है। समाज के उस तबके से ताल्लुक रखती है, जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। अगर वह तरक्कीयाफ्ता नहीं है और बदलाव की दरकार नहीं रखती तो ऐसी शायरी के लिए कूड़ेदान से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती।
Saturday, August 23, 2008
एक अच्छा पागलपन
खेलों का असर पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। ऐसे में अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?


कुछ लोगों को लगता है कि भारत में एक नए किस्म का पागलपन तारी हो गया है। भारतीय खुश हो रहे हैं। बल्लियों उछल रहे हैं। जश्न मना रहे हैं। एक जीत पर खुशियां तो एक हार पर उसी तरह का दु:ख। लेकिन खुशियां उन दु:खों पर कई गुना भारी पड़तीं। अभी तक ऐसा सिर्फ क्रिकेट को लेकर होता था। अब दूसरे खेलों पर भी होता है। क्योंकि खेल सिर्फ मैदान के भीतर नहीं खेले जाते और न ही केवल एक खिलाड़ी की जीत या हार का सवाल होता है। उनका असर व्यापक होता है और पूरे देश की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। अगर आज लोग खिलाड़ियों के लिए एकजुट होकर खड़े हैं और मीडिया इस सामूहिक चेतना का आधार तैयार कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?
कुछ समाचार-पत्रों ने ऐसे लेख प्रकाशित किए हैं कि तीन पदक जीतने पर भारत के अखबार और टेलीविजन चैनल पागल हो गए हैं। उन्होंने इसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। इस प्रक्रिया में खबर की बलि दे दी गई।
एक अखबार ने तो यहां तक लिख दिया कि दुनिया बदल गई है और ऐसे में ओलंपिक खेलों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। उन्हें एक सिरे से खारिज कर देना चाहिए।
सिर्फ एक खेल आयोजन पर घंटों का टेलीविजन प्रसारण और हजारों-लाखों टन अखबारी कागज बर्बाद करने का कोई तुक नहीं है। उनके अनुसार यह मानना भी बेतुका है कि खेलों का राष्ट्रीय चेतना पर कोई असर पड़ता है। क्योंकि खेल का एक तमगा देखने में सुंदर हो सकता है, इससे ज्यादा उसकी अहमियत नहीं है।खेलों और खेल की भावना के प्रति ऐसे लेखकों की नासमझी सिर्फ इस वजह से स्वीकार नहीं की जा सकती कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। सहमति-असहमति उसके बाद आती है। खेलों के प्रति यही भावना होती तो एवरेस्ट अभी अविजित होता। इंगलिश चैनल में कोई तैराक न उतरता। कार्ल लुईस दस सेकंड से कम में सौ मीटर न दौड़ते। येलेना पांच मीटर से ऊंची छलांग न लगाती। आदमी चांद पर न जाता। अपनी गुफा में रहता। शिकार करता और खुश रहता। सौभाग्य से खेलों के प्रति यह सनकी विचार कुछ सीमित लोगों के हैं। ज्यादातर लोग उनसे सहमत नहीं हैं।हॉकी के भारतीय परिदृश्य और सामूहिक चेतना से गायब होने के बाद एक बड़ा शून्य था जिसे 1983 के क्रिकेट विश्व कप ने भरा। कपिल देव के नेतृत्व में 11 खिलाड़ियों ने केवल विश्व कप नहीं जीता, देश को ऐसी चेतना दी जिसकी मिसाल नहीं है। वह केवल एक घटना नहीं थी। उसका असर व्यापक था और आज तक कायम है। 1983 से पहले भारत में क्रिकेट खेली जाती थी, पर राष्ट्रीय स्तर पर उसे लेकर इतना भावनात्मक लगाव नहीं था। विश्व कप ने यह सब बदल दिया। इसी का असर था और है कि आज भारतीय टीम में 11 में से सात खिलाड़ी गांव की पृष्ठभूमि से आते हैं। पहले एक नजफगढ़ आया। उसके बाद रायबरेली, इलाहाबाद, मेरठ, गाजियाबाद, रांची, हिसार जसे कस्बे क्रिकेट के विश्व मानचित्र पर आ गए। विश्व कप ने उन्हें एक सपना दिया।बीजिंग में चल रहे ओलंपिक खेलों में भारत ने कोई दस-बीस पदक नहीं जीते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन करने से यह और साफ हो जाएगा कि भारत खेल के मामले में अति पिछड़े हुए देशों में शामिल है। उसे ओलंपिक के इतिहास के 108 साल में पहली बार व्यक्तिगत स्वर्ण पदक मिला। 56 साल बाद कुश्ती में कांस्य पदक हासिल हुआ। मुक्केबाजी में पहली बार उसे पदक मिलेगा। इसलिए इसका जश्न होना स्वाभाविक है। इसे केवल एक स्वर्ण, एक कांस्य और एक अन्य पदक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
अगर थोड़ा ध्यान दिया जाए तो संभवत: 2008 का बीजिंग ओलंपिक दूसरे खेलों के लिए वही कर सकता है जो 1983 के विश्व कप ने क्रिकेट के लिए किया था। इसमें सबसे खास बात यह है कि तीन में से दो पदक विजेता ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। उन्हें कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। पहलवान सुशील जसे 20 खिलाड़ियों को प्रशिक्षण के दौरान एक कमरे में गुजारा करना पड़ा। भिवानी जसे कस्बे से चार मुक्केबाजों का ओलंपिक स्तर तक पहुंचना कम उपलब्धि नहीं है। कहते हैं कि भिवानी में क्रिकेट के उतने बल्ले नहीं मिलेंगे, जितने मुक्केबाजी के ग्लव्स मिल जाएंगे। क्या इसे आने वाले दिनों की तस्वीर नहीं माना जा सकता? भले भिवानी के चार में से केवल एक मुक्केबाज को पदक मिला हो, अगले ओलंपिक में यह एक चार में बदल सकता है। एक जमाने में कहा जाता था कि क्रिकेट को देश में धर्म का दर्जा मिल गया है। खिलाड़ी अर्ध-ईश्वर हो गए हैं। क्रिकेट समझने और देखने-सुनने वालों की प्रतिक्रियाएं हैरान करती थीं। एक मैच हारने पर खिलाड़ी के घर पर पथराव। एक मैच जीतने पर उसे कंधे पर बिठाना। कॉरपोरेट जगत ने भी तभी उसकी सुध ली। खिलाड़ी जनमानस में पहुंच गए और उन पर पैसों की बरसात होने लगी। मामला करोड़ों तक जा पहुंचा। जाहिर है, यह भी 1983 के बाद ही हुआ। एक तरह से कहा जाए तो बीजिंग ओलंपिक ने भारत का खेल इतिहास दोबारा लिख दिया है। उसकी तहरीर पूरी होने में थोड़ा समय लग सकता है। जब वह पूरी होगी तो कुछ उसी तरह हो सकती है जिसमें चीन ने अमेरिका को पदक तालिका के शीर्ष से बेदखल कर दिया।
आने वाले कल की तस्वीर

Thursday, August 21, 2008
यही ओलंपिक है

छप्पन साल बाद धोबीपाट

दुनिया के नक्शे में पड़ोसी चुने नहीं जा सकते

पाकिस्तान के वर्तमान हालात में इस शून्य को भरने की तीन सूरतें हो सकती हैं। पहली यह कि मुशर्रफ को इस्तीफे के लिए मजबूर करने वाली लोकतांत्रिक ताकतें मजबूत होकर उभरें और पाकिस्तान को लोकतंत्र की ओर ले जाकर स्थायित्व दें। दूसरी सूरत कट्टरपंथी जमातों और मुल्लाओं की ताकत बढ़ने की है, जिन्हें अहसास है कि मुशर्रफ जैसे साझा दुश्मन के अभाव में किसी तरह एक हुई नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी की सियासी जमातें बिखर सकती हैं। यह उनके लिए खासतौर पर जरखेज जमीन होगी। तीसरी स्थिति सेना के एक बार फिर सत्ता पर नियंत्रण की है, जो हर हाल में पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति चलाती है।
पाकिस्तानी शासन में सेना का रसूख कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेनाध्यक्ष ने मुशर्रफ पर लगाए गए आरोपों को सेना के खिलाफ माना और कहा कि वह किसी भी सूरत में मुशर्रफ पर महाभियोग के नाम पर सेना की छवि धूमिल नहीं होंने देंगे। शासन को सेनाध्यक्ष की बात सुननी और माननी पड़ी। यह माना जा सकता है कि महाभियोग की प्रक्रिया लंबी चलती। ऐसे में सेना और नागरिक प्रशासन के बीच पहले से चले आ रहे मतभेद और गहरे होते। सत्ता का केंद्र न बदलता तो कम से कम उसकी धुरी जरूर कुछ खिसक जाती। एक तथ्य यह भी है कि पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष पर महाभियोग कभी नहीं लगाया गया। हालांकि आजादी के साठ में से चालीस साल वही सत्ता पर काबिज थे।तीनों ही स्थितियों में पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उसमें कोई अंतर नहीं आएगा। लेकिन भारत के लिए यह जरूरी होगा कि वह लोकतंत्र के पहरुओं के साथ-साथ पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अश्फाक परवेज कियानी की गतिविधियों पर नजर रखे और उन्हें समझने की कोशिश करे। पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व मुखिया रह चुके कियानी दरअसल मुशर्रफ का विस्तार हैं और शासन में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेगी। पाकिस्तान में भारत के पूर्व राजनयिक जी पार्थसारथी मानते हैं कि तालिबान को समर्थन के मामले में सेना की भूमिका नहीं बदलेगी लेकिन कश्मीर को लेकर उसके रुख में मामूली बदलाव आ सकता है।
भारत के लिए यह भी जरूरी होगा कि वह अमेरिकी प्रशासन और खुफिया तंत्र की गतिविधियों पर नजर बनाए रखे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के परदे में नौ साल तक मुशर्रफ को हर संभव मदद देने वाले अमेरिका के लिए भी पाकिस्तान में हुआ यह आंतरिक परिवर्तन अर्थपूर्ण है। दुनिया में लोकतंत्र के अलमबरदार बने अमेरिका की मुश्किल यह है कि सैन्य तानाशाहों से संपर्क रखना उसे ज्यादा सहूलियत भरा लगता है लेकिन वह लोकशाही की खुलेआम मुखालफत भी नहीं कर सकता। वह सार्वजनिक रूप से शायद अपनी यह इच्छा भी जाहिर नहीं कर सकता कि उसका इरादा इस इलाके पर अपनी धौंस जमाए रखने के लिए कश्मीर जसी किसी जगह पर पांव जमाने का है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा करना कठिन होगा।सेना और लोकतांत्रिक ताकतों को अलग रख दें तो पाकिस्तान की तीसरी स्थिति कट्टरपंथी जमातों के बढ़ते प्रभाव की होगी। अमेरिका के दम पर इन ताकतों को सीमित दायरे में चुनौती देने वाले मुशर्रफ पर कई बार हमले हुए, जिनमें वे बाल-बाल बच गए। उस समय सेना पूरी ताकत से उनके साथ थी। एक तरह से देखा जाए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सैन्य प्रशासन से ज्यादा खतरा धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों से है। मतलब यह कि उन्हें लगातार दुधारी तलवार पर चलना होगा। मुशर्रफ के जाने से सबसे ज्यादा खुशी और राहत इसी तबके ने महसूस की है। इन ताकतों के उभरने का सीधा असर भारत पर होगा। इनका लगभग पूरा अस्तित्व अफगानिस्तान में तालिबान और भारत में कश्मीर पर टिका हुआ है। तेरह साल की अपेक्षाकृत शांति के बाद घाटी में एक बार फिर से उठ रही आजादी की मांग से उनके हौसले जरूर कुछ बुलंद हुए होंगे। इस पर नजर रखना भारत की प्राथमिकता होना चाहिए। उसे पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त सतीश चंद्रा की इस बात पर कम भरोसा करना चाहिए कि पाक में बदलाव और यथास्थिति पर्यायवाची शब्द हैं। भारत के साथ उसके रिश्तों में कोई नाटकीय बदलाव आने की संभावना नहीं है।
Wednesday, August 20, 2008
उन्हें भी तो दो कोई पानी चुल्लू भर

Tuesday, August 19, 2008
इज्जत से या बेआबरू होकर

Monday, August 18, 2008
वाह, फेल्प्स वाह!

Sunday, August 17, 2008
एक हिंदुस्तानी कस्बा दुनिया में चमका

Thursday, August 14, 2008
एक तस्वीर का इकसठवां साल

एक तस्वीर का इकसठवां साल। फिर भी ताजगी। नएपन का झोंका। वह पुरानी नहीं पड़ी। बासी नहीं हुई। धूल नहीं जमी उसपर। लगता है कि अब भी कुछ बचा है। सब खो नहीं गया। भ्रष्टाचार, खूनखराबे, जोड़-तोड़ और धमाकों में। सुकून होता है कि हम बचे हुए हैं। रंगों का मतलब है। हवा है। खुले मैदान हैं। हरियाली और खेत हैं। एक दूरदराज गांव में। नंगे बदन बच्चे। तिरंगा लेकर दौड़ना खेल नहीं है। ख्याल है। कद्र होनी चाहिए इसकी। यह नहीं रहा तो हम कहां रहेंगे। आजादी की शुभकामनाएं।
लोक पर तनी तंत्र की लाठी

Wednesday, August 13, 2008
लपटों में घिरा पंद्रह अगस्त

कामयाबी चमकती सोने जैसी

Monday, August 11, 2008
कुछ थमा, नेताओं का मन रमा

Saturday, August 9, 2008
राजनीतिक ओलंपियाड-2008

आंखों पर जैसे भरोसा नहीं रहा

शुक्रवार को पूरी दुनिया ने एक सपना देखा। खुली आंखों से। इतना चमत्कारिक सपना कि दुनिया पलक झपकाना भूल गई। वहां उड़ने वाली परियां थीं, हवा में नाचती पतंगें भी। संगीत और नृत्य था। मानव समाज के उत्कर्ष का समूहगान था।
प्राचीनता आधुनिकता को गले लगा रही थी। यह सब एक घोसले में था। यह साबित करते हुए कि दरअसल एक घोसला पूरी दुनिया के लिए काफी है। बल्कि इतना बड़ा है कि उसमें सबके सपने समा सकें। चीन की राजधानी बीजिंग में ‘एक विश्व, एक सपना ध्येय वाक्य वाले 29वें ओलंपिक खेलों की शुरुआत कल्पनातीत थी। नाचती लेजर किरणों के प्रभाव से चमत्कृत करने वाला उद्घाटन संभवत: ओलंपिक इतिहास का भव्यतम समारोह था, जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा। समारोह को घोसले में मौजूद 90 हजार भाग्यशाली लोगों के साथ दुनिया भर में कई अरब लोगों ने देखा और अपनी आंखों पर भरोसा करना छोड़ दिया। उद्घाटन समारोह भावना, एकता, कला, सौंदर्य, शक्ति और कल्पनाशीलता का एक ऐसा संयमित विस्फोट था, जो बेमिसाल था और रहेगा। दुनिया को बारूद, कागज और कुतुबनुमा देने वाले चीन ने अपनी पूरी कहानी और संस्कृति को करीने से और तरतीबवार दुनिया के सामने रखा। रेशम मार्ग और समुद्री यात्राएं परत दर परत खोलीं। आधुनिकता को अपने ढंग से प्रदर्शित किया और दिखा दिया कि भविष्य उसका है। और उस भविष्य के सपने में सब शामिल हैं। इसमें साबित होगा कि कौन सबसे तेज, सबसे ऊंचा, सबसे ताकतवर है। इसलिए दिल थामकर बैठिए और वह देखिए, जो आजतक नहीं देखा गया।
प्राचीनता आधुनिकता को गले लगा रही थी। यह सब एक घोसले में था। यह साबित करते हुए कि दरअसल एक घोसला पूरी दुनिया के लिए काफी है। बल्कि इतना बड़ा है कि उसमें सबके सपने समा सकें। चीन की राजधानी बीजिंग में ‘एक विश्व, एक सपना ध्येय वाक्य वाले 29वें ओलंपिक खेलों की शुरुआत कल्पनातीत थी। नाचती लेजर किरणों के प्रभाव से चमत्कृत करने वाला उद्घाटन संभवत: ओलंपिक इतिहास का भव्यतम समारोह था, जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा। समारोह को घोसले में मौजूद 90 हजार भाग्यशाली लोगों के साथ दुनिया भर में कई अरब लोगों ने देखा और अपनी आंखों पर भरोसा करना छोड़ दिया। उद्घाटन समारोह भावना, एकता, कला, सौंदर्य, शक्ति और कल्पनाशीलता का एक ऐसा संयमित विस्फोट था, जो बेमिसाल था और रहेगा। दुनिया को बारूद, कागज और कुतुबनुमा देने वाले चीन ने अपनी पूरी कहानी और संस्कृति को करीने से और तरतीबवार दुनिया के सामने रखा। रेशम मार्ग और समुद्री यात्राएं परत दर परत खोलीं। आधुनिकता को अपने ढंग से प्रदर्शित किया और दिखा दिया कि भविष्य उसका है। और उस भविष्य के सपने में सब शामिल हैं। इसमें साबित होगा कि कौन सबसे तेज, सबसे ऊंचा, सबसे ताकतवर है। इसलिए दिल थामकर बैठिए और वह देखिए, जो आजतक नहीं देखा गया।
Thursday, August 7, 2008
नदी का पानी आग बुझा क्यों नहीं देता?

Wednesday, August 6, 2008
कम से कम आंख खोल कर देखो तो

Tuesday, August 5, 2008
जो आग लगाकर उसे तापती

Monday, August 4, 2008
मौतों की फिर मनहूस खबर

Sunday, August 3, 2008
वैसे ग्रहण बुरा नहीं है

Saturday, August 2, 2008
प्रकृति से ग्रहण सीखा, काटना नहीं सीखा

Thursday, July 31, 2008
उम्मीद है कि कायम है
दिल है कि मानता नहीं। हर बार खाली झोली लिए लौटने पर भी नहीं। कोई हाथ खड़े कर दे, तब भी नहीं। लगता है कि इस बार कुछ होगा। कोई चमत्कार। उम्मीद है कि कायम है। खुद से, खिलाड़ियों से। हफ्ते भर बाद ओलंपिक होंगे। बीजिंग में। खिलाड़ी कुछ करेंगे। कुछ ले आएंगे। पदक-शदक। सोना-चांदी नहीं। कांसा ही सही। लेकिन गिल ने हाथ खड़े कर दिए। बेचारे अपने खेलमंत्री। क्या करें। एक तो खेल के पीछे खेल। भारी सियासत। दूसरे, खेल विरोधी समाज। खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब। इसलिए लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर बेटा। बन जा नवाब।
Wednesday, July 30, 2008
जिंदगी इसी तरह हंसती है
मौत बेबात का फसाना है। जिंदगी ही असल कहानी है। मौत को धता बताती। पछाड़ती। लड़कर जीतती। यही सुप्रतिम है। अप्रतिम है। विचित्र किंतु सत्य। मानो या न मानो। डाक्टरों से घिरा। चेहरे पर मुस्कान। सौम्य। लेकिन मौत को मुंह चिढ़ाती। जिंदगी इसी तरह हंसती है। स्मित और मोहक। यह गुड़गांव के हादसे से बचना नहीं है। जूझकर निकलना है। आर-पार लोहे का सरिया। सीने पर खून का दरिया। फिर भी हौसला। गजब है। मीर साहब देखिए। हादसा बस कि एक मोहलत है। यानी आगे चलेंगे दम लेकर।
Monday, July 28, 2008
कुर्सी पर कब जमकर बैठेंगे शिवराज
Sunday, July 27, 2008
कब जागेगी सरकार

हे राम! ये क्या हो रहा है

Thursday, July 24, 2008
पूरी जीत, आधी खुशी
सांसदों को पैसे देने के मामले से संसद की गरिमा पर जो धब्बा लगा है उसे मिटाने के लिए गहराई से जांच किए जाने की आवश्यकता है।
मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत आसानी से जीत लिया। जीत का अंतर भी कम नहीं था। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और पर्चियों के गिनती के मुताबिक यह अंतर 19 था। वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सरकार से विश्वास मत के जरिए अपना बहुमत
साबित करने को कहा था। प्रस्ताव पारित होने से सरकार ने राहत की सांस ली होगी क्योंकि एक समय अंकगणित उसके खिलाफ लगने लगा था। पर यह जीत आधी-अधूरी है। सांसदों की खरीद-फरोख्त के काले दाग़ के साथ है। यह दाग धुलने में शायद काफी समय लगेगा। सही अर्थो में यह लोकतंत्र का काला दिन है।काला दिन एक शब्द-समूह है, जिसके बारे में लोग उम्मीद करते हैं कि वह कभी न आए। लेकिन वह गाहे-बगाहे आ जाता है। इस बार वह लोकतंत्र का काला दिन बना। भारतीय जनता पार्टी के तीन सांसदों ने लोकसभा में नोटों की गड्डियां लहराते हुए कहा कि उन्हें विश्वास मत के प्रस्ताव पर मत विभाजन से अनुपस्थित रहने के लिए यह रकम दी गई। उनके हाथों में एक-एक हजार रुपये के नोटों की गड्डियां थीं। तीन सांसदों-अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा ने कहा कि उन्हें समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह के प्रतिनिधि ने एक करोड़ रुपये दिए और आठ करोड़ रुपये मत विभाजन के बाद देने का वादा किया। यह घटना शर्मनाक है। दुखद है। दुर्भाग्यपूर्ण है। संसदीय इतिहास में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई। इसकी निंदा की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ कुछ और बातों पर नजर रखी जानी चाहिए। इस घटना में ऐसी तमाम बातें हैं, जिनका जवाब मिलना चाहिए।
नेताओं के पैसे लेने की खबरें पहले भी आती रही हैं। बंगारू लक्ष्मण हों, पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या संसद में सवाल पूछने के लिए धन लेने का मामला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही सांसदों की खरीद-फरोख्त की खबरें उड़ने लगी थीं। इसी के प्रमाण के रूप में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति से सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां लहराईं। आडवाणी ने कहा कि यह साधारणतया उचित नहीं है पर अंत में उन्होंने नोटों के बंडल सदन में ले जाने की अनुमति दे दी। इससे लोकसभा की सुरक्षा का सवाल भी जुड़ा है। आखिर सदस्यों को नोटों का थैला अंदर कैसे लाने दिया गया।यहीं से सवालों का सिलसिला शुरू होता है, जिनका कोई जवाब अब तक उपलब्ध नहीं है।
आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। चार दशक से राजनीति में हैं। गंभीर व्यक्ति हैं और उन्हें संसदीय प्रक्रिया की पूरी जानकारी है। उन आडवाणी ने इन तीन सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष से शिकायत करने की जगह नोटों की गड्डियां लोकसभा में ले जाने की अनुमति दी। उन्होंने यह भी कहा कि पूरी बातचीत और पैसे देने की घटना की फिल्म एक निजी टेलीविजन चैनल ने तैयार की है। इसके बारे में संबंधित सांसद जानकारी देंगे। सांसद बाद में मीडिया के सामने आए तो उनके साथ भाजपा के दो वरिष्ठ नेता थे- गोपीनाथ मुंडे और प्रकाश जावड़ेकर। जब सांसदों से पूछा गया कि अमर सिंह ने जो आदमी भेजा, उसका नाम क्या है? चैनल कौन सा है? मुंडे और जावड़ेकर ने उन्हें जवाब देने से रोकते हुए कहा, ‘आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है।एक सवाल चैनल के बारे में है। पत्रकारिता के इतिहास की एक अनोखी घटना। चैनल के पास टेप था पर उसने इसे प्रसारित न करने का फैसला किया। चैनल ने कहा कि वह अपना टेप लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को सौंप देगा। आखिर चैनल ने ऐसा क्यों किया, यह जानना जरूरी नहीं है। जरूरी यह जानना है कि समाचार संगठन का काम किसी राजनीतिक दल की मदद करना है या समाचार का प्रसारण करना।
अगला सवाल इसी से उठता है कि अंतत: इस घटना से किसको लाभ होने वाला है या हो सकता है। यह जानना कठिन नहीं है कि भाजपा इसके केंद्र में है, उसके सांसद केन्द्र में हैं, उसके नेता आडवाणी केंद्र में हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फौरन इसका राजनीतिक चेहरा सामने रख दिया। उन्होंने मांग की कि प्रधानमंत्री को तत्काल अपन पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यही मांग मायावती की ओर से सतीश मिश्रा ने भी की। लोकतांत्रिक इतिहास की इस दुखद और शर्मनाक घटना की पूरी जांच होनी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष को इसका पूरा अधिकार है कि वह सदन में हुई घटना की जांच कराएं और उस पर निर्णय लें।
सदन की गरिमा पर एक गहरा धब्बा लगा है। उसकी गरिमा दोबारा कायम करने के लिए कड़े कदम उठाना अनिवार्य है।इसे किसी एक राजनीतिक दल से जोड़ना ठीक नहीं है। इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं और संसद का मान तथा उसकी गरिमा बनाए रखना सबकी साझा जिम्मेदारी है। यह अहसास सबको होना चाहिए कि परंपराएं बनने में लंबा वक्त लगता है लेकिन उन्हें किसी की अदूरदर्शिता से आसानी से नष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए देश ने नब्बे साल लड़ाई लड़ी और साठ साल उसे सींचा। इस विश्वास प्रस्ताव में सरकार भले जीत गई हो पर दिन की अशोभनीय घटना लोकतंत्र की उसी परंपरा को बड़ा झटका है।
मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत आसानी से जीत लिया। जीत का अंतर भी कम नहीं था। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और पर्चियों के गिनती के मुताबिक यह अंतर 19 था। वामपंथी दलों की समर्थन वापसी के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सरकार से विश्वास मत के जरिए अपना बहुमत

नेताओं के पैसे लेने की खबरें पहले भी आती रही हैं। बंगारू लक्ष्मण हों, पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या संसद में सवाल पूछने के लिए धन लेने का मामला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही सांसदों की खरीद-फरोख्त की खबरें उड़ने लगी थीं। इसी के प्रमाण के रूप में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति से सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां लहराईं। आडवाणी ने कहा कि यह साधारणतया उचित नहीं है पर अंत में उन्होंने नोटों के बंडल सदन में ले जाने की अनुमति दे दी। इससे लोकसभा की सुरक्षा का सवाल भी जुड़ा है। आखिर सदस्यों को नोटों का थैला अंदर कैसे लाने दिया गया।यहीं से सवालों का सिलसिला शुरू होता है, जिनका कोई जवाब अब तक उपलब्ध नहीं है।
आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। चार दशक से राजनीति में हैं। गंभीर व्यक्ति हैं और उन्हें संसदीय प्रक्रिया की पूरी जानकारी है। उन आडवाणी ने इन तीन सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष से शिकायत करने की जगह नोटों की गड्डियां लोकसभा में ले जाने की अनुमति दी। उन्होंने यह भी कहा कि पूरी बातचीत और पैसे देने की घटना की फिल्म एक निजी टेलीविजन चैनल ने तैयार की है। इसके बारे में संबंधित सांसद जानकारी देंगे। सांसद बाद में मीडिया के सामने आए तो उनके साथ भाजपा के दो वरिष्ठ नेता थे- गोपीनाथ मुंडे और प्रकाश जावड़ेकर। जब सांसदों से पूछा गया कि अमर सिंह ने जो आदमी भेजा, उसका नाम क्या है? चैनल कौन सा है? मुंडे और जावड़ेकर ने उन्हें जवाब देने से रोकते हुए कहा, ‘आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है।एक सवाल चैनल के बारे में है। पत्रकारिता के इतिहास की एक अनोखी घटना। चैनल के पास टेप था पर उसने इसे प्रसारित न करने का फैसला किया। चैनल ने कहा कि वह अपना टेप लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को सौंप देगा। आखिर चैनल ने ऐसा क्यों किया, यह जानना जरूरी नहीं है। जरूरी यह जानना है कि समाचार संगठन का काम किसी राजनीतिक दल की मदद करना है या समाचार का प्रसारण करना।
अगला सवाल इसी से उठता है कि अंतत: इस घटना से किसको लाभ होने वाला है या हो सकता है। यह जानना कठिन नहीं है कि भाजपा इसके केंद्र में है, उसके सांसद केन्द्र में हैं, उसके नेता आडवाणी केंद्र में हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फौरन इसका राजनीतिक चेहरा सामने रख दिया। उन्होंने मांग की कि प्रधानमंत्री को तत्काल अपन पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यही मांग मायावती की ओर से सतीश मिश्रा ने भी की। लोकतांत्रिक इतिहास की इस दुखद और शर्मनाक घटना की पूरी जांच होनी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष को इसका पूरा अधिकार है कि वह सदन में हुई घटना की जांच कराएं और उस पर निर्णय लें।
सदन की गरिमा पर एक गहरा धब्बा लगा है। उसकी गरिमा दोबारा कायम करने के लिए कड़े कदम उठाना अनिवार्य है।इसे किसी एक राजनीतिक दल से जोड़ना ठीक नहीं है। इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं और संसद का मान तथा उसकी गरिमा बनाए रखना सबकी साझा जिम्मेदारी है। यह अहसास सबको होना चाहिए कि परंपराएं बनने में लंबा वक्त लगता है लेकिन उन्हें किसी की अदूरदर्शिता से आसानी से नष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए देश ने नब्बे साल लड़ाई लड़ी और साठ साल उसे सींचा। इस विश्वास प्रस्ताव में सरकार भले जीत गई हो पर दिन की अशोभनीय घटना लोकतंत्र की उसी परंपरा को बड़ा झटका है।
राहगुजर ही राहगुजर है राहगुजर से आगे भी

Wednesday, July 23, 2008
राजनीति तो धब्बों की सौगात

Tuesday, July 22, 2008
धन्यवाद सोमनाथ...

Sunday, July 20, 2008
ले जाओ एक टुकड़ा लोकतंत्र
भारत एक पहेली है। विकट लोकतांत्रिक पहेली। चित्रात्मक। चित्रलिखित। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। सबसे बड़ी पहेली। कुछ कठिन, कुछ आसान। पहचानिए। और ईनाम जीतिए। ले जाइए एक टुकड़ा लोकतंत्र। जितना हिस्से में आए। लोकतंत्र के टुकड़े हो रहे हैं। चंद्रबाबू ने मायावती से हाथ मिलाया। कोई किसी से हाथ मिला लेता है। कहीं से कहीं चला जाता है। सुबह यहां। शाम वहां। रात का ठिकाना नहीं। एक हाथ मिलाता है। दूसरे के पांव के नीचे से जमीन खिसक जाती है। पहेली में सहेली। झूठी है दोस्त उसकी हथेली कहेगी क्या?
Saturday, July 19, 2008
चल रे घोड़े लोकतंत्र के, बिक भी, दौड़ भी

आजकल बहुत बे-करार हैं आडवाणी
भारतीय जनता पार्टी के दूसरे सबसे कामयाब नेता लालकृष्ण आडवाणी इन दिनों बहुत बेचैन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने मुखौटे के बावजूद पार्टी के सर्वोच्च नेता बने और रहे। वाजपेयी के चुनावी राजनीति से हटने के बाद आडवाणी खेमा और स्वयं आडवाणी खुद को उनका उत्तराधिकारी मान रहे हैं। यह सोचकर चल रहे हैं कि अब की उनकी
बारी है। यही उनकी बेचैनी की वजह भी है। एक डर है कि सियासत में कहीं उनकी लकीर वाजपेयी द्वारा खींची गई लकीर से छोटी न रह जाए। अब जमाना एक पार्टी शासन का नहीं रह गया है इसलिए सियासत में उदारता का मुखौटा पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि आडवाणी के पास मुखौटा है ही नहीं। वह जैसे है, वैसे हैं.
आडवाणी समझते हैं कि राजनीति ‘जैसे है, वैसे है, वाले रूप से नहीं चलने वाली है। इसके लिए कई मुखौटे चढ़ाने-उतारने पड़ेंगे। ताकि तमाम छोटी-बड़ी मझोली सियासी जमातों के लिए जगह बनी रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस मामले में विफल नहीं कहा जा सकता। वह एक कामयाब प्रयोग था। तब से अब में केवल एक फर्क है। तब नेतृत्व वाजपेयी कर रहे थे, जबकि अब कमान आडवाणी के हाथ में है। इसे गुजरात दंगों के संदर्भ में बहुत साफ ढंग से देखा और समझा जा सकता है।
दंगों के बाद वाजपेयी ने राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से राजधर्म निभाने को कहा था। अब चुनावों के लिए पूरे देश में गुजरात मॉडल लागू करने की बात होती है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सफलता के बाद इस पर जोर ज्यादा ही बढ़ा है।इसीलिए आडवाणी बेचैन हैं। तरकीबें सोच रहे हैं कि किसी तरह अल्पसंख्यक मुसलमान उनके साथ आ जाएं! वे भाजपा और उनके सहयोगी संगठनों के सारे गुनाह माफ कर दे। भूल जाएं कि छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। गुजरात के दंगे विस्मृत कर दें। यह याद न रखे कि नरोदा पटिया कोई जगह है।
यह वाजपेयी के मुखौटे और नेतृत्व का कमाल था कि 2004 में आम चुनावों से एन पहले अटल हिमायती कमेटी बनी। जगह-जगह घूमी। हालांकि उसका असर अधिक नहीं हुआ पर यह मुस्लिम-भाजपा संबंधों की एक बड़ी कड़ी थी। आडवाणी इसे दोहराने की कोशिश में लगे हैं। चाहते हैं कि ऐसा आम चुनाव से पहले हो जाए तो उसकी सार्थकता इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें भी देख लें।आडवाणी की बेचैनी और बेसब्री समझ में आती है। भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश किया है और उन्हें पता है कि अगर उनका नंबर इस बार नहीं आया तो शायद आएगा भी नहीं। जब से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-राजनीति वाले लटके-झटके शुरू किए हैं, यह लगभग तय माना जा रहा है कि आम चुनाव जल्दी और समय से पहले हो जाएंगे। लोकतंत्र के विश्वविद्यालय परिसर में सबने अपने-अपने ढंग से इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। परिसर में ऊहापोह की स्थिति। सब बेचैन, करार की स्थिति नहीं। पर सबसे बेकरार आडवाणी हैं।
बेकरारी और बेचैनी इस हद तक है कि वह अपना नारा तक बदलने को तैयार हो गए हैं ताकि किसी तरह अल्पसंख्यक यानी कि मुसलमान भाजपा के पाले में आ जाएं।भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक में आडवाणी ने हिंदू हित का नारा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा। आडवाणी ने यह बदलाव निश्चित रूप से सोच-समझकर किया है। वह चाहते हैं कि आम जनता और खासकर मुसलमान ‘हिन्दू हितों की जगह राष्ट्रहित पढ़ें। वह भाजपा को इफ्तार की दावतों के नाम पर सियासत से एक कदम आगे ले जाना चाहते हैं। तुष्टीकरण की राजनीतिक मुहावरेदारी बदलना चाहते हैं।
भारतीय राजनीति को तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता जसे तमाम नए शब्द देने वाली भाजपा जानती है कि ऐसे नवगढ़िए शब्दों का दरअसल कोई अर्थ नहीं होता। सहूलियत होती है। जब ठीक लगा, अपने हक में इस्तेमाल किया। नहीं लगा तो छोड़ दिया या उसकी आक्रामकता सुविधानुसार कुछ डिग्री कम कर दी।भारतीय जनता पार्टी का मुस्लिम चेहरा शायद पार्टी को यह समझाने में कामयाब रहा कि भारतीय मुसलमान वोट के अपने अधिकार को बहुत संजीदगी से लेता है। उसे अपनी ताकत मानता है। वोट डालना उसके लिए मतदान के दिन की छठी नमाज है। वह वोट जरूर डालता है। इसी वजह से भारत के वर्तमान राजनीतिक माहौल में उसकी अहमियत केवल आबादी के प्रतिशत की नहीं रह जाती। उससे लगभग डेढ़ गुना ज्यादा बढ़ जाती है। भाजपा को इसका अंदाजा हो गया है। उसे पता चल गया है कि केवल हिंदू हित की बात करने और हिंदू वोट के सहारे सरकार बनाना तो दूर, लोकसभा में दो सौ का आंकड़ा छूना भी असंभव है।
आडवाणी बेचैन हैं क्योंकि वह जानते हैं कि देश में मुसलमानों की आबादी भले पंद्रह प्रतिशत के आसपास है पर चुनावी गणित में मतदाताओं के रूप में यह पच्चीस प्रतिशत तक पहुंच जाता है। हर चौथा वोट उन्हीं का होता है। इसे अनदेखा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।

आडवाणी समझते हैं कि राजनीति ‘जैसे है, वैसे है, वाले रूप से नहीं चलने वाली है। इसके लिए कई मुखौटे चढ़ाने-उतारने पड़ेंगे। ताकि तमाम छोटी-बड़ी मझोली सियासी जमातों के लिए जगह बनी रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस मामले में विफल नहीं कहा जा सकता। वह एक कामयाब प्रयोग था। तब से अब में केवल एक फर्क है। तब नेतृत्व वाजपेयी कर रहे थे, जबकि अब कमान आडवाणी के हाथ में है। इसे गुजरात दंगों के संदर्भ में बहुत साफ ढंग से देखा और समझा जा सकता है।
दंगों के बाद वाजपेयी ने राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से राजधर्म निभाने को कहा था। अब चुनावों के लिए पूरे देश में गुजरात मॉडल लागू करने की बात होती है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सफलता के बाद इस पर जोर ज्यादा ही बढ़ा है।इसीलिए आडवाणी बेचैन हैं। तरकीबें सोच रहे हैं कि किसी तरह अल्पसंख्यक मुसलमान उनके साथ आ जाएं! वे भाजपा और उनके सहयोगी संगठनों के सारे गुनाह माफ कर दे। भूल जाएं कि छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। गुजरात के दंगे विस्मृत कर दें। यह याद न रखे कि नरोदा पटिया कोई जगह है।
यह वाजपेयी के मुखौटे और नेतृत्व का कमाल था कि 2004 में आम चुनावों से एन पहले अटल हिमायती कमेटी बनी। जगह-जगह घूमी। हालांकि उसका असर अधिक नहीं हुआ पर यह मुस्लिम-भाजपा संबंधों की एक बड़ी कड़ी थी। आडवाणी इसे दोहराने की कोशिश में लगे हैं। चाहते हैं कि ऐसा आम चुनाव से पहले हो जाए तो उसकी सार्थकता इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें भी देख लें।आडवाणी की बेचैनी और बेसब्री समझ में आती है। भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश किया है और उन्हें पता है कि अगर उनका नंबर इस बार नहीं आया तो शायद आएगा भी नहीं। जब से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-राजनीति वाले लटके-झटके शुरू किए हैं, यह लगभग तय माना जा रहा है कि आम चुनाव जल्दी और समय से पहले हो जाएंगे। लोकतंत्र के विश्वविद्यालय परिसर में सबने अपने-अपने ढंग से इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। परिसर में ऊहापोह की स्थिति। सब बेचैन, करार की स्थिति नहीं। पर सबसे बेकरार आडवाणी हैं।
बेकरारी और बेचैनी इस हद तक है कि वह अपना नारा तक बदलने को तैयार हो गए हैं ताकि किसी तरह अल्पसंख्यक यानी कि मुसलमान भाजपा के पाले में आ जाएं।भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक में आडवाणी ने हिंदू हित का नारा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा। आडवाणी ने यह बदलाव निश्चित रूप से सोच-समझकर किया है। वह चाहते हैं कि आम जनता और खासकर मुसलमान ‘हिन्दू हितों की जगह राष्ट्रहित पढ़ें। वह भाजपा को इफ्तार की दावतों के नाम पर सियासत से एक कदम आगे ले जाना चाहते हैं। तुष्टीकरण की राजनीतिक मुहावरेदारी बदलना चाहते हैं।
भारतीय राजनीति को तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता जसे तमाम नए शब्द देने वाली भाजपा जानती है कि ऐसे नवगढ़िए शब्दों का दरअसल कोई अर्थ नहीं होता। सहूलियत होती है। जब ठीक लगा, अपने हक में इस्तेमाल किया। नहीं लगा तो छोड़ दिया या उसकी आक्रामकता सुविधानुसार कुछ डिग्री कम कर दी।भारतीय जनता पार्टी का मुस्लिम चेहरा शायद पार्टी को यह समझाने में कामयाब रहा कि भारतीय मुसलमान वोट के अपने अधिकार को बहुत संजीदगी से लेता है। उसे अपनी ताकत मानता है। वोट डालना उसके लिए मतदान के दिन की छठी नमाज है। वह वोट जरूर डालता है। इसी वजह से भारत के वर्तमान राजनीतिक माहौल में उसकी अहमियत केवल आबादी के प्रतिशत की नहीं रह जाती। उससे लगभग डेढ़ गुना ज्यादा बढ़ जाती है। भाजपा को इसका अंदाजा हो गया है। उसे पता चल गया है कि केवल हिंदू हित की बात करने और हिंदू वोट के सहारे सरकार बनाना तो दूर, लोकसभा में दो सौ का आंकड़ा छूना भी असंभव है।
आडवाणी बेचैन हैं क्योंकि वह जानते हैं कि देश में मुसलमानों की आबादी भले पंद्रह प्रतिशत के आसपास है पर चुनावी गणित में मतदाताओं के रूप में यह पच्चीस प्रतिशत तक पहुंच जाता है। हर चौथा वोट उन्हीं का होता है। इसे अनदेखा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।
Thursday, July 17, 2008
क्या यह बाईस तारीख की तस्वीर है?

Wednesday, July 16, 2008
कामरेड... नहीं, यह लोकसभाध्यक्ष का घर

Sunday, July 13, 2008
कब कौन तिनका बन सहारा दे?

Saturday, July 12, 2008
जब प्रेम तुम्हें बुलाए तो उसके पीछे-पीछे जाओ
'द प्राफेट' : अलमुस्तफा उसका नाम था- भाग दो...
जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसके पीछे-पीछे जाओ, हालांकि उसकी राहें टेढ़ी-मेढ़ी और मुश्किल हैं। जब उसके पंख तुम्हें ढंक लेना चाहें तो खुद को उसके हवाले कर दो। भले ही उन पंखों छुपी तलवार तुम्हें घायल कर दे। और वो जब तुमसे बोले तो उस पर भरोसा करो। भले ही उसकी आवाज तुम्हारे सपनों को चकनाचूर कर डाले। जसे तूफान किसी बगिया को उजाड़ डालता है। क्योंकि प्रेम जिस तरह तुम्हें मुकुट पहनाएगा, ताजपोशी करेगा, उसी तरह वो तुम्हें सूली पर भी चढ़ाएगा। वो तुम्हें पनपने देगा और तुम्हारी काट-छांट भी करता रहेगा। प्रेम जिस तरह तुम्हारी ऊंचाइयों तक चढ़कर सूरज की किरणों में कांपती हुई तुम्हारी कोमल कोंपलों की देखभाल करता है। उसी तरह वो गहराई तक उतरकर जमीन में दूर तक फैली हुई तुम्हारी जड़ों को भी झकझोर सकता है। अनाज के बालों की तरह वह तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। भूसी दूर करने के लिए तुम्हें फटकता है। पीसकर तुम्हें सफेद बनाता है और नरम बनाने तक तुम्हें गूंथता है। और फिर तुम्हें अपनी पवित्र आग पर सेंकता है जिससे तुम ईश्वर की थाली की पावन रोटी बन सको। प्रेम तुम्हारे साथ ये सारा खेल इसलिए करता है ताकि तुम अपने दिल के रहस्यों को जान सको। समझ सको। और उसी समझ और ज्ञान से जिंदगी की दुनिया का एक हिस्सा बन सको। लेकिन अगर किसी डर से तुम केवल प्रेम की शांति और उसके आनंद की ही कामना करते हो वही चाहते हो तो तुम्हारे लिए भला होगा कि तुम अपना नंगापन ढक लो और प्रेम के खलिहान से बाहर निकल जाओ। ऐसी दुनिया में घर बनाओ जहां मौसम आते-जाते न हों, जहां तुम हंसो लेकिन पूरी हंसी नहीं, और रोओ तो, लेकिन पूरे आंसुओं के साथ नहीं। प्रेम किसी को अपने आपके सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने आप के सिवा कुछ लेता है। प्रेम न तो किसी का मालिक बनता है, न ही किसी को मालिकाना हक देता है। क्योंकि प्रेम, प्रेम में ही पूरा हो जाता है। जब तुम प्रेम करो तो ये मत कहो कि ईश्वर मेरे दिल में है बल्कि कहो कि मैं ईश्वर के दिल में हूं। और कभी न सोचना कि प्रेम का रास्ता तुम तय कर सकते हो, क्योंकि प्रेम अगर तुम्हें प्रेम के काबिल समझता है तो वो खुद तुम्हारी राह तय करता है। प्रेम खुद को पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं चाहता। अगर तुम प्रेम करो और तुम्हारे दिल में इच्छाएं उठें ही तो वे इस तरह की इच्छाएं हो-मैं पिघल जाऊं बहते हुए झरने की तरह। रात को गीतों से भर सकूं। मैं इंतिहायी नाजुकी की तकलीफ महसूस कर सकूं। प्रेम की अपनी ही समझ से घायल हो सकूं। अपनी इच्छा से और हंसते-हंसते अपना खून बहता देख सकूं। सुबह उठूं तो दिल के डैने फैले हुए हों और प्रेम से लबरेज एक और दिन पाने के लिए शुक्रगुजार हो सकूं। दोपहर को आराम कर सकूं और प्रेम के परमानंद में डूब सकूं। दिन ढलने पर अहसानों से भरा हुआ दिल लेकर घर लौट सकूं और फिर रात में प्रिय के लिए इबादत और होठों पर उसकी तारीफ के गीत लेकर सो सकूं।
जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसके पीछे-पीछे जाओ, हालांकि उसकी राहें टेढ़ी-मेढ़ी और मुश्किल हैं। जब उसके पंख तुम्हें ढंक लेना चाहें तो खुद को उसके हवाले कर दो। भले ही उन पंखों छुपी तलवार तुम्हें घायल कर दे। और वो जब तुमसे बोले तो उस पर भरोसा करो। भले ही उसकी आवाज तुम्हारे सपनों को चकनाचूर कर डाले। जसे तूफान किसी बगिया को उजाड़ डालता है। क्योंकि प्रेम जिस तरह तुम्हें मुकुट पहनाएगा, ताजपोशी करेगा, उसी तरह वो तुम्हें सूली पर भी चढ़ाएगा। वो तुम्हें पनपने देगा और तुम्हारी काट-छांट भी करता रहेगा। प्रेम जिस तरह तुम्हारी ऊंचाइयों तक चढ़कर सूरज की किरणों में कांपती हुई तुम्हारी कोमल कोंपलों की देखभाल करता है। उसी तरह वो गहराई तक उतरकर जमीन में दूर तक फैली हुई तुम्हारी जड़ों को भी झकझोर सकता है। अनाज के बालों की तरह वह तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। भूसी दूर करने के लिए तुम्हें फटकता है। पीसकर तुम्हें सफेद बनाता है और नरम बनाने तक तुम्हें गूंथता है। और फिर तुम्हें अपनी पवित्र आग पर सेंकता है जिससे तुम ईश्वर की थाली की पावन रोटी बन सको। प्रेम तुम्हारे साथ ये सारा खेल इसलिए करता है ताकि तुम अपने दिल के रहस्यों को जान सको। समझ सको। और उसी समझ और ज्ञान से जिंदगी की दुनिया का एक हिस्सा बन सको। लेकिन अगर किसी डर से तुम केवल प्रेम की शांति और उसके आनंद की ही कामना करते हो वही चाहते हो तो तुम्हारे लिए भला होगा कि तुम अपना नंगापन ढक लो और प्रेम के खलिहान से बाहर निकल जाओ। ऐसी दुनिया में घर बनाओ जहां मौसम आते-जाते न हों, जहां तुम हंसो लेकिन पूरी हंसी नहीं, और रोओ तो, लेकिन पूरे आंसुओं के साथ नहीं। प्रेम किसी को अपने आपके सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने आप के सिवा कुछ लेता है। प्रेम न तो किसी का मालिक बनता है, न ही किसी को मालिकाना हक देता है। क्योंकि प्रेम, प्रेम में ही पूरा हो जाता है। जब तुम प्रेम करो तो ये मत कहो कि ईश्वर मेरे दिल में है बल्कि कहो कि मैं ईश्वर के दिल में हूं। और कभी न सोचना कि प्रेम का रास्ता तुम तय कर सकते हो, क्योंकि प्रेम अगर तुम्हें प्रेम के काबिल समझता है तो वो खुद तुम्हारी राह तय करता है। प्रेम खुद को पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं चाहता। अगर तुम प्रेम करो और तुम्हारे दिल में इच्छाएं उठें ही तो वे इस तरह की इच्छाएं हो-मैं पिघल जाऊं बहते हुए झरने की तरह। रात को गीतों से भर सकूं। मैं इंतिहायी नाजुकी की तकलीफ महसूस कर सकूं। प्रेम की अपनी ही समझ से घायल हो सकूं। अपनी इच्छा से और हंसते-हंसते अपना खून बहता देख सकूं। सुबह उठूं तो दिल के डैने फैले हुए हों और प्रेम से लबरेज एक और दिन पाने के लिए शुक्रगुजार हो सकूं। दोपहर को आराम कर सकूं और प्रेम के परमानंद में डूब सकूं। दिन ढलने पर अहसानों से भरा हुआ दिल लेकर घर लौट सकूं और फिर रात में प्रिय के लिए इबादत और होठों पर उसकी तारीफ के गीत लेकर सो सकूं।
Wednesday, July 9, 2008
छाड़ानगर में एक रात - भाग दो
अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं। वहां आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं। प्रतिक्रियाएं आम थीं। लोग मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं।
छाड़ानगर में महाश्वेता देवी की उपस्थिति और उनका दर्जा समझ पाना कठिन नहीं था। बाद में जिन छाड़ा घरों में जाना हुआ, हर जगह दीवार पर महाश्वेता की तस्वीर थी। एक परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद स्थानीय लोगों में से किसी ने प्रस्ताव रखा कि मैं छाड़ानगर का एक नाटक देखूं। नाम था-बूधन। नाटककार कोई एक व्यक्ति नहीं था। समुदाय ने मिलकर उसे लिखा था। संगीत यंत्रों के नाम पर थालियां और लोटे। प्रकाश व्यवस्था के लिए एक टिमटिमाता बल्ब और दो लालटेन। बताया गया कि बिजली अक्सर चली जाती है इसलिए लालटेन जरूरी है।नाटक शुरू होने से पहले पात्रों की तलाश शुरू हुई। चार भाई इस नाटक के मुख्य कर्ताधर्ता थे। एक का नाम पूरब था, दूसरे का पश्चिम। तीसरे और चौथे उत्तर और दक्षिण थे। पता चला कि उत्तर को सुबह ही पुलिस उठा ले गई। उसकी जगह दूसरा पात्र खड़ा किया गया। बूधन की पत्नी की भूमिका पश्चिम की पत्नी ने की। नाटक में एक भूमिका महाश्वेता की भी थी। एक टेलीफोन वार्ता के जरिए। बूधन मामले में लोगों को सलाह देते हुए। बताते हुए कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। नाटक का पहला दृश्य विवाह के बाद बूधन और उसकी पत्नी का है। वे बाहर खाना खाते हैं। पत्नी के जिद करने पर बूधन उसे पान खिलाने ले जाता है। वहीं अचानक पुलिस पहुंचती है। बूधन को चोरी के एक मामले में गिरफ्तार करना चाहती है। दोनों इसका विरोध करते हैं। इसके बाद बूधन की पिटाई, गाली गलौज और अंत में पत्नी के सामने उसका गोलियों से भूना जाना।इसी दृश्य के बीच अचानक बिजली चली गई। पर नाटक नहीं रुका। उसी गति से चलता रहा। समझ में आया कि लालटेन इतनी जरूरी क्यों है। अभिनय की दृष्टि से ज्यादातर कलाकारों को प्रशिक्षित अभिनेताओं के समकक्ष रखा जा सकता है। संगीत अपने ढंग का बिल्कुल अनूठा। पटकथा एकदम कसी हुई। लगा कि इसे जस का तस राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में रख दिया जाए तो संभवत: पहला पुरस्कार उसे ही मिलेगा। यह समझ में आता है कि बूधन के बारे में इस नाटक में अभिनय की भाव प्रवणता इसलिए हो सकती है कि वह इसी समुदाय का था। उसकी तकलीफ सबकी साझा तकलीफ है। इसलिए अभिनय जसी कोई बात ही नहीं थी। यह जीवन था। बावजूद इसके, जीवन को मंच पर हूबहू पेश करना आसान काम नहीं है। यह निश्चित रूप से छाड़ा प्रतिभा का कमाल है।पौने दो घंटे का नाटक खत्म होने तक कोई नहीं हिला। इस बीच बिजली कई बार आयी गई। छाड़ानगर की मेहमाननवाजी चलती रही। कभी किसी के घर से चाय बनकर आती तो कभी पकौड़े। लाख मना करने पर कि हमने थोड़ी देर पहले उन्हीं के साथ खाना खाया है, कोई सुनने को तैयार नहीं था। नाटक पूरा होने के बाद अभिनेताओं ने हमसे विदा ली। और हमारे साथ एक कप चाय और पीने की जिद की। लगभग पूरा नाटक मैंने वीडियो कैमरे में रिकार्ड किया। पूरब और पश्चिम तथा पश्चिम की पत्नी वीडियो में अपना प्रदर्शन देखना चाहते थे। अगला एक घंटा उसमें लग गया। तब तक लगभग पूरा छाड़ानगर जाग रहा था। समय था रात के तीन बजे। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि एक रात में पूरा नहीं हो सकता था। भारी मन से वे हमें कार तक छोड़ने आए।अगले दिन मैंने एक दो पत्रकारों और कुछ परिचित लोगों से पिछली रात का जिक्र किया। एक ने मुङो छूकर देखा। पूछा ‘आपको कुछ हुआ तो नहीं। पहले बताते तो पुलिस का बंदोबस्त करवा लेते। वहां जाना बिल्कुल ठीक नहीं था। कार के पहिये भी निकाल कर बेच लेते। आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं।ज् ऐसी प्रतिक्रियाएं आम थीं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं। अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं।
छाड़ानगर में महाश्वेता देवी की उपस्थिति और उनका दर्जा समझ पाना कठिन नहीं था। बाद में जिन छाड़ा घरों में जाना हुआ, हर जगह दीवार पर महाश्वेता की तस्वीर थी। एक परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद स्थानीय लोगों में से किसी ने प्रस्ताव रखा कि मैं छाड़ानगर का एक नाटक देखूं। नाम था-बूधन। नाटककार कोई एक व्यक्ति नहीं था। समुदाय ने मिलकर उसे लिखा था। संगीत यंत्रों के नाम पर थालियां और लोटे। प्रकाश व्यवस्था के लिए एक टिमटिमाता बल्ब और दो लालटेन। बताया गया कि बिजली अक्सर चली जाती है इसलिए लालटेन जरूरी है।नाटक शुरू होने से पहले पात्रों की तलाश शुरू हुई। चार भाई इस नाटक के मुख्य कर्ताधर्ता थे। एक का नाम पूरब था, दूसरे का पश्चिम। तीसरे और चौथे उत्तर और दक्षिण थे। पता चला कि उत्तर को सुबह ही पुलिस उठा ले गई। उसकी जगह दूसरा पात्र खड़ा किया गया। बूधन की पत्नी की भूमिका पश्चिम की पत्नी ने की। नाटक में एक भूमिका महाश्वेता की भी थी। एक टेलीफोन वार्ता के जरिए। बूधन मामले में लोगों को सलाह देते हुए। बताते हुए कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। नाटक का पहला दृश्य विवाह के बाद बूधन और उसकी पत्नी का है। वे बाहर खाना खाते हैं। पत्नी के जिद करने पर बूधन उसे पान खिलाने ले जाता है। वहीं अचानक पुलिस पहुंचती है। बूधन को चोरी के एक मामले में गिरफ्तार करना चाहती है। दोनों इसका विरोध करते हैं। इसके बाद बूधन की पिटाई, गाली गलौज और अंत में पत्नी के सामने उसका गोलियों से भूना जाना।इसी दृश्य के बीच अचानक बिजली चली गई। पर नाटक नहीं रुका। उसी गति से चलता रहा। समझ में आया कि लालटेन इतनी जरूरी क्यों है। अभिनय की दृष्टि से ज्यादातर कलाकारों को प्रशिक्षित अभिनेताओं के समकक्ष रखा जा सकता है। संगीत अपने ढंग का बिल्कुल अनूठा। पटकथा एकदम कसी हुई। लगा कि इसे जस का तस राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में रख दिया जाए तो संभवत: पहला पुरस्कार उसे ही मिलेगा। यह समझ में आता है कि बूधन के बारे में इस नाटक में अभिनय की भाव प्रवणता इसलिए हो सकती है कि वह इसी समुदाय का था। उसकी तकलीफ सबकी साझा तकलीफ है। इसलिए अभिनय जसी कोई बात ही नहीं थी। यह जीवन था। बावजूद इसके, जीवन को मंच पर हूबहू पेश करना आसान काम नहीं है। यह निश्चित रूप से छाड़ा प्रतिभा का कमाल है।पौने दो घंटे का नाटक खत्म होने तक कोई नहीं हिला। इस बीच बिजली कई बार आयी गई। छाड़ानगर की मेहमाननवाजी चलती रही। कभी किसी के घर से चाय बनकर आती तो कभी पकौड़े। लाख मना करने पर कि हमने थोड़ी देर पहले उन्हीं के साथ खाना खाया है, कोई सुनने को तैयार नहीं था। नाटक पूरा होने के बाद अभिनेताओं ने हमसे विदा ली। और हमारे साथ एक कप चाय और पीने की जिद की। लगभग पूरा नाटक मैंने वीडियो कैमरे में रिकार्ड किया। पूरब और पश्चिम तथा पश्चिम की पत्नी वीडियो में अपना प्रदर्शन देखना चाहते थे। अगला एक घंटा उसमें लग गया। तब तक लगभग पूरा छाड़ानगर जाग रहा था। समय था रात के तीन बजे। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि एक रात में पूरा नहीं हो सकता था। भारी मन से वे हमें कार तक छोड़ने आए।अगले दिन मैंने एक दो पत्रकारों और कुछ परिचित लोगों से पिछली रात का जिक्र किया। एक ने मुङो छूकर देखा। पूछा ‘आपको कुछ हुआ तो नहीं। पहले बताते तो पुलिस का बंदोबस्त करवा लेते। वहां जाना बिल्कुल ठीक नहीं था। कार के पहिये भी निकाल कर बेच लेते। आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं।ज् ऐसी प्रतिक्रियाएं आम थीं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि छाड़ा सुसंस्कृत हो सकते हैं। कला से उनका कोई संबंध है। प्रतिभा उनमें भी है। लेकिन मैंने जो देखा, उसके सामने ये प्रतिक्रियाएं बेमानी हैं। अगर आप कभी अहमदाबाद जाएं, तो मैं गुजारिश करूंगा कि छाड़ानगर जरूर जाएं।
छाड़ानगर में एक रात
पर मैं छाड़ानगर जाना चाहता था। दस हजार की आबादी वाली उस बस्ती में, जिन्हें अपराधी नगर के रूप में देखा जाता है। उनका खौफ इतना है कि रात में पुलिस भी उस बस्ती में नहीं जाती। पुलिस वैसे भी वहां तभी जाती है, जब उसे वसूली करनी होती है। छाड़ानगर में, जाहिर है, छाड़ा लोग रहते हैं। एक जनजाति, जिसे अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। तब से यह कलंक उनके माथे पर है।
पहला भागः
छाड़ानगर को सब जानते हैं। और कोई नहीं जानता। अहमदाबाद से बिल्कुल सटा हुआ। हवाई अड्डे के रास्ते में। लेकिन सबसे कटा हुआ। कोई उस तरफ जाता ही नहीं। कुछ डर के मारे, कुछ भ्रांतियों की वजह से। छाड़ानगर का नाम लेते ही एक अजीब सी असहज स्थिति पैदा होती है। सवाल होता है कि आप वहां जाना ही क्यों चाहते हैं। पर मैं छाड़ानगर जाना चाहता था। दस हजार की आबादी वाली उस बस्ती में, जिन्हें अपराधी नगर के रूप में देखा जाता है। उनका खौफ इतना है कि रात में पुलिस भी उस बस्ती में नहीं जाती। पुलिस वैसे भी वहां तभी जाती है, जब उसे वसूली करनी होती है।
छाड़ानगर में, जाहिर है, छाड़ा लोग रहते हैं। एक जनजाति, जिसे अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। तब से यह कलंक उनके माथे पर है। अहमदाबाद में कोई वारदात हो तो पहला शक छाड़ानगर पर जाता है। गिरफ्तारियां वहीं से होती हैं। करीब एक तिहाई आबादी इस धरपकड़ की वजह से जेल में रहती है। उनसे सवाल नहीं पूछे जाते। मान लिया जाता है कि वे अपराधी हैं। रात दस बजे मैं छाड़ानगर के बाहर था। साथ में कुछ मित्र और एक वकील। वकील साहब छाड़ा समुदाय के ही हैं। दिन में उनसे भेंट हुई थी। तभी मन बना लिया था कि छाड़ानगर जाना है। वकील अपना दुख-दर्द बता रहे थे। उन्होंने कहा ‘मैं पढ़ा लिखा हूं। वकालत की डिग्री है। अदालत से मान्यता मिली है। पर कोई मेरे पास मुकदमा लेकर नहीं आता है। मैं सिर्फ छाड़ा लोगों का वकील होकर रह गया हूं।
छाड़ानगर में स्थानीय लोगों ने हमारा स्वागत किया। दो महिलाओं ने गेंदे के फूलों की बनी माला पहनाई। हमारा पहला पड़ाव एक खस्ताहाल कमरा था। छाड़ानगर की लाइब्रेरी। पुस्तकालय में दो अखबार आते हैं। करीब पांच सौ किताबें वहां हैं। अच्छी किताबें। एक पूरा हिस्सा महाश्वेता देवी की किताबों का है। नजर पड़ी तो देखा कि वहां एक मेज पर महाश्वेता की फ्रेम में लगी तस्वीर रखी है। सामने जलती हुई अगरबत्ती। लोगों ने बताया कि महाश्वेता सचमुच की देवी हैं। उन्होंने हमारी बात की। हमारा पक्ष लिया। मुकदमा लड़ीं। वरना बूधन का मामला पुलिस ने कब का रफा-दफा कर दिया होता। उन्हीं में से एक ने स्वीकार किया कि छाड़ानगर में शराब की अवैध भट्ठियां हैं। पुलिस ने सारी अवैध भट्ठियां यहीं सीमित कर दी हैं। इससे उनकी वसूली ठीकठाक और जल्दी हो जाती है। लोगों का कहना था कि भट्ठियां उनकी मजबूरी हैं। उनके पास आमदनी का दूसरा कोई जरिया नहीं है। कोई उन्हें काम नहीं देता। झाडू पोंछे का भी नहीं।
पहला भागः
छाड़ानगर को सब जानते हैं। और कोई नहीं जानता। अहमदाबाद से बिल्कुल सटा हुआ। हवाई अड्डे के रास्ते में। लेकिन सबसे कटा हुआ। कोई उस तरफ जाता ही नहीं। कुछ डर के मारे, कुछ भ्रांतियों की वजह से। छाड़ानगर का नाम लेते ही एक अजीब सी असहज स्थिति पैदा होती है। सवाल होता है कि आप वहां जाना ही क्यों चाहते हैं। पर मैं छाड़ानगर जाना चाहता था। दस हजार की आबादी वाली उस बस्ती में, जिन्हें अपराधी नगर के रूप में देखा जाता है। उनका खौफ इतना है कि रात में पुलिस भी उस बस्ती में नहीं जाती। पुलिस वैसे भी वहां तभी जाती है, जब उसे वसूली करनी होती है।
छाड़ानगर में, जाहिर है, छाड़ा लोग रहते हैं। एक जनजाति, जिसे अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। तब से यह कलंक उनके माथे पर है। अहमदाबाद में कोई वारदात हो तो पहला शक छाड़ानगर पर जाता है। गिरफ्तारियां वहीं से होती हैं। करीब एक तिहाई आबादी इस धरपकड़ की वजह से जेल में रहती है। उनसे सवाल नहीं पूछे जाते। मान लिया जाता है कि वे अपराधी हैं। रात दस बजे मैं छाड़ानगर के बाहर था। साथ में कुछ मित्र और एक वकील। वकील साहब छाड़ा समुदाय के ही हैं। दिन में उनसे भेंट हुई थी। तभी मन बना लिया था कि छाड़ानगर जाना है। वकील अपना दुख-दर्द बता रहे थे। उन्होंने कहा ‘मैं पढ़ा लिखा हूं। वकालत की डिग्री है। अदालत से मान्यता मिली है। पर कोई मेरे पास मुकदमा लेकर नहीं आता है। मैं सिर्फ छाड़ा लोगों का वकील होकर रह गया हूं।
छाड़ानगर में स्थानीय लोगों ने हमारा स्वागत किया। दो महिलाओं ने गेंदे के फूलों की बनी माला पहनाई। हमारा पहला पड़ाव एक खस्ताहाल कमरा था। छाड़ानगर की लाइब्रेरी। पुस्तकालय में दो अखबार आते हैं। करीब पांच सौ किताबें वहां हैं। अच्छी किताबें। एक पूरा हिस्सा महाश्वेता देवी की किताबों का है। नजर पड़ी तो देखा कि वहां एक मेज पर महाश्वेता की फ्रेम में लगी तस्वीर रखी है। सामने जलती हुई अगरबत्ती। लोगों ने बताया कि महाश्वेता सचमुच की देवी हैं। उन्होंने हमारी बात की। हमारा पक्ष लिया। मुकदमा लड़ीं। वरना बूधन का मामला पुलिस ने कब का रफा-दफा कर दिया होता। उन्हीं में से एक ने स्वीकार किया कि छाड़ानगर में शराब की अवैध भट्ठियां हैं। पुलिस ने सारी अवैध भट्ठियां यहीं सीमित कर दी हैं। इससे उनकी वसूली ठीकठाक और जल्दी हो जाती है। लोगों का कहना था कि भट्ठियां उनकी मजबूरी हैं। उनके पास आमदनी का दूसरा कोई जरिया नहीं है। कोई उन्हें काम नहीं देता। झाडू पोंछे का भी नहीं।
Tuesday, July 8, 2008
दहशतगर्दी टुकड़खोर है
दहशतगर्दी टुकड़खोर है। टुकड़ों में रहती है। टुकड़ों पर पलती है।
उसका काम है टुकड़े-टुकड़े करना। छोटे से दायरे में। बहुत सीमित दायरे में। बहुत सीमित असर के साथ। यह दायरा बड़ा भी हो भी नहीं सकता। बीच-बीच में अपनी औकात दिखाता रहता है। टुकड़खोर की औकात। पर जिंदगी दहशत पर भारी पड़ती है। हमेशा। जैसे काबुल में। तबाही हुई। लेकिन जिंदगी तबाह नहीं हुई। ललक बच गई। जिंदा रहने की। उम्मीद की पूरी दुनिया के साथ दर्द है पर खौफ नहीं। हाथ उठे हुए हैं। काबुलीवाले को पुकारते हुए।

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